क्षमा शर्मा। मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का मामला फिर चर्चा में है। हाल में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया कि हर मत-मजहब की महिलाओं को भरण-पोषण यानी गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है। उपासना पद्धति इसमें कोई रुकावट नहीं बनती। जैसा कि होता आया है, इसका स्वागत के साथ विरोध भी होने लगा। विरोध करने वालों की ओर से कहा जाने लगा कि एक ही पंथ को निशाना बनाया जा रहा है, जबकि अदालत ने पंथों से परे सभी महिलाओं की बात की है और यह भी कहा है कि गुजारा भत्ता दान नहीं, हर तलाकशुदा महिला का हक है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि पतियों के लिए जरूरी है कि वे पत्नियों की आर्थिक स्थिति मजबूत करें। पति-पत्नी के नाम से संयुक्त खाते खुलवाए जाएं और एटीएम के प्रयोग का अधिकार भी महिलाओं को हो, लेकिन विरोध करने वालों को यह कहां समझ में आने वाला है। वे तो अच्छे फैसले को भी मजहब पर खतरे के रूप में प्रचारित करने लगते हैं। कई बार तो उन्हें लोगों को बरगलाने में कामयाबी भी मिल जाती है। तीन तलाक के मामले में भी इसी तरह का विरोध देखा गया था।

अफसोस है कि महिला हितों के लिए काम करने वाले संगठनों और रात-दिन अल्पसंख्यकों और महिलाओं के समर्थन में गुहार लगाने वाले लेखक-लेखिकाओं की कोई मुखर आवाज सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के पक्ष में नहीं सुनाई दी। हां, मुस्लिम महिलाओं के लिए काम करने वाली जकिया सोमन और अंबर जैदी, नाइश हसन आदि ने जरूर इस फैसले का समर्थन किया। कई मुस्लिम महिलाओं ने भी इसे अच्छा फैसला बताया, लेकिन कुछ ने इसे ‘दीन में दखल’ करार दिया। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड शरिया का हवाला देते हुए इसका विरोध कर रहा है। कुछ और भी संगठन विरोध के स्वर उभार रहे हैं। क्या यह आश्चर्य नहीं कि कुछ लोग महिलाओं का श्रम तो चाहते हैं, मगर उन्हें कोई अधिकार नहीं देना चाहते? वे मजहब के कोड़े से अक्सर महिलाओं को पीटते हैं और उसे सही भी बताते हैं।

अधिकांश मजहब बात तो मानवता की करते हैं, पर महिलाओं के मामले में उनकी मानवता पता नहीं कहां गुम हो जाती है? सुप्रीम कोर्ट के फैसले से शाहबानो, उसके साथ हुए अन्याय और वोट बैंक की राजनीति के चलते कट्टरपंथियों के समक्ष समर्पण का स्मरण हो आया। शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय ने यही फैसला दिया था कि उसे गुजारा भत्ता मिलना चाहिए, लेकिन कुछ मुसलमानों की नाराजगी देखते हुए तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने उसे पलट दिया था।

उस समय अधिकांश महिला संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन किया था। केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने भी इस फैसले का समर्थन किया था। उन्होंने इसकी परवाह नहीं की कि कट्टरपंथी उनसे नाराज हो सकते हैं। यह अफसोस की बात है कि लगभग 39 साल बाद कट्टर लोगों के विचार वही हैं, जो पहले थे।

शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला 1986 में पलट दिया गया था। इसके एक साल बाद 1987 में राजस्थान के दिवराला में रूपकंवर सती हो गई थी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी 23 दिन बाद इस मसले पर कुछ बोले थे। जब भी महिलाओं के हितों की बात आती है, कट्टरपंथी एक हो जाते हैं। कई राजनीतिक दलों को लगने लगता है कि कहीं उनके वोटों का नुकसान न हो जाए, इसलिए वे मौन धारण कर लेते हैं। नेता हमेशा कट्टरपंथियों को ही पूरी कौम का प्रतिनिधि मानते हैं। एक बार अभिनेत्री शबाना आजमी ने कहा था कि सरकार उदारवादी मुसलमानों के मुकाबले कट्टरपंथियों की बात सुनती है। यह कट्टरपंथियों का ही असर था कि कई वर्षों बाद शाहबानो से जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बारे में पूछा गया तो उसने कहा कि कोर्ट ने उसके समर्थन में फैसला देकर गलत किया। बाद में उसने यह भी कहा कि अगर वह ऐसा न कहती तो देश में खून की नदियां बह जातीं। यह कितने दुख की बात है कि उच्चतम न्यायालय महिलाओं के हित में कोई फैसला दे और उस कारण से खून की नदियां बहने का डर उसे ही सताने लगे, जिसके पक्ष में फैसला दिया गया हो।

जब सच्चर कमेटी का उद्धरण देते हुए यह कहा जाता है कि मुसलमानों की स्थिति दलितों से भी ज्यादा खराब है तो क्या उसमें मुस्लिम महिलाएं शामिल नहीं हैं, लेकिन कट्टरपंथी कई बार अपने समर्थन में कुछ महिलाओं को भी खड़ा कर लेते हैं। तीन तलाक और हिजाब के मामले में उन्होंने ऐसा ही किया था। ऐसी महिलाओं का तर्क होता है कि उन्हें मजहब की बात माननी है, न कि न्यायालय की। राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा दशकों पहले ‘वायस आफ द वायसलेस’ नामक रिपोर्ट तैयार की गई थी। इसे सैयदा हमीद ने तैयार किया था। इसमें मुसलमान महिलाओं की स्थिति का इतना दर्दनाक चित्रण था कि रोंगटे खड़े हो जाते थे। सैयदा हमीद ने देश भर की तमाम मुसलमान महिलाओं से बात की थी। ये अभागी महिलाएं बीमार, बदहाल और गरीबी से परेशान थीं। इनमें से बहुत सी कोई साधन न होते हुए भी कई-कई बच्चों को पालने के लिए मजबूर थीं, क्योंकि उनके पति उन्हें छोड़कर चले गए थे। कट्टरपंथी संगठनों के नेता कह रहे हैं वे उच्चतम न्यायालय के फैसले को चुनौती देंगे। आज नहीं तो कल, एक दिन ऐसा जरूर आएगा, जब महिलाएं ही ऐसे लोगों के खिलाफ खड़ी हो जाएंगी। मजहबी मान्यताओं ने महिलाओं का जैसा शोषण और नुकसान किया है, वह किसी से छिपा नहीं। कट्टरपंथी अक्सर संविधान की दुहाई तो देते हैं, लेकिन आखिर यह किस तरह से संविधान को मानना और उसकी रक्षा करना है कि यदि अदालत महिलाओं के पक्ष में कोई फैसला दे तो उसके विरोध में खड़े हो जाया जाए?

(लेखिका साहित्यकार हैं)