कपिल सिब्बल। इस चुनावी मौसम में मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त पेशकश के मामले में होड़ करके राजनीतिक दल एक दूसरे को मात देने में लगे हैं। चुनाव में रेवड़ियों की इस बारिश के राजनीतिक एवं आर्थिक, दोनों निहितार्थ हैं। साथ ही यह उन राजनीतिक दलों के दोहरे रवैये को भी जाहिर करता है जो मुफ्त पेशकश के मामले में दूसरे दलों को तो आईना दिखाते हैं, लेकिन चुनाव जीतने के लिए खुद उनका सहारा लेने से कोई संकोच नहीं करते। यह दोहरा रवैया भाजपा के डीएनए में है।

गत 16 जुलाई को ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा, ‘रेवड़ी संस्कृति देश के विकास की राह में बाधक है। रेवड़ी संस्कृति के पैरोकार कभी एक्सप्रेसवे, एयरपोर्ट और डिफेंस कारिडोर नहीं बना सकते। युवाओं को खासकर इस संस्कृति के प्रति सतर्क रहना चाहिए, क्योंकि यह उन्हें लालच देकर उनके भविष्य को अंधकार की ओर धकेलती है। हमें साथ मिलकर देश की राजनीति से इस रेवड़ी संस्कृति को मिटाना है।’

यदि प्रधानमंत्री रेवड़ी संस्कृति को लेकर इतने ही चिंतित हैं तो वह अपनी ही पार्टी के नेताओं की तमाम चुनावी घोषणाओं को कैसे जायज ठहराएंगे। उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने एलान किया था कि राज्य की लड़कियों को सशक्त बनाने के लिए उनकी सरकार मेधावी छात्राओं को मुफ्त स्कूटी देगी। भाजपा ने गरीब परिवारों की लड़कियों की शादी में एक लाख रुपये की वित्तीय सहायता का भी वादा किया। मध्य प्रदेश में भी भाजपा ने किसानों को भारी-भरकम सब्सिडी दी। वहां घरेलू उपभोग के लिए बिजली पर भी सब्सिडी दी गई। दिल्ली में भाजपा जहां केजरीवाल सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी का विरोध करती आई है तो पंजाब में उसने प्रत्येक परिवार को 300 यूनिट मुफ्त बिजली देने का वादा किया।

चुनाव में विभिन्न वर्गों को लुभाने की एक संस्कृति सी बन गई है। इस खेल में भाजपा इकलौती खिलाड़ी नहीं। कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दलों ने इसे बढ़ावा दिया है। खासतौर से आम आदमी पार्टी यानी आप इस संस्कृति की प्रवर्तक रही, जिसने दिल्ली में इसे आजमाया और जनता ने भी पार्टी को दोबारा सत्ता सौंपकर उसे पुरस्कृत भी किया।

इन मुफ्त पेशकशों की प्रकृति की पड़ताल करें तो पाएंगे कि ये उपाय समाज के उस विपन्न तबके की स्थिति में सुधार से जुड़े हैं, जिसे आर्थिक सहायता की आवश्यकता होती है। इसी कड़ी में संप्रग सरकार ने मनरेगा जैसी संकल्पना की थी। मनरेगा के माध्यम से अकुशल कर्मियों को सौ दिनों का रोजगार उपलब्ध कराना था। इसका उद्देश्य प्रत्येक ग्रामीण परिवार को एक निश्चित आय प्रदान करना था। इसके अतिरिक्त किसानों की कर्ज माफी हुई। चूंकि किसानों के पास कर्ज अदायगी के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे तो इसका मकसद उन्हें उस स्थिति से उबारना था। बाढ़ और सूखे से फसल को हुए नुकसान के अलावा औपचारिक-अनौपचारिक स्रोतों से कर्ज लेने के अतिरिक्त ग्रामीण संकट बढ़ाने वाले कई कारण प्रभावी रहे।

उल्लेखनीय है कि कृषि में लागत के अनुपात में किसानों की आमदनी उतनी नहीं बढ़ी है। उज्ज्वला जैसी केंद्र की कथित रेवड़ी योजना को ही लें तो इसने राजनीतिक रूप से लाभ पहुंचाने के अलावा ग्रामीण परिवारों को रियायती दरों पर सिलेंडर की सुविधा भी प्रदान की है।

