शिवकांत शर्मा। अपनी बहुचर्चित यूक्रेन यात्रा के दौरान राष्ट्रपति जेलेंस्की के साथ वार्ता में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, ‘हम तटस्थ नहीं हैं। हमने शुरू से ही एक पक्ष चुना है और वह पक्ष शांति का है।’ भारत के किसी भी प्रधानमंत्री की यह पहली यूक्रेन यात्रा थी। वह डेढ़ महीने पहले रूस की यात्रा पर भी गए थे।

तब उन्होंने राष्ट्रपति पुतिन से कहा था कि युद्ध का समाधान जंग के मैदान में नहीं मिलता, परंतु जिस दिन वह राष्ट्रपति पुतिन से गले मिल रहे थे, उसी दिन रूसी सेना ने यूक्रेन में बच्चों के एक अस्पताल पर हमला कर दिया था, जिसमें बच्चों समेत कम से कम 38 लोग मारे गए थे।

हालांकि प्रधानमंत्री ने उस घटना को असहनीय बताते हुए उसकी निंदा की, फिर भी वह अमेरिका और उसके पश्चिमी खेमे के नेताओं को अपनी रूस यात्रा और हमले के दिन पुतिन से गले मिलने की निंदा करने से रोक नहीं पाए। जेलेंस्की ने भी उसे घोर निराशाजनक और शांति प्रयासों के लिए गहरा आघात बताया था।

प्रधानमंत्री मोदी की रूस यात्रा के समय ही अमेरिका वाशिंगटन में नाटो गठबंधन की शिखर बैठक की मेजबानी कर रहा था, जिसका मुख्य विषय स्वाभाविक रूप से यूक्रेन का संकट था। जब वह यूक्रेन की यात्रा पर गए, उस समय यूक्रेन की सेनाएं रूस के कुर्स्क प्रदेश की जमीन पर कब्जा करते हुए आगे बढ़ रही थीं।

इसलिए चीन और भारत के कुछ आलोचकों का मानना है कि मोदी को ये दोनों यात्राएं रूस और अमेरिका, दोनों को खुश रखने के दबाव में करनी पड़ीं। वह पिछले दो साल से रूस और भारत के बीच होने वाली द्विपक्षीय वार्षिक शिखर बैठकों को टालते आ रहे थे और 2022 की शंघाई सहयोग संगठन शिखर बैठक में भी नहीं गए।

यूक्रेन युद्ध और पश्चिमी आर्थिक प्रतिबंधों के मोर्चे पर स्पष्ट समर्थन देने और बढ़ती आर्थिक व्यापारिक निर्भरता के कारण पुतिन और शी चिनफिंग के रिश्ते और गहरे होते जा रहे। ऐसे में पुतिन को भारत की दोस्ती के बारे में आश्वस्त करना जरूरी हो चला था। दूसरी तरफ, अमेरिका और उसके खेमे के देश रूस के हमले की सीधी निंदा से बचने और रूस से तेल खरीदकर पश्चिमी आर्थिक प्रतिबंधों को निष्प्रभावी करने से नाखुश थे।

उन्हें आश्वस्त करना भी जरूरी था, परंतु जेलेंस्की के हालिया बयानों से स्पष्ट होता है कि यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत की नीतियों पर सार्वजनिक रूप से अप्रसन्नता जाहिर करने के बावजूद वह चाहते हैं कि भारत सुलह-शांति कराने में पहल करे। वह भारत से शांति पहल की अपील कई बार कर चुके हैं।

यूक्रेन की संसदीय विदेश समिति के अध्यक्ष एलेग्जांडर मेरेज्को मानते हैं कि भारतीय प्रधानमंत्री की यात्रा को यूक्रेन की कूटनीतिक जीत के रूप में देखा जा सकता है। मोदी की यात्रा को लेकर यूक्रेन की इस खुशी का सबसे बड़ा कारण शायद यही है कि भारत यूक्रेन संकट के आरंभ से ही युद्ध का विरोधी और कूटनीति का पक्षधर रहा है।

उसके अमेरिका और रूस, दोनों से घनिष्ठ संबंध हैं। वह दक्षिणी देशों की आवाज उठाता रहा है, परंतु चीन की तरह रूस के साथ खड़ा नहीं दिखा। इसीलिए यूक्रेन ने पिछले साल शी चिनफिंग के पहले और उसके बाद ब्राजील के साथ मिलकर रखे दूसरे शांति प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।

भारत ने शुरू से ही युद्ध की निंदा करते हुए दोनों पक्षों से संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सिद्धांतों और क्षेत्रीय अखंडता का आदर करने और कूटनीति के द्वारा समाधान खोजने का आग्रह किया है। अपनी यूरोप यात्रा के दौरान चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग सर्बिया और हंगरी तक जाकर लौट गए। वह यूक्रेन नहीं गए। इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी की यूक्रेन यात्रा का चहुंओर स्वागत हुआ।

उन्होंने राष्ट्रपति बाइडन और पुतिन को अपनी यात्रा के दौरान हुई वार्ताओं की जानकारी भी दी। फोन पर हुई बातचीत में राष्ट्रपति बाइडन ने प्रधानमंत्री के शांति संदेश और मानवीय राहत की सराहना की। इसके अगले दिन फोन पर राष्ट्रपति पुतिन के साथ हुई बातचीत के दौरान प्रधानमंत्री ने दोहराया कि भारत इस संकट के त्वरित, बाध्यकारी और शांतिपूर्ण समाधान के लिए पूरी तरह कटिबद्ध है।

वह सितंबर 2022 में भी साफ शब्दों में कह चुके थे कि यह जमाना युद्ध का नहीं है। रूस विश्लेषक ओलेग इग्नातोफ का कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी की यूक्रेन यात्रा को रूस में भी सकारात्मकता से देखा जा रहा है। उनका कहना है कि भारत की भूमिका रचनात्मक होगी तो रूस भी उसका स्वागत करेगा।

हालांकि रूसी कुर्स्क प्रदेश पर यूक्रेन के हमले के बाद से रूसी विदेश मंत्री लावरोव बातचीत की संभावना को खारिज करते आ रहे हैं, परंतु राष्ट्रपति जेलेंस्की ने कहा है कि वह दूसरा शांति शिखर सम्मेलन भारत की मेजबानी में कराए जाने का समर्थन करेंगे।

पहला शांति शिखर सम्मