जागरण संपादकीय: बरसात और बाढ़ से बढ़ता नकुसान, बेहतर आधारभूत ढांचे का विकास करने वाली नीति की जरूरत
प्रकृति से छेड़छाड़ और जलवायु परिवर्तन के कारण ही आज हम किसी भी मौसम का आनंद नहीं उठा पा रहे हैं। बारिश हमारे लिए आसमानी आफत की तरह हो चुकी है। पहले यह पहाड़ों तक सीमित थी पर अब पूरे देश में इसका व्यापक प्रभाव दिखता है। अब परिस्थितियां भी बदल चुकी हैं। अल नीनो के बाद ला नीना अपना असर दिखाएगा जो शीतकालीन परिस्थितियों को और गंभीर करेगा।
अनिल प्रकाश जोशी। इन दिनों केरल में वायनाड के बाद त्रिपुरा के अनेक हिस्से भारी बरसात और बाढ़ से त्रस्त हैं। सच तो यह है कि देश के साथ दुनिया के अनेक हिस्सों में अतिवृष्टि जनित घटनाएं हो रही हैं। ये प्रकृति के बदलते स्वरूप की ओर इशारा कर रही हैं। तीव्र वर्षा के पीछे वह प्रचंड गर्मी ही मुख्य कारण है, जिसने इस बार पृथ्वी को भट्ठी बना दिया है।
इस कारण हुए भारी वाष्पोत्सर्जन को किसी न किसी रूप में पानी के रूप में गिरना ही था। इस बार तीव्र वर्षा ने मात्र हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर या फिर उत्तराखंड में ही कहर नहीं बरपाया, बल्कि केरल के वायनाड से लेकर असम, उत्तर प्रदेश, बिहार, त्रिपुरा आदि में अपना असर दिखाया है। स्पष्ट रूप से यह ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की देन है। जब भी अधिक बारिश होगी तो हमारा मौजूदा आधारभूत ढांचा टिक नहीं सकेगा।
ऐसे में यदि अगर भविष्य़ में ढांचागत विकास को लेकर गंभीरता न बरती गई हो तो नुकसान और बढ़ेगा। हम पर्यावरण के अनुरूप आधारभूत ढांचे के विकास की समझ से अभी भी दूर हैं। हमारे ढांचागत विकास में इस पहलू की कमी शुरुआत से ही रही है। अब सबसे बड़ी जरूरत एक बेहतर आधारभूत ढांचे के विकास की नीति की है, जिससे नई परिस्थितियों के अनुसार विकास किया जा सके। पिछले एक दशक में बाढ़ या तेज बारिश से सबसे अधिक नुकसान आधारभूत ढांचे को ही हुआ है।
अब अतिवृष्टि से माल के साथ जान का भी नुकसान हो रहा है। इस बार की बारिश ने पिछले कुछ दशकों में सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव डाला है। देश के आधे से ज्यादा क्षेत्र इसकी सीधी चपेट में आए हैं। वायनाड में तेज बारिश के चलते हुए भूस्खलन में ही मरने वालों की संख्या 300 से ऊपर पहुंच गई। कई गांव बुरी तरह प्रभावित हुए। बिहार और पंजाब ने भी बारिश के गहरे दुष्प्रभाव झेले हैं। उत्तराखंड में लोगों ने जान गंवाई तो हिमाचल प्रदेश में भी।
हिमाचल में तो एक गांव पूरी तरह खत्म हो गया। अब त्रिपुरा में तबाही हो रही है। बारिश और बाढ़ के चलते हजारों हेक्टेयर भूमि पर खेती-बारी संकट में आ गई है। अभी आर्थिक नुकसान का आकलन सामने नहीं आया है, पर वह अधिक ही होगा। कितनी जाने गईं और कितनी संपत्ति का नुकसान हुआ, इसका सटीक आंकड़ा मानसून के अंतिम चरण में ही पता चलेगा।
यदि इस बार मानसून लंबा खिंचा तो नुकसान बढ़ने की आशंका है। इसका दोष अनियंत्रित विकास कार्यों को दिया जा रहा है। इसके अलावा वनों की कटान और प्रकृति से छेड़छाड़ भी इसके बड़े कारणों में माने जा रहे हैं। इस पहलू को हमें बेहतर तरीके से समझना होगा।
हम अपनी सुख-सुविधाओं के लिए पृथ्वी से सीमा से अधिक संसाधन ले रहे हैं। इसके कारण पृथ्वी के तापक्रम में कहीं ज्यादा वृद्धि हुई है। इससे समुद्रों पर ज्यादा प्रभाव पड़ा है। चूंकि समुद्र पृथ्वी का बड़ा हिस्सा हैं, इसलिए इनके तपने से अल नीनो जैसे प्रभाव पैदा हो रहे हैं, जिसके ज्यादा दुष्प्रभाव होते हैं। तूफान और अतिवृष्टि का कारण अल नीनो ही है। प्रचंड गर्मी और उसके बाद बाढ़ का सिलसिला सारी दुनिया की समस्या बन गई है।
पहले इन आपदाओं की मार गांवों पर ही पड़ती थी, पर इस बार इसने शहरी क्षेत्रों को भी लपेट लिया है। हमारे शहरों में बाढ़ का सबसे बड़ा कारण पानी के रास्तों का रुकना रहा है। शहरों में ड्रेनेज सिस्टम बदतर है, क्योंकि कभी कल्पना नहीं की गई थी कि कम समये में इतना अधिक पानी बरसेगा। एक दशक पहले शहरों में वर्षा उतनी नहीं होती थी, जितनी अन्य जगह।
इसका बड़ा कारण यह था कि शहरों में बढ़ते तापक्रम के कारण एक ऐसा दबाव बन जाता था, जिससे वर्षा निम्न स्तर पर होती थी, लेकिन कुछ समय से बदलती जलवायु ने यह बता दिया है कि अब कोई सुरक्षित नहीं है। सीधा संदेश यही है कि एक सीमा से अधिक छेड़छाड़ प्रकृति को स्वीकार नहीं है। विकास के नाम पर प्रकृति के साथ खूब छेड़छाड़ हुई है और ऐसा करते समय उपयुक्त आधारभूत ढांचे के निर्माण पर ध्यान नहीं दिया गया।
हालांकि हम बाढ़ के डर से विकास से मुंह नहीं मोड़ सकते। मानवजाति के उत्थान के लिए यह अपरिहार्य है। यह बात पूरे हिमालय परिक्षेत्र से लेकर दक्षिण भारत तक के लिए मान्य है, लेकिन इस विकास की एक सीमा तय कर प्रकृति से छेड़छाड़ को रोकना होगा। यह काम सभी देशों को एक साथ करना होगा, क्योंकि एक देश के सतर्क हो जाने से संकट टलने वाला नहीं है।
प्रकृति से छेड़छाड़ के कारण हुए जलवायु परिवर्तन के कारण ही आज हम किसी भी मौसम का आनंद नहीं उठा पा रहे हैं। बारिश हमारे लिए आसमानी आफत की तरह हो चुकी है। पहले यह पहाड़ों तक सीमित थी, पर अब पूरे देश में इसका व्यापक प्रभाव दिखता है। अब परिस्थितियां भी बदल चुकी हैं। अल नीनो के बाद ला नीना अपना असर दिखाएगा, जो शीतकालीन परिस्थितियों को और गंभीर करेगा।
गर्मी का तो हमने असर देख ही लिया है। जिस मौसम को हम बसंत के रूप में जानते थे, वह भी अब बसंती नहीं रहा। प्रकृति के बदलते रुख ने हमारी सारी व्यवस्था को चरमरा दिया है। अब इसके बाद भी अगर हमारी समझ में नहीं आता तो फिर हम यह मानकर चलें कि आने वाला समय और अधिक दुष्कर होने वाला है।
इससे पहले जब पृथ्वी से जीवन खत्म हुआ था, तब कारण ज्वालामुखी या भूचाल जैसी घटनाएं थीं, लेकिन इस बार पृथ्वी को संकट में डालने का कारण स्वयं मनुष्य बन रहा है। वह प्रकित की अनदेखी करके अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने का काम कर रहा है।
(लेखक पर्यावरणविद् हैं)