समय के साथ समर्थ होती हिंदी, इसे समृद्ध करने में अनेक विदेशी एवं प्रवासी भारतीयों की अहम भूमिका
यह उल्लेखनीय तथ्य है कि हिंदी को समृद्ध करने में देश के विद्वानों के साथ-साथ अनेक विदेशी एवं प्रवासी भारतीयों की भी अहम भूमिका रही है। विदेशी विद्वानों का हिंदी के प्रति अनुराग का एक लंबा इतिहास है।
डा. राकेश पांडेय : भारत की विश्व में जैसे-जैसे प्रभुता बढ़ रही है, वैसे-वैसे हिंदी भी अपने महत्व को रेखांकित कर रही है। वैश्वीकरण के दौर में हिंदी भी वैश्विक हो रही है। हिंदी विश्व में अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है। भारत में व्यापार करने वाली विश्व की अनेक बड़ी कंपनियां जनता तक पहुंचने के लिए अपने उत्पादों में हिंदी का प्रयोग कर रही हैं। हालांकि इसकी राह में कुछ चुनौतियां भी हैं, लेकिन नई शिक्षा नीति में देश की मातृभाषाओं को समृद्ध करने के लिए जो प्रविधान किए गए हैं, यदि वे प्रभावी तरीके से लागू हो पाते हैं तो निश्चित ही हिंदी और समृद्ध होगी।
यह उल्लेखनीय तथ्य है कि हिंदी को समृद्ध करने में देश के विद्वानों के साथ-साथ अनेक विदेशी एवं प्रवासी भारतीयों की अहम भूमिका रही है। विदेशी विद्वानों का हिंदी के प्रति अनुराग का एक लंबा इतिहास है। इसी कड़ी में वे भारतवंशी लोग भी हैं, जो गिरमिटिया मजदूर के रूप में लगभग 175 वर्ष पूर्व मारीशस, फिजी, त्रिनिदाद, गुयाना और सूरीनाम पहुंचे थे। वे लोग बहुत विद्वान तो नहीं थे, लेकिन अपने साथ रामायण, हनुमान चालीसा की पोथियां एवं आल्हा आदि ले गए थे। परिणामस्वरूप आज उन देशों में हिंदी एवं भारतीय लोक भाषाएं तुलनात्मक रूप से अधिक समृद्ध हैं। फिजी के राष्ट्रकवि पंडित कमला प्रसाद मिश्र, विवेकानंद शर्मा, मारीशस के राष्ट्रकवि ब्रिजेंद्र भगत मधुकर, सोमदत्त बखौरी, मुनीश्वर लाल चिंतामणि सहित अनेक लेखक हैं, जिन्होंने विश्व हिंदी को समृद्ध किया है। इन गिरमिटिया मजदूरों के रूप में विभिन्न देशों में हिंदी तो पहुंची ही, उसका विस्तार भी हुआ। हिंदी को लेकर शोध कार्य अनेक विदेशी विद्वान अंग्रेजी शासन की शुरुआत के समय से ही कर चुके थे।
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने ज्यों-ज्यों अपना तंत्र स्थापित किया, त्यों-त्यों उसके सामने भाषा को लेकर अनेक समस्याएं आने लगीं, क्योंकि भारत में अनेक भाषाएं एवं बोलियां प्रचलित थीं। उस समय मुगल शासन होने के कारण फारसी एवं अरबी ही राजकाज की भाषा थी, जिसे न तो ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी समझते थे और न ही आम जनता। ऐसी स्थिति में जान गिल क्राइस्ट ने देसी भाषाओं का समन्वय कर एक ऐसी भाषा का सृजन किया, जिसे हिंदुस्तानी भाषा का नाम दिया गया। उन्होंने ‘डिक्शनरी आफ इंग्लिश एंड हिंदुस्तानी’ की रचना की। इस कोश में तत्कालीन प्रचलित अरबी एवं फारसी भाषा के अनेक शब्दों को स्थान दिया गया। उन्होंने 1796 में हिंदुस्तानी भाषा के व्याकरण पर भी एक पुस्तक प्रकाशित की। जान गिल क्राइस्ट का यह ग्रंथ तत्कालीन अंग्रेजों को हिंदी सिखाने के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ। उनकी ही तरह फ्रांस के विद्वान गार्सा द तासीं की भी विश्व में हिंदी के महत्व को रेखांकित करने में अहम भूमिका है। वह कभी भी भारत नहीं आए, लेकिन उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं भाषाओं पर उल्लेखनीय कार्य किया। उनकी फ्रेंच भाषा में लिखी गई पुस्तक ‘हिंदुई और हिंदुस्तानी साहित्य का इतिहास’ हिंदी साहित्य की प्रथम कड़ी मानी जाती है, जिसमें उन्होंने तुलसी, कबीर, जायसी और सूरदास सहित हिंदी और उर्दू के लगभग सात सौ से अधिक रचनाकारों का उल्लेख किया है।
भारत से सात समुंदर पार बैठकर हिंदी के साहित्य के विषय में शोध करना सहज कार्य नहीं है। वह भी उस समय जब आवागमन और संचार की सुविधाएं आज की भांति नहीं थीं। यहां फ्रेडरिक पिंकाट का उल्लेख आवश्यक है। उन्हें हिंदी कविता से लगाव था। वह ब्रज भाषा में लिखते भी थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों के साथ ‘हिंदी मैनुअल’ का लेखन किया। इसी कड़ी में जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन का नाम लिया जा सकता है। अंग्रेज अधिकारी के रूप में भारत आए ग्रियर्सन ने हिंदी साहित्य पर तमाम शोध किए, जिसके लिए तत्कालीन अंग्रेजी सत्ता ने उन्हें ‘फादर आफ लैंग्वेज आफ अवर टाइम’ की उपाधि से सम्मानित किया। इसी प्रकार जापान की प्रो. तोशियो तनाका, तोमियो मिजोकामि और रूस के वारान्निकोव, डा. ल्युदमिला एवं पोलैंड के प्रो. ब्रिस्की की हिंदी को विश्व में स्थापित करने में अहम भूमिका रही। आज सिंगापुर, आस्ट्रेलिया और खाड़ी सहित अनेक देशों के विद्वान लगातार हिंदी के कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं।
आज यदि हम हिंदी को विश्व भाषा के रूप में स्थापित करने का सपना देख रहे हैं तो विदेशी हिंदी विद्वानों और प्रवासी भारतीयों के बल पर ही। आज अनेक विश्वविद्यालयों में प्रवासी साहित्य को पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिया गया है। प्रवासी हिंदी साहित्य करुणा और संघर्ष का साहित्य है। भारत के विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जा रहे प्रवासी हिंदी साहित्य के नाम पर सब कुछ अच्छा है, ऐसा भी नहीं है। प्रवासी साहित्य के पाठ्यक्रमों में पढ़ाई जा रही कई कहानियों के कथानक बच्चों को पढ़ाए जाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। अभी तक उनका कोई मानदंड स्थापित नहीं है, न ही इस प्रकार की कोई व्यवस्था है, जो इसकी निष्पक्ष समीक्षा करे कि यह साहित्य बच्चों को पढ़ाए जाने योग्य है या नहीं?
सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए, ताकि हमारी वर्तमान पीढ़ी अपने पूर्वज प्रवासी भारतीयों के संघर्ष और उनके कुली से एक कुलीन होने की संघर्षगाथा से प्रेरणा ले सके। हमें अपनी भाषाओं को समृद्ध करने के लिए अपने घरों में अपनी मातृभाषा और राष्ट्र की भाषा का प्रयोग अपने बच्चों के साथ अवश्य करना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियां अपनी भाषा भूल न सकें। हिंदी विश्व में नया आकार ले रही है। आने वाले समय में हिंदी तकनीक के साथ कदमताल करती हुई दिखेगी। यह व्यापार के साथ-साथ संस्कार की भाषा होने के कारण समृद्ध होगी।
(लेखक साहित्यकार हैं)