संजय गुप्त। लोकसभा चुनाव में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा 240 सीटों तक ही सीमित रही तो कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने ऐसा माहौल बनाना शुरू कर दिया कि भाजपा का ग्राफ गिरने लगा है, पर गत दिनों जम्मू-कश्मीर के साथ हरियाणा में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस जिस तरह 37 सीटों पर थम गई तथा भाजपा पिछली बार से अधिक 48 सीटें हासिल कर सत्ता में आ गई, उससे स्पष्ट है कि राजनीतिक वातावरण वैसा नहीं है, जैसा कांग्रेस बता रही है। आम चुनाव में भाजपा बहुमत से पीछे अवश्य रह गई थी, लेकिन कांग्रेस भी तमाम जोर लगाने के बाद भी 99 सीटें ही हासिल कर सकी थी। हरियाणा के विधानसभा चुनावों से यह साफ है कि लोकसभा चुनावों में भाजपा के कमजोर प्रदर्शन के कुछ अलग ही कारण थे और वे भी मुख्यतः उत्तर प्रदेश और राजस्थान तक ही सीमित थे। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि भाजपा ने उन कारणों का एक हद तक निवारण कर लिया है, जिनके चलते उसे लोकसभा चुनाव में झटका लगा।

भले ही अप्रत्याशित नतीजों के कारण हरियाणा चर्चा के केंद्र में आ गया हो, लेकिन जम्मू-कश्मीर के चुनाव कम महत्वपूर्ण नहीं। अनुच्छेद 370 हटने के बाद पहली बार हुए चुनावों में भाजपा कश्मीर घाटी में तो अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई, लेकिन उसने यह दिखाया कि वह जम्मू संभाग में सबसे अधिक प्रभावशाली राजनीतिक दल है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि मोदी सरकार देश के साथ दुनिया को यह जरूरी संदेश देने में सफल रही कि भारत के इस भूभाग में लोकतंत्र न केवल मजबूत है, बल्कि उसकी जड़ें और अधिक गहरी हुई हैं। जम्मू-कश्मीर के चुनाव नतीजों का एक उल्लेखनीय पक्ष यह भी है कि जो तमाम अलगाववादी, कट्टरपंथी चुनाव मैदान में उतरे थे, उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा। यह एक शुभ संकेत है।

हरियाणा में भाजपा दस वर्षों से सत्ता में थी। इसके चलते उसके खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान था। ऐसे माहौल को देखते हुए लग रहा था कि इस बार भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं। इन मुश्किलों के बढ़ने की एक वजह यह भी थी कि कांग्रेस की ओर से यह कहा जा रहा था कि किसान, पहलवान और जवान भाजपा से नाराज हैं। ऐसा किसानों के आंदोलन, महिला पहलवानों के मुद्दे और अग्निवीर योजना का उल्लेख करते हुए कहा जा रहा था। शायद भाजपा को अपनी चुनौतियों का भान था, इसलिए उसने कुछ माह पहले मनोहर लाल खट्टर की जगह नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया और सत्ता में साझीदार दल जननायक जनता पार्टी से भी पीछा छुड़ा लिया। इसके बाद उसने विधानसभा चुनावों में 60 से अधिक विधायकों के टिकट काटकर नए चेहरों को चुनाव मैदान में उतारा। कांग्रेस के दुष्प्रचार की काट के लिए उसने भूपेंद्र सिंह हुड्डा के कार्यकाल के भ्रष्टाचार का भी जमकर प्रचार किया। इस प्रचार के तहत एक ओर जहां यह कहा गया कि यदि कांग्रेस सत्ता में आती है तो यह भूपेंद्र सिंह

हुड्डा और उनके करीबियों की सरकार होगी और यदि ऐसा हुआ तो सरकारी नौकरियों में पर्ची और खर्ची का दौर फिर से लौट आएगा। पर्ची और खर्ची का उल्लेख करके यही समझाया गया कि सरकारी नौकरियां या तो सिफारिश से मिलेंगी या फिर रिश्वत देकर। इसी तरह लोगों के छोटे-छोटे काम भी बिना सिफारिश और पैसे के नहीं हो सकेंगे। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि पर्ची और खर्ची के जुमले ने लोगों पर असर किया। ऐसा इसीलिए हुआ, क्योंकि भूपेंद्र सिंह हुड्डा के कार्यकाल में सरकारी नौकरियों में सिफारिश और पैसे के बल पर भर्ती के साथ-साथ भ्रष्टाचार के अनेक मामले सामने आए थे। भाजपा ने जिस तरह यह माहौल बनाया कि कांग्रेस की सरकार वास्तव में खुद को जाटों का एक मात्र नेता मानने वाले भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके परिवार की सरकार होगी, उससे गैर जाट जातियों को यह संदेश गया कि यदि ऐसा हुआ तो उनकी अनदेखी होगी।

हरियाणा में कांग्रेस को इसलिए भी नुकसान हुआ, क्योंकि पार्टी नेतृत्व ने भूपेंद्र सिंह हुड्डा को आवश्यकता से अधिक अधिकार संपन्न कर दिया। इसके चलते उन्होंने 90 में से करीब 70 टिकट अपने लोगों को दिए। इतना ही नहीं, उन्होंने कांग्रेस के अन्य दिग्गज नेताओं कुमारी सैलजा और रणदीप सिंह सुरजेवाला को भी किनारे करने का काम किया। टिकट वितरण में भूपेंद्र सिंह हुड्डा की मनमानी चलने से सैलजा नाराज हो गईं। उन्होंने अपनी नाराजगी छिपाई भी नहीं। इसके चलते दलितों के मन में संदेह पैदा हुआ। कांग्रेस नेतृत्व ने सैलजा की नाराजगी को जब तक दूर करने की कोशिश की, तब तक देर हो चुकी थी। यह भी स्पष्ट है कि कांग्रेस हरियाणा में अपनी जीत को लेकर अति आत्मविश्वास से ग्रस्त हो गई थी और यह मानकर चलने लगी थी कि वह बहुत आसानी से सत्ता हासिल करने जा रही है। जब ऐसा नहीं हुआ तो खिसियाहट में आकर उसने यह कहना शुरू कर दिया कि चुनाव आयोग के रवैये और इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में कथित गड़बड़ी के कारण उसे पराजय का सामना करना पड़ा। कांग्रेस नेताओं ने चुनाव नतीजे स्वीकार करने से मना कर दिया। कांग्रेस नेताओं के ऐसे रवैये पर चुनाव आयोग ने उचित ही कठोर आपत्ति जताई।

फिलहाल कांग्रेस हरियाणा में अपनी पराजय के कारणों की समीक्षा कर रही है। वह भूपेंद्र सिंह हुड्डा के साथ अन्य दिग्गज नेताओं के प्रति अपनी नाराजगी भी प्रकट कर रही है, लेकिन देखना यह है कि वह ऐसे नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकने में सक्षम हो सकेगी या नहीं? हरियाणा के चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस के सहयोगी दलों ने उसे निशाने पर ले लिया है। सहयोगी दलों का कहना है कि कांग्रेस ने उनका सहयोग लिया होता तो हरियाणा में नतीजे कुछ और होते। जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा के कारण ही कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में कोई समझौता नहीं हो सका। हरियाणा में कांग्रेस की हार के गहरे असर होंगे। यह लगभग तय है कि महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनावों में उसे सहयोगी दलों के दबाव का सामना करना पड़ेगा। जहां कांग्रेस फिर से मुश्किलों से घिरती दिख रही है, वहीं भाजपा को लोकसभा चुनाव में मिले झटके के बाद वह आवश्यक ऊर्जा मिल गई, जिसकी उसे तलाश थी।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]