एक कड़वी हकीकत यह भी है कि देश के 80 करोड़ लोगों की मासिक आय करीब 5,000 रुपये है। ऐसे में विभिन्न सरकारी योजनाओं और सहायता के बिना उनकी गुजर-बसर संभव नहीं लगती। केंद्र सरकार की कल्याणकारी योजनाएं भी दो प्रकार की हैं। करीब 740 केंद्रीय योजनाओं का पूरा व्यय केंद्र सरकार वहन करती है। फिर, केंद्र प्रायोजित योजनाओं की बारी आती है, जिनके खर्च की पूर्ति केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर करती हैं। इनमें वित्तीय समावेशन, मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं, जल से नल, किसानों के लिए कर्ज और बीमा, मुफ्त एलपीजी कनेक्शन और रियायती दर पर सिलेंडर, बालिका शिक्षा, मकान बनाने के लिए वित्तीय सहायता और बिजली जैसी योजनाएं शामिल हैं। इनमें से अधिकांश योजनाओं की संकल्पना कांग्रेस ने की थी और मोदी ने न केवल उन्हें अपनाया, बल्कि उनकी री-ब्रांडिंग कर यह अनुभूति कराई कि वही उनके मूल प्रवर्तक हैं।

रेवड़ी योजनाओं का अस्तित्व और उनका निरंतर विस्तार यही संकेत करता है कि एक के बाद एक सरकारें आर्थिक मोर्चे पर ऐसा परिवेश बनाने में नाकाम रही हैं, जिसमें नागरिकों को एक निश्चित आय के अवसर मिल सकें। ऐसे में मुफ्त सुविधाएं मुश्किलों से मुक्ति का माध्यम प्रतीत होती हैं। एक ऐसे देश में जहां सामाजिक सुरक्षा आवरण का अभाव है, वहां ये और आवश्यक हो जाती हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यदि मोदी सरकार के पिछले करीब दस वर्षों में लोगों का जीवन स्तर सुधरा होता तो हमें रेवड़ी संस्कृति में संकुचन दिखाई देता। इस सरकार की हकीकत यही है कि उसकी नीतियों ने कुछ पसंदीदा लोगों को ही सर्वाधिक लाभ पहुंचाया।

इन मुफ्त पेशकशों के आर्थिक पक्ष को समझना भी आवश्यक है। चूंकि किसानों, वंचितों, दलितों और अन्य पिछड़े समुदायों जैसे एक बड़े वर्ग तक रेवड़ियां पहुंचाने में ही अधिकांश संसाधन खर्च हो जाते हैं तो पूंजीगत व्यय के लिए गुंजाइश घट जाती है। परिणामस्वरूप नए स्कूल, अस्पताल, सड़क, संचार और हाईवे जैसी उन परियोजनाओं के लिए पैसों की किल्लत हो जाती है, जिनकी दीर्घकालिक आर्थिक लाभ की दृष्टि से बड़ी महत्ता है। तब प्रधानमंत्री की वह चेतावनी सही लगती है कि रेवड़ी संस्कृति विकास में अवरोध बनती है, क्योंकि पूंजीगत व्यय ही आर्थिक वृद्धि को गति प्रदान करता है। पेशकशों की पूर्ति के लिए सरकारों को कर्ज लेना पड़ता है, जिससे राजस्व और राजकोषीय दोनों घाटे बढ़ते हैं। कर्ज की देनदारी बढ़ती है।

यह एक ऐसी चुनौती है, जिससे अनुवर्ती सरकारों को जूझना पड़ता है। बहरहाल, सरकारों के पास तब कोई और चारा भी नहीं बचता, जब वे आजादी के 75 वर्ष बाद तक सामान्य जन को तमाम बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने में भी नाकाम रही हैं। रेवड़ी पर प्रधानमंत्री की चिंता को लेकर हम उनके आभारी हैं, लेकिन साथ ही उनसे यह अनुरोध भी करते हैं कि वह यह स्वीकार करें कि गरीबी और अभावग्रस्तता जैसी समस्याओं के समाधान में उनकी सरकार नाकाम रही है। हमें ऐसी सरकार चाहिए जो संस्थागत स्थिरता प्रदान करे। टकराव बढ़ाने के बजाय आर्थिक वृद्धि को गति दे। ऐसी सरकार के चुनाव में आगामी आम चुनाव निर्णायक पड़ाव होगा।

(लेखक राज्यसभा सदस्य एवं वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)