डा. एके वर्मा। महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनावों के साथ देश की निगाह उत्तर प्रदेश में होने वाले नौ विधानसभा सीटों के उपचुनाव पर भी है। पिछले लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित बढ़त से उत्साहित विपक्ष जाति जनगणना पर बल देने के साथ संविधान और आरक्षण ‘बचाने’ पर भी जोर देने में लगा हुआ है। समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव उपचुनावों में पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) सोशल इंजीनियरिंग के जरिए अपनी सफलता दोहराना चाहते हैं। सपा का जनाधार 2019 लोकसभा में 17.96 से बढ़कर 2022 विधानसभा चुनावों में 32.06 और 2024 लोकसभा में 33.59 प्रतिशत हो गया। 2019 में पांच सीटों के मुकाबले सपा ने 2024 में 37 लोकसभा सीटें जीतीं। क्या इसका श्रेय पीडीए को दिया जा सकता है? क्या यह उपचुनावों में और आगे भी सफलता दिलाएगा?

2017 में सपा अध्यक्ष बनने के बाद अखिलेश ने गठबंधन राजनीति में नए-नए प्रयोग किए हैं। पीडीए उनकी नवीनतम सोशल इंजीनियरिंग है। इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने बीती सदी के सातवें दशक में अजगर (अहीर, जाट, गुर्जर, राजपूत), फिर मजगर (मुस्लिम, अहीर/यादव, जाट, गुर्जर, राजपूत) का प्रयोग किया। मुलायम सिंह ने एम-वाई (मुस्लिम-यादव) की राजनीति की, जबकि अखिलेश ने 2022 में गुर्जर, अहीर, जाट, ब्राह्मण समीकरण का प्रयोग किया। उनका पीडीए अभी तक का सफलतम प्रयोग रहा। अखिलेश ने 2017 में राहुल गांधी के साथ गठबंधन कर ‘यूपी के दो लड़के’ का असफल प्रयोग किया।

2019 लोकसभा चुनावों में उन्होंने धुर विरोधी बसपा सुप्रीमो मायावती से हाथ मिलाया, पर उनकी सीटें घटकर पांच रह गईं। 2022 विधानसभा चुनावों में उन्होंने छोटे-छोटे दलों जैसे रालोद, महान दल, अपना दल (कमेरावादी), सुहेलदेव पार्टी आदि के साथ असफल गठबंधन किया। 2024 लोकसभा चुनाव में उन्होंने पुनः राहुल के साथ हाथ मिलाया, जो सफल रहा। उन्हें 33.59 प्रतिशत वोट और 37 लोकसभा सीटें मिलीं, पर इसका असली श्रेय उस झूठे विमर्श को जाता है, जिसे अखिलेश-राहुल ने दलितों और ओबीसी के सामने रखा कि भाजपा का अबकी बार चार सौ पार का नारा बाबासाहेब के संविधान को ध्वस्त करने और आरक्षण खत्म करने के उद्देश्य से है। इसका असर पड़ा। इसलिए और भी, क्योंकि भाजपा ने इस विमर्श को हल्के में लिया। अखिलेश का पीडीए प्रयोग संविधान और आरक्षण विमर्श के अभाव में संभवतः सफल नहीं होता, क्योंकि सामाजिक संरचना में तर-ऊपर होने से दलितों और पिछड़ों के सामाजिक संबंध तनावपूर्ण हैं। दलित ज्यादातर भूमिहीन मजदूर हैं, जो ओबीसी भू-स्वामियों के खेतों पर श्रम करते हैं और प्रायः आर्थिक शोषण सहते हैं। यह सामाजिक आर्थिक शोषण दलितों और ओबीसी को एक राजनीतिक मंच पर आने से रोकता है। इसीलिए जब अखिलेश ने 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती के साथ गठबंधन किया, तब भी दलितों ने सपा को वोट नहीं किया था और सपा को इसका नुकसान उठाना पड़ा था।

अखिलेश अपनी सोशल इंजीनियरिंग से विभिन्न सामाजिक घटकों को जोड़कर अस्मिता की राजनीति कर रहे हैं, जबकि मोदी-योगी की भाजपा ने आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए विकास, कल्याण और शासन की त्रिवेणी से हर वर्ग तक पहुंचने की समावेशी राजनीति का एक नया मार्ग अपनाया है। लोकसभा चुनाव परिणाम ने दिखाया कि योगी-मोदी सरकार की बेहतर कानून-व्यवस्था, विकास और जन-कल्याणकारी शासन के दावे अखिलेश-राहुल के झूठे विमर्श के आगे टिक न सके। उपचुनावों में योगी सरकार इसकी पुनरावृत्ति रोकने का प्रयास कर रही है। अखिलेश के लिए उपचुनावों में पीडीए प्रयोग दोहराना आसान नहीं। अल्पसंख्यक यानी मुस्लिम सपा के साथ रहेंगे, लेकिन अखिलेश के लिए दलितों को रोकना मुश्किल होगा, क्योंकि एक तो सामाजिक आर्थिक कारणों से दलित-ओबीसी साथ-साथ नहीं रह सकते, दूसरे उपचुनावों में मायावती की वापसी हुई है और कांग्रेस ने चुनाव न लड़ने का फैसला किया है।

लोकसभा चुनाव में मायावती के उदासीन होने से दलितों को कहीं भी जाने का विकल्प मिल गया था। उन्होंने संविधान और आरक्षण मुद्दे पर सपा को चुना। नगीना सांसद चंद्रशेखर की पार्टी आजाद समाज पार्टी भी चुनाव मैदान में है। आज दलितों के पास कई विकल्प हैं। उन्हें अखिलेश-राहुल के झूठे विमर्श का भी आभास है। अगर दलित सपा से दूर जाते हैं तो उसका वोट शेयर 28 प्रतिशत पर गिर सकता है, जबकि पिछले कई चुनावों से भाजपा 40 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर पर मजबूती से टिकी हुई है। यह पीडीए की सफलता पर ब्रेक लगा सकता है। त्रिकोणीय मुकाबले में 40 प्रतिशत एक सशक्त जनाधार है। मायावती ने 2007 में मात्र 30 प्रतिशत और अखिलेश ने 2012 में 29 प्रतिशत वोटों पर सरकार बनाई थी।

सपा की ओबीसी पर निर्भरता तीन कारणों से भ्रामक है। एक, मोदी अब ओबीसी नेता के रूप में स्थापित हो गए हैं। इसकी अनदेखी नहीं हो सकती कि भाजपा ने मोहन यादव (मध्य प्रदेश), नायब सिंह सैनी (हरियाणा), भूपेंद्र पटेल (गुजरात) आदि ओबीसी मुख्यमंत्रियों को प्राथमिकता दी है। दूसरा, सपा ओबीसी केंद्रित होने का दावा करती है, मगर उसकी छवि मुख्यतः यादवों को प्रमुखता देने वाली पार्टी की है। भाजपा ने समावेशी दृष्टिकोण दिखाते हुए नेतृत्व और सत्ता संरचना में यादवों सहित सभी पिछड़ों को प्रतिनिधित्व दिया है। इसका उदाहरण टिकट वितरण, पार्टी-पदों और मंत्रियों की नियुक्ति में दिखता है। तीसरा, सपा जाति जनगणना की मांग को अपना ट्रंप कार्ड समझती है, पर यदि जाति जनगणना हुई तो उसके लिए दांव उलटा पड़ सकता है, क्योंकि आरक्षण लाभ से वंचित ओबीसी उपजातियां प्रकट हो जाएंगी। रोहिणी आयोग के अनुसार लगभग 37 प्रतिशत ओबीसी जातियों का सरकारी नौकरियों में शून्य प्रतिनिधित्व है।

जाति जनगणना से सामाजिक न्याय का जो लोकतंत्रीकरण होगा, उससे सपा और इस जैसे दलों को नुकसान हो सकता है। अखिलेश पीडीए प्रयोग को उपचुनावों में और आगे भी दोहराने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। उपचुनावों में विजेता कौन होगा, यह तो समय बताएगा, लेकिन अखिलेश द्वारा योगी सरकार को कड़ी चुनौती देने से सरकार जनता के दरवाजे पर आ गई है, जो प्रदेश की राजनीतिक संस्कृति में एक बड़ा सकारात्मक बदलाव ला सकती है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक हैं)