हरेंद्र प्रताप। झारखंड विधानसभा चुनावों के कारण चर्चा में है, लेकिन यह आबादी के असंतुलन के लिए भी चर्चा का विषय बनना चाहिए। बिहार, झारखंड और ओडिशा 1912 तक बंगाल प्रांत में ही शामिल थे। पहले बंगाल से बिहार, फिर बिहार से ओडिशा अलग होकर प्रांत बना। चूंकि झारखंड में जनजाति की संख्या प्रभावी थी, अतः एक अलग प्रांत बनाने की मांग हो रही थी। इस मांग को लेकर लंबा आंदोलन चला और अंतत: वर्ष 2000 में वाजपेयी सरकार ने झारखंड को एक अलग राज्य बनाकर वर्षों पुरानी मांग को पूरा किया। झारखंड समृद्ध खनिज भंडार वाला एक राज्य है। खनिज उत्पादन के मामले में यह तीसरे स्थान पर है। जमशेदपुर, बोकारो और रांची देश में बड़े औद्योगिक केंद्र के रुप में जाने जाते हैं। स्वाभाविक है कि झारखंड जब बिहार से अलग हुआ तो लालू प्रसाद यादव इसके पक्ष में नहीं थे।

आदिवासी अस्मिता के नाम पर अस्तित्व में आए इस राज्य के समक्ष अब एक नए संकट ने दस्तक दी है और वह है बढ़ती घुसपैठ। यदि यह सिलसिला कायम रहा तो मूल निवासी आदिवासी समाज हाशिए पर जाता रहेगा। दिसंबर 2022 में रांची उच्च न्यायालय में दायर एक जनहित याचिका में कहा गया था कि संताल परगना में बांग्लादेशी घुसपैठिए आ रहे हैं। वोट बैंक की राजनीति करने वालों ने इसे नकार दिया, जबकि मनमोहन सरकार ने जुलाई, 2004 में संसद में स्वीकारा कि 31 दिसंबर 2001 तक देश में 1.20 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए आ गए हैं, जिसमें से 50 लाख असम में हैं। सवाल यह है कि अगर 50 लाख असम में हैं तो फिर 70 लाख कहां थे? इस समय झारखंड में जो सरकार है, उसमें कांग्रेस भी शामिल है। अफसोस की बात है कि हेमंत सरकार ने घुसपैठ को न केवल नकारा, बल्कि न्यायालय में संताल परगना के उपायुक्तों को यह लिखकर दे दिया कि यहां घुसपैठिए नहीं हैं। संतान परगना में साहिबगंज, पाकुड़, गोड्डा, देवघर, दुमका और जामताड़ा जैसे इलाके आते हैं।

आजादी के बाद 1951 से 2011 के बीच देश में मुस्लिम 4.31 प्रतिशत बढ़े, लेकिन संताल परगना में ये 13.29 प्रतिशत बढ़े, जो देश के किसी भी जिले से ज्यादा हैं। यहां हिंदू आबादी भी लगातार घटने पर है। झारखंड में 1961 की कुल जनसंख्या में हिंदू 79.59 प्रतिशत थे, जो 2011 में घटकर 67.83 प्रतिशत रह गए। यह इसलिए हुआ, क्योंकि जनजाति समाज जनगणना के समय हिंदुत्व को नकारने लगा। झारखंड में 1961 में जनजाति हिंदू आबादी 70.32 प्रतिशत थी, जो 2011 में घटकर 37.54 रह गई है। 2011 में देश में ‘अन्य’ की संख्या में 53.36 प्रतिशत केवल झारखंड से थे और उसमें भी 94.73 प्रतिशत जनजाति बंधु थे। बांग्लादेशी घुसपैठ के अलावा संताल परगना से जनजाति पलायन भी एक मुद्दा है। 1951 में संताल परगना में 44.66 प्रतिशत संख्या जनजातीय लोगों की थी, जो 2011 में घटकर 28.11 रह गई। यानी उनकी संख्या में 16.55 प्रतिशत की कमी आई। वोट बैंक के लालच में जनजाति पलायन को यह कहकर नकारा जा रहा है कि रोजगार के अभाव में जनजाति तबके पलायन कर रहे हैं।

सवाल उठता है कि वह कौन सी नौकरी है, जिसके लोभ में बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठ करके तो आ रहे हैं, पर उस काम को जनजाति बंधु करना नहीं चाहते? चूंकि संताल परगना का मामला उच्च न्यायालय में आ गया तो उस पर चर्चा हो रही है, लेकिन झारखंड के तमाम जनजातीय इलाकों में यह समस्या बहुत आम हो गई है। पुराना रांची जिला जो अब रांची, खुटी, सिमडेगा, गुमला तथा लोहरदगा जिला हो गया है और सिंहभूम जो अब पूर्वी और पश्चिमी सिंहभूम तथा सरायकेला-खरसावां जिला है, वहां से भी जनजाति पलायन हुआ है। 1961 से 2011 के बीच राष्ट्रीय स्तर पर जनजाति/आदिवासी समाज 1.83 प्रतिशत बढ़ा, पर झारखंड में यह समाज 7.72 प्रतिशत घटा। संताल परगना में यह समाज 44.66 से घटकर 28.11, पुराने रांची जिले में 60.48 प्रतिशत से घटकर 51.07 प्रतिशत यानी 10.53 प्रतिशत घटा है। पुराने सिंहभूम में 47.30 से घटकर 41.96 प्रतिशत हो गया है। ध्यान रहे ये आंकड़े 2011 के हैं। इस रुझान से अनुमान लगाया जाए तो अब रांची जिले में जनजाति समाज बहुसंख्यक से सिकुड़कर अल्पसंख्यक हो गया होगा।

मातृभाषा किसी समाज की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। इसमें उस समाज का इतिहास भी छिपा रहता है। गीत-संगीत, कथा-कहानी के माध्यम से भावी पीढ़ी उससे जुड़ती है। आज झारखंड का जनजाति समाज और उसकी मातृभाषा भी खतरे में है। 1951 की जनगणना के समय संताल परगना में अपनी मातृभाषा संताली लिखवाने वाले 42.99 प्रतिशत थे, जो अब घटकर 25.13 प्रतिशत हो गए हैं। उसी जनगणना में रांची जिले में अपनी मातृभाषा मुंडारी लिखवाने वाले 22.08 प्रतिशत थे, जो अब घटकर 11.77 प्रतिशत रह गए हैं और उरांव लिखवाने वाले 19.60 से घटकर 12.90 प्रतिशत हो गए हैं। अपनी मातृभाषा बांग्ला लिखवाने वाले संताल परगना में 9.10 से बढ़कर 16.10 प्रतिशत तो सिंहभूम में 20.77 से बढ़कर 26.43 प्रतिशत हो गए। यह जांच का विषय है कि मातृभाषा बांग्ला लिखवाने वाले ये कौन लोग हैं? इस बीच मातृभाषा ‘हो’ लिखवाने वालों की संख्या भी घटी है।

भारत पर इस्लामिक और ईसाई दबाव के खिलाफ संघर्ष करने वाले हमारे राष्ट्रनायकों पर बहुत कम शोध एवं लेखन हुआ है। ईसाई आक्रमण के खिलाफ संघर्ष का इतिहास जनजाति समाज से शुरू होता है। संताल परगना के गुमनाम नायक तिलका मांझी, जिन्हें अंग्रेजों ने 1785 में फांसी पर लटकाया, की जन्म और संघर्ष भूमि आज मुस्लिम और ईसाई दबाव से अपनी पहचान के लिए जूझ रही है। आगामी विधानसभा चुनाव में जनजाति पहचान का मुद्दा बनता है या नहीं, यह देखना होगा।

(लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं)