राजीव सचान। पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आ गए। इन नतीजों में लोकलुभावन योजनाओं की कितनी भूमिका रही, इस पर बहस हो सकती है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हर दल ने इस तरह की घोषणाएं कीं। राजनीतिक दलों ने अपनी ऐसी घोषणाओं को जनकल्याण की योजना कहा तो विरोधी दलों की ऐसी ही घोषणाओं को रेवड़ी बताया। एक तथ्य यह भी है कि विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में किसी दल की मुफ्त की घोषणाओं पर तो जनता ने भरोसा किया, लेकिन अन्य दलों की ऐसी ही घोषणाओं पर यकीन करने से इन्कार किया।

इसका एक उदाहरण पिछले लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिला था। कांग्रेस ने बड़े जोरशोर से यह घोषणा की थी कि यदि वह सत्ता में आई तो सर्वाधिक गरीब 20 प्रतिशत परिवारों को प्रति वर्ष 72 हजार रुपये देगी, लेकिन लोगों ने इस आकर्षक घोषणा पर भरोसा नहीं किया, क्योंकि एक तो इसके आसार कम थे कि कांग्रेस केंद्र की सत्ता हासिल करने में सफल हो जाएगी और दूसरे, कांग्रेस की सरकारों का इस तरह की योजनाओं को लागू करने का रिकार्ड बहुत खराब रहा है।

सभी इससे परिचित हैं कि एक समय राजीव गांधी ने कहा था कि यदि हम जरूरतमंद लोगों को एक रुपया भेजते हैं तो उसमें से 15 पैसे ही उन तक पहुंचते हैं। देश की जनता ने 20 प्रतिशत सबसे ज्यादा गरीब परिवारों को 72 हजार रुपये सालाना देने की कांग्रेस की लोकलुभावन घोषणा के बजाय मोदी सरकार की गरीब किसानों को प्रति वर्ष छह हजार रुपये देने की घोषणा पर अधिक यकीन किया। इसका एक बड़ा कारण यह रहा कि मोदी सरकार ने शौचालय, रसोई गैस, आवास और बिजली समेत अन्य अनेक योजनाओं का क्रियान्वयन प्रभावी ढंग से किया है।

लोकलुभावन घोषणाएं तभी काम करती हैं, जब जनता को यह भरोसा होता है कि ऐसी घोषणाएं करने वाला दल चुनाव जीतने में समर्थ होगा। आम आदमी पार्टी ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में लोकलुभावन घोषणाएं करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन उसके जीतने की कोई संभावना न होने के कारण जनता ने उन पर ध्यान नहीं दिया। केजरीवाल ने इन तीनों राज्यों में 205 प्रत्याशी खड़े किए। इन सभी को भारी बहुमत से पराजय का सामना करना पड़ा।

चूंकि कुछ समय पहले पंजाब में हुए विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी के जीतने की संभावना थी, इसलिए वहां उसकी ओर से की गईं लोकलुभावन घोषणाओं ने असर दिखाया और वह बड़े बहुमत से सत्ता में आ गई। इसके बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि केवल मुफ्त की घोषणाओं के कारण आम आदमी पार्टी ने पंजाब में जीत हासिल की। पंजाब में उसकी जीत का एक बड़ा कारण यह भी था कि वहां की जनता कांग्रेस और अकाली दल, दोनों से आजिज आ गई थी और भाजपा चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं थी। कुछ यही कहानी तेलंगाना की भी रही।

यह कहना सही नहीं कि तेलंगाना में कांग्रेस केवल इसलिए सत्ता में आई, क्योंकि उसने मुफ्त की तमाम घोषणाएं कर रखी थीं। उसके सत्ता में आने का एक बड़ा कारण यह रहा कि तेलंगाना के लोग केसीआर सरकार को हटाना चाह रहे थे। उन्हें विकल्प के रूप में कांग्रेस दिखी, न कि भाजपा। भाजपा एक समय केसीआर का मुकाबला करती और बीआरएस का विकल्प बनती दिख रही थी, लेकिन उसके नेताओं की गुटबाजी ने उसका काम बिगाड़ दिया। चुनाव के पहले यह स्पष्ट हो गया था कि भाजपा कितना भी जोर लगा ले, वह तेलंगाना की सत्ता में नहीं आने जा रही। इसके विपरीत कांग्रेस की संभावनाएं तभी बढ़ गई थीं, जब कुछ समय पहले उसने पड़ोसी राज्य कर्नाटक में जीत हासिल की थी। शायद इसी कारण केसीआर ने यह साफ कर दिया था कि वह न तो एनडीए का हिस्सा बनेंगे और न ही आइएनडीआइए का।

जब तक यह परिभाषित नहीं होता कि कौन सी योजना रेवड़ी या फिर मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाली है और कौन जनकल्याणकारी, तब तक लोकलुभावन घोषणाओं का सिलसिला खत्म नहीं होने वाला। देश की औसत जनता इतनी जागरूक नहीं कि वह यह फैसला कर सके कि कौन सी लोकलुभावन घोषणा उसका हित या अहित करने और साथ ही अर्थव्यवस्था को बल देने या फिर उसका बेड़ा गर्क करने वाली है।

निःसंदेह निर्धन-वंचित लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने और उनकी आय बढ़ाने वाली कल्याणकारी योजनाओं की आवश्यकता है, लेकिन इसी के साथ इस पर भी विचार करना आवश्यक है कि इस तरह की योजनाएं वांछित परिणाम दे रही हैं या नहीं? यदि कोई योजना उत्पादक नहीं सिद्ध हो रही या फिर लोगों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने में सहायक नहीं बन रही तो फिर उसके औचित्य पर विचार होना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि कुछ योजनाएं मुफ्तखोरी की संस्कृति को बढ़ावा दे रही हैं। इतना ही नहीं, वे गरीबों को गरीब ही बनाए रखने का काम कर रही हैं।

राजनीतिक दलों को यह समझना ही होगा कि जितनी जरूरी जनकल्याण की योजनाएं हैं, उतनी ही विकास की योजनाएं भी। यदि विकास की योजनाओं को गति नहीं दी गई तो फिर लोकलुभावन योजनाओं से पीछा नहीं छूटने वाला। लोगों को मुफ्त बिजली, पानी, राशन आदि के साथ अच्छे स्कूल, अस्पताल, कालेज, परिवहन के साधन और रोजगार भी चाहिए। ये रेवड़ियां बांटने से नहीं, विकास योजनाओं पर बल देने से ही संभव होंगे। चूंकि लोकलुभावन घोषणा करना जितना आसान होता है, उसे खत्म करना उतना ही कठिन, इसलिए किसी को इसका आकलन करना ही चाहिए कि मनरेगा सरीखी योजना कब तक जारी रखनी पड़ेगी या फिर 80 करोड़ से अधिक परिवारों को मुफ्त अनाज कब तक देना पड़ेगा?

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)