तसलीमा नसरीन। बांग्लादेश में अंतरिम सरकार का गठन हुए दो माह से अधिक का समय हो गया है, लेकिन वहां से विचलित और चिंतित करने वाली खबरें आने का सिलसिला थम नहीं रहा है। यदि कभी मोहम्मद यूनुस से भेंट होती है तो पूछूंगी कि ऐसा क्यों है? 2005 में जब फ्रांस में उनसे मुलाकात हुई थी तो उन्होंने बार-बार मुझसे कहा था, ‘बांग्लादेश लौट आइए।’ मैंने कहा था, ‘कैसे लौटूं? मुझे तो वहां की सरकार आने ही नहीं देगी।’ इस पर उन्होंने कहा था, ‘आने न देने का क्या मतलब है? वह तो आपका ही देश है। अपने देश में जाना और रहना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। इस अधिकार को बाधित करने का अधिकार किसी सरकार के पास नहीं है।’ मैंने दुखी मन से कहा था, ‘मैं तो कितनी बार दूतावास जा चुकी हूं। न तो मुझे वीजा दिया जाता है, न ही मेरा पासपोर्ट रीन्यू होता है।’ उन्होंने मेरी मदद करने का वादा किया था। अब यह जानने की इच्छा हो रही है कि उन्होंने मेरे लिए क्या कुछ किया होगा? शायद तब कई कारणों से मेरे हित में कुछ करना उनके लिए संभव नहीं रहा होगा, लेकिन अब तो वह सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर हैं। अब तो सब कुछ उनके ही हाथ में है। क्या वह डर रहे हैं? उनके आसपास जो लोग हैं, वे सब कट्टरपंथी हैं। यह बात मुझसे बेहतर वह जानते हैं। क्या उन्हें डर लग रहा है कि मेरी मदद करने पर नए जिहादी दोस्त कहीं उनसे नाराज न हो जाएं। आखिर इस उम्र में वह किनके साथ खड़े हैं? क्या उन्हें अफसोस नहीं हो रहा? मेरे तो तीस साल निर्वासन में बीत गए। बाकी जितनी उम्र बची है, वह भी इसी तरह गुजर जाएगी। कम से कम मैं इस गर्व के साथ मर सकूंगी कि अपनी सुख-सुविधा के लिए कभी मैंने अपने शत्रु के साथ समझौता नहीं किया। क्या वह भी इस तरह गर्व कर सकेंगे?

सबको पता है कि मोहम्मद यूनुस मेरी बातों का जवाब नहीं देंगे। बांग्लादेश में हो क्या रहा है? जो भी आदमी पसंद नहीं आ रहा, उसे हत्या के झूठे मामले में फंसाकर गिरफ्तार किया जा रहा है। भिन्न राजनीतिक विचार को बर्दाश्त नहीं किया जा रहा। विरोधियों को या तो मार डाला जा रहा है या जेल में डाल दिया जा रहा है। विषमता-विरोधी छात्रों ने अपने मेधावी होने का नकाब उतार फेंका है। वे न तो मेधावी छात्र हैं और न ही विषमता-विरोधी। उलटे वे विषमता के ही पक्षधर हैं। इसीलिए हिंदुओं समेत अन्य अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न जारी है। हसीना सरकार की जगह जमात-इस्लामपंथी-एनजीओ सरकार ने ले ली है। इस सरकार के लोग अपने असल चेहरे के साथ सामने हैं। ये जमात-ए-इस्लामी के छात्र संगठन शिविर और हिजबुत तहरीर संगठन के लोग हैं। जर्मनी, रूस, आस्ट्रिया, अमेरिका, मिस्र, जार्डन, सऊदी अरब, कजाखस्तान, उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान समेत अनेक देशों ने हिजबुत तहरीर पर प्रतिबंध लगा रखा है। इस संगठन पर गत दिवस भारत सरकार ने भी प्रतिबंध लगाया। यह ध्यान रहे कि यूनुस ने सत्ता में आने के बाद हिजबुत तहरीर पर लगा प्रतिबंध हटा लिया था। यूनुस हिजबुत तहरीर के नेताओं को साथ लेकर अमेरिका गए थे। वहां ऐसे ही एक नेता महफूज आलम की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कह रहे थे कि बांग्लादेश के जनांदोलन की पटकथा इन्होंने ही लिखी। साफ है कि यह कथित जनांदोलन अचानक हुई कोई क्रांति नहीं है।

विडंबना यह है कि इस्लामी आतंकियों का सफाया करने के लिए जिस अमेरिका ने लाखों डालर खर्च किए, वही इस कथित क्रांति पर ताली बजा रहा है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन कुछ ज्यादा ही खुश हैं। महफूज आलम ने छात्र का वेश धरकर पूरे बांग्लादेश को मूर्ख बनाया और यूनुस उसे महान क्रांतिकारी बताकर लोगों को मूर्ख बना रहे हैं। आखिर वह यह कैसे नहीं देख रहे कि बांग्लादेश के दुर्गा पूजा पंडालों में इस्लामिक कट्टरपंथी जिहादी तराने गा रहे हैं। बांग्लादेश की जेलों में बंद तमाम अतिवादियों-आतंकियों को यूनुस सरकार ने रिहा कर दिया। कुछ दिन पहले ही आतंकी संगठन जमायतुल अंसार फिल हिंदाल शरक्कीया के 32 सदस्यों को रिहा किया गया। अगर यूनुस सचमुच बांग्लादेश से प्यार करते, तो वहां जारी माब लिंचिंग के सिलसिले को खत्म करने के बारे में सोचते।

यह याद रहे कि बांग्लादेश से घृणा करने वाले और 1971 में बांग्लादेश को बाटमलेस बास्केट कहने वाले हेनरी किसिंजर को भी नोबेल पुरस्कार मिला था। यूनुस भी नोबेल पुरस्कार विजेता हैं, मगर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वह बांग्लादेश से बहुत प्यार करते हैं। हिजबुल तहरीर का सरगना महफूज आलम क्या मोहम्मद यूनुस का विशेष सहयोगी है या यूनुस ही महफूज आलम के विशेष सहयोगी हैं? जो भी हो, यह साफ है कि बांग्लादेश में अब भी अराजकता फैली है। यूनुस को इसकी परवाह ही नहीं है।

शेख हसीना अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए गद्दी पर बैठी थीं। पिता का नाम, उनकी तस्वीरों और प्रतिमाओं को उन्होंने देश भर में फैला दिया और लोगों के मन-मस्तिष्क को इस्लाम से भर दिया था। उन्होंने सोचा था कि इससे देशवासियों के सोचने-समझने की शक्ति कुंद हो जाएगी और वह अनंत काल तक सत्ता पर बैठी आराम फरमाएंगी। उन्होंने सोचा भी नहीं था कि मजहबी कट्टरता के नशे में बेसुध तमाम लोग एक दिन जब जिहादी बन जाएंगे, तब गोली चलाकर उनमें से कुछ को तो मारा जा सकता है, लेकिन सबको नहीं। जिस सांप को उन्होंने पाला-पोसा था, उसके फन उठाते ही उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा।

यदि यूनुस ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पंथनिरपेक्षता बहाल करने की कोशिश की, तो जिहादी सांप उन्हें भी डसेंगे। हसीना से बदला लिए जाने के बाद चुनाव की व्यवस्था करके जितनी जल्दी वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएं, उनके लिए उतना ही अच्छा होगा। उन्हें याद रखना चाहिए कि 30 लाख शहीदों के खून के बदले बांग्लादेश को आजादी मिली थी। उस आजादी को उलट देने की वह चाहे कितनी भी कोशिश कर लें, वह सफल नहीं होगी। उनके नाम पर देश चला रहे जिहादियों को तो लाभ मिल ही रहा है, जमात, शिविर और रजाकार समूहों समेत दूसरे कट्टरपंथी संगठनों को भी लाभ मिल रहा है। ये लोग जिस-तिस को देश छोड़कर चले जाने के लिए बाध्य कर रहे हैं। लगता नहीं कि यूनुस अतिवाद पर अंकुश लगाना जानते भी हैं। अगर जानते तो बांग्लादेश इतना अशांत नहीं होता।

(स्तंभकार बांग्लादेश से निर्वासित लेखिका हैं)