जगमोहन सिंह राजपूत। यह विचार खूब प्रचलित है कि भविष्य के साम्राज्य ज्ञान के साम्राज्य होंगे। विकास और प्रगति के रास्ते निर्बाध चलते रहने के लिए ऐसे युवाओं की आवश्यकता होगी, जो ज्ञान की समझ से युक्त हों और वे नए ज्ञान के प्रति न केवल सतर्क रहें, बल्कि उसमें भागीदारी कर नया ज्ञान सृजित भी करें। यही नहीं, वे इस सबका जनकल्याण के लिए सदुपयोग करने के लिए तत्पर रहें।

चुस्त-दुरुस्त स्कूल शिक्षा व्यवस्था तथा शोध एवं नवाचार में अग्रणी विश्वविद्यालय इसकी पहली आवश्यकता होंगे। भारत के पास अत्यंत विस्तृत ढांचागत स्कूल स्तर से लेकर उच्च शिक्षा और शोध के संस्थान हैं। कमी यह है कि इनकी साख, स्वीकार्यता तथा गुणवत्ता में भारी अंतर है। आर्थिक संसाधनों की कमी इसमें सबसे पहले आती है।

स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक अध्यापकों की भारी कमी भी चिंताजनक है। स्कूली अध्यापकों की नियुक्ति में रिक्त पदों की संख्या कुछ राज्यों में तो लाखों तक पहुंचती है। नियुक्ति की प्रक्रिया जटिल है और अनेक अवसरों पर अस्वीकार्य हस्तक्षेप उसकी पारदर्शिता पर संशय पैदा कर देते हैं।

पिछले कुछ वर्षों से कुलपति और कुलाधिपति के स्तर पर नियुक्तियों को लेकर विवाद उठते रहे हैं। किसी विश्वविद्यालय में यदि एक वर्ष भी कुलपति की नियुक्ति को लेकर अनिश्चितता बनी रहती है तो देश के भविष्य का निर्माण करने वाले युवाओं की कितनी हानि होती है, इस ओर ध्यान न देना अत्यंत चिंताजनक है।

देश-विदेश के किसी भी नामी गिरामी स्कूल, महाविद्यालय या विश्वविद्यालय का नाम लीजिए तो लोगों के मन-मस्तिष्क में एक या दो मनीषियों के नाम अवश्य ही उभर कर आएंगे, जिन्होंने उनकी साख स्थापित करने में योगदान किया। भारत की ज्ञान प्राप्ति की परंपरा प्राचीन समय से ही विश्व प्रसिद्ध हुई और यहां के विश्वविद्यालय सुदूर देशों के युवाओं और विद्वानों के आकर्षण का केंद्र बने। वे यहां आए, अपनी ज्ञान की खोज को आगे बढ़ाने में सफल हुए और संतुष्ट होकर वापस गए। वे भारत के प्रशंसक बनकर गए। अब स्थिति बदल गई है।

आज भारत इससे चिंतित नहीं कि लाखों युवा पढ़ने के लिए विदेश जा रहे हैं। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में सभी को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा चाहिए। यह सही है कि विदेश पढ़ने जाने वालों में एक बड़ी संख्या ऐसे युवाओं की होती है, जिनके परिवारों के पास आवश्यक संसाधन हैं और जिनके पालक जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह मानते हैं कि उनके बच्चों को ‘ग्रीन कार्ड’ मिल जाए। मेरे जैसे व्यक्ति को उनकी चिंता है, जो मेडिकल या इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के लिए यूक्रेन, मारीशस जैसे देशों में जाते हैं और लौटकर आने पर अनेक प्रकार की बाधाओं को झेलते हैं।

स्वतंत्रता के समय कुलपति शब्द अत्यंत सम्मानपूर्ण ढंग से उच्चारित होता था और कुछ ऐसे नाम भी इस पद पर सुशोभित हुए, जो बहुत आदरणीय माने जाते थे। मदन मोहन मालवीय, राधाकृष्णन, सर आशुतोष मुखर्जी, गंगानाथ झा, अमरनाथ झा जैसे मनीषी कुलपति पदों को सुशोभित कर चुके हैं। आज देश में एक हजार से अधिक विश्वविद्यालय हैं और इनमें कुलपति के पद पर नियुक्ति की इच्छा रखने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है।

समय के साथ जो बदलाव हुआ है, उसका प्रभाव इन नियुक्तियों पर भी पड़ा है। आज ऐसे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, जो तीन से चार बार विभिन्न विश्वविद्यालयों मे कुलपति पद सुशोभित कर चुके हैं और अगली बार भी कुलपति बनने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। देश को कुलपति नियुक्ति प्रक्रिया पर गहराई से पुनर्विचार करना चाहिए। प्रचलित प्रथा लगभग दो दशक पहले प्रारंभ हुई थी। आवेदन मंगवाकर और साक्षात्कार के लिए समिति के समक्ष बैठकर चयन करना इस पद की गरिमा के अनुकूल नहीं है।

देश का राजनीतिक नेतृत्व जब लगातार विद्वत वर्ग से प्रेरणा लेता रहता है, तभी लोकतंत्र की गति सही दिशा में बनी रहती है। आजादी के समय भारत के पास विज्ञान के क्षेत्र में जो विशिष्ट वैज्ञानिक नेतृत्व उपस्थित था, उसमें सीवी रमण, मेघनाथ साहा, होमी भाभा, विक्रम साराभाई, एसएस भटनागर, डीएस कोठारी जैसे मनीषी थे। इनके पास भविष्य दृष्टि थी।

वे वैज्ञानिक क्षेत्र में उत्कृष्टतम ज्ञान और तकनीक से परिचित थे तथा उसके भविष्य के स्वरूप की संकल्पना करने में सक्षम थे। तब राजनीतिक नेतृत्व नेहरूजी के हाथों में था, जिन्होंने उनके सुझावों को स्वीकार किया और उन्हें उपयुक्त संसाधन उपलब्ध कराए। इसी कारण भारत परमाणु शक्ति, अंतरिक्ष विज्ञान और कृषि जैसे क्षेत्रों में प्रगति कर सका।

भारत की इन क्षेत्रों में क्षमताएं लगातार बढ़ी हैं। ऐसी ही क्षमता भारत के पास शिक्षा के क्षेत्र में भी है, लेकिन अनेक कारणों से इस क्षेत्र में गुणवत्ता बढ़ाने के लिए इच्छाशक्ति निर्मित नहीं हो पाई है। 2020 में घोषित नई शिक्षा नीति में ऐसे कोई तत्व नहीं, जिन्हें किसी भी राज्य को स्वीकार करने में कोई कठिनाई हो सके, लेकिन कुछ राज्यों को अपनी वैचारिक और दलगत बाध्यता के कारण उसका विरोध करना ही है।

भले ही ऐसा करना उनके अपने राज्य के युवाओं के हित में बिल्कुल ही न हो। देश को इस स्थिति से बाहर आना चाहिए। 1980 के बाद देश ने यह समझा था कि विश्वविद्यालय के अध्यापकों के लिए समयबद्ध प्रोन्नति का प्रविधान होना चाहिए। इससे न केवल अध्यापकों की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन आया, बल्कि उनके अध्ययन, अध्यापन और शोध पर प्रभाव पड़ा।

कुछ वर्ष बाद यह आवश्यक था कि ऐसे प्रविधान के प्रभाव का गहन अध्ययन किया जाता, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। समयबद्ध प्रोन्नति के प्रविधानों का शोध और उसकी गुणवत्ता पर जो प्रभाव पड़ा, उसका भी समय-समय पर गहन अध्ययन आवश्यक है। शिक्षा की गुणवत्ता के संदर्भ में कोई कोताही या देरी स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए।

(लेखक शिक्षाविद् हैं)