यूरोप की जरूरत बना भारत, आर्थिक सुरक्षा का संकल्प दोहरा कर दिया आगे बढ़ने का संकेत
चीन से पिछड़कर यूरोप अब दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था रह गया है। इसलिए उसे अपनी विकास दर की रफ्तार बढ़ाने की जरूरत है। भारत को भी अपना माल बेचने के लिए यूरोप जैसे विशाल एवं विकसित बाजार की दरकार है क्योंकि कोई देश विदेश में माल बेचकर धन कमाए बिना अपने लोगों का जीवनस्तर ऊपर नहीं उठा पाया है।
शिवकांत शर्मा। कहते हैं कि एक तस्वीर हजार शब्दों के बराबर होती है। बीते दिनों इटली में आयोजित जी-7 शिखर बैठक की सामूहिक तस्वीर पर यही बात लागू होती है। भारत इस समूह का सदस्य नहीं है, फिर भी विश्व की सात बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के इस समूह की शिखर बैठकों में 2019 के बाद से भारत को हर साल आमंत्रित किया जाता है। यह वैश्विक मंच पर उसके बढ़ते कूटनीतिक एवं आर्थिक कद का प्रतीक है।
जी-7 की अध्यक्ष और शिखर बैठक की मेजबान इटली की प्रधानमंत्री जार्जिया मेलोनी ने भारत के अलावा ब्राजील, सऊदी अरब, तुर्की और यूएई जैसे 11 अन्य देशों को भी बुलाया। भारत के प्रधानमंत्री मोदी को जिस तरह नेताओं की पंक्ति के एकदम बीच में जी-7 के प्रतीक चिह्न के सामने स्थान दिया गया, वह शिखर बैठक में शामिल अन्य देशों की तुलना में भारत की मजबूत आर्थिक और राजनीतिक स्थिति को भी रेखांकित करता है।
अमेरिका के अलावा जी-7 के सभी देश आर्थिक विकास की धीमी रफ्तार से जूझ रहे हैं। 2008 में आई विश्वव्यापी मंदी के समय तक अमेरिका और यूरोप की आर्थिकी लगभग बराबर थीं, मगर उसके बाद से अमेरिकी अर्थव्यवस्था यूरोप से लगभग दोगुनी हो चुकी है। भारतीय अर्थव्यवस्था तब से करीब 3.5 गुना बढ़ी है। जबकि यूरोप की अर्थव्यवस्था 30 देशों के विभिन्न कानूनों और लालफीताशाही में उलझी रही। इसके चलते यूरोप प्रति व्यक्ति आय में भी अमेरिका से 25 प्रतिशत पिछड़ गया।
बुजुर्ग होती आबादी की देखभाल में बढ़ते खर्च से सरकारों के बजट बिगड़ रहे हैं। कृषि सब्सिडी, श्रम सुधार और सेवा क्षेत्र में प्रवेश जैसी शर्तों पर अड़ियल रवैये के कारण भारत जैसे तेज आर्थिक रफ्तार वाले देशों के साथ भी मुक्त व्यापार समझौते नहीं हो पा रहे। जबकि भारत ने नार्वे, स्विट्जरलैंड, आइसलैंड और लिश्टेंस्टाइन के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया है। ये देश यूरोपीय संघ का हिस्सा नहीं हैं।
यूरोप में लोग करों के बढ़ते बोझ और महंगाई से भी परेशान हैं। शरणार्थी और अप्रवासी उनके रोष का निशाना बन रहे हैं। सीरियाई गृहयुद्ध के बाद 2015 में यूरोप को दूसरे विश्व युद्ध के बाद के सबसे गंभीर शरणार्थी संकट का सामना करना पड़ा। सीरिया, कोसोवो, अफगानिस्तान, इराक, पाकिस्तान और लीबिया जैसे देशों के 13 लाख से अधिक शरणार्थी यूरोपीय देशों की सीमाओं पर जमा हो गए। अधिकांश देशों ने उन्हें शरण देने से मना कर दिया। अंत में अधिकांश लोगों को जर्मनी ने शरण दी, जिसके फलस्वरूप उसकी मुस्लिम आबादी 46 लाख का आंकड़ा पार कर कुल जनसंख्या का लगभग छह प्रतिशत हो चुकी है।
फ्रांस में भी मुस्लिम आबादी बढ़कर 10 प्रतिशत हो गई है और वह यूरोप का सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश बन गया है। कड़े सीमा नियंत्रण के बावजूद ब्रिटेन में मुस्लिम आबादी 6.5 प्रतिशत को पार कर गई। इसके चलते यूरोप के कई शहरों में वहां के मूल निवासी अल्पसंख्या में आ गए। इस कारण भी स्थानीय लोगों में रोष पनपने लगा। यही इन दिनों यूरोप में चल रही अप्रवास विरोधी लहर का प्रमुख कारण बना, जिसके चलते ब्रिटेन को यूरोपीय संघ की सदस्यता छोड़नी पड़ी और पिछले सप्ताह यूरोपीय संसद के चुनावों में फ्रांस और जर्मनी जैसे प्रमुख देशों में सत्ताधारी उदारवादी पार्टियों को अप्रवास विरोधी दक्षिणपंथी पार्टियों के हाथों पराजय का मुंह देखना पड़ा।
फ्रांस में राष्ट्रपति मैक्रों की रेनेसां पार्टी को यूरोपीय संसदीय चुनावों में अप्रवासन विरोधी दक्षिणपंथी नेशनल रैली पार्टी से आधे वोट भी नहीं मिले। इसलिए उन्होंने अविश्वास प्रस्तावों से बनने वाले दबाव की प्रतीक्षा न करते हुए संसद को भंग कर दिया और मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर डाली, जो 30 जून को होगा। इस चुनाव में मैक्रों की गठबंधन सरकार की हार लगभग तय मानी जा रही है। यदि ऐसा होता है तो वह नाम मात्र के राष्ट्रपति रह जाएंगे, क्योंकि दक्षिणपंथी नेशनल रैली उनकी घरेलू एवं विदेश नीतियों का विरोध करती है।
इसी तरह यूरोपीय चुनावों में जर्मनी के चांसलर ओलाफ शुल्ज के डेमोक्रेटिक गठबंधन की इतनी बुरी हार हुई कि वह तीसरे स्थान पर चला गया। शुल्ज ने संसद भंग करके चुनाव की घोषणा तो नहीं की, लेकिन उनके लिए भी शेष डेढ़ वर्ष के कार्यकाल में अपनी सरकार चला पाना कठिन लग रहा है। ब्रिटेन में चार जुलाई को होने जा रहे आम चुनाव में प्रधानमंत्री सुनक की कंजरवेटिव पार्टी की हालत इतनी पतली है कि एक सर्वेक्षण में तो उसके तीसरे स्थान पर खिसकने के आसार बताए गए हैं।
अमेरिका में अर्थव्यवस्था की स्थिति बढ़िया होने के बावजूद राष्ट्रपति बाइडन का चुनाव जीत पाना कठिन है, क्योंकि अदालतों में दोषी पाए जाने के बाद भी ट्रंप की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। कनाडा में प्रधानमंत्री ट्रूडो के गिरते जनसमर्थन को देखते हुए उनकी सरकार का अगले साल तक चल पाना कठिन है। यही हाल जापान में प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा की गठबंधन सरकार का है।
कुल मिलाकर जी-7 के सातों नेताओं में से केवल मेजबान इतालवी प्रधानमंत्री मेलोनी का राजनीतिक आधार ही मजबूत है, क्योंकि यूरोपीय चुनावों में उनके गठबंधन की शानदार जीत हुई है। आमंत्रित देशों में भारत के प्रधानमंत्री मोदी अपनी पार्टी का बहुमत खो देने के कारण राजनीतिक रूप से कुछ कमजोर अवश्य पड़े हैं, परंतु उनके गठबंधन के पास पर्याप्त बहुमत है और अर्थव्यवस्था की रफ्तार दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज है। मेलोनी के साथ उनके संबंध भी मधुर हैं। यह स्थिति भारत और यूरोप दोनों के लिए अनुकूल दिखाई देती है।
चीन से पिछड़कर यूरोप अब दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था रह गया है। इसलिए उसे अपनी विकास दर की रफ्तार बढ़ाने की जरूरत है। भारत को भी अपना माल बेचने के लिए यूरोप जैसे विशाल एवं विकसित बाजार की दरकार है, क्योंकि कोई देश विदेश में माल बेचकर धन कमाए बिना अपने लोगों का जीवनस्तर ऊपर नहीं उठा पाया है। इसलिए भारत को यूरोप के साथ मुक्त व्यापार समझौते की कोशिश करनी चाहिए, जिसकी यूरोप और भारत दोनों को जरूरत है। जी-7 देशों ने भारत-पश्चिम एशिया-यूरोप आर्थिक गलियारे के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने और हिंद प्रशांत क्षेत्र की आर्थिक सुरक्षा का संकल्प दोहरा कर इस दिशा में आगे बढ़ने का संकेत दिया।
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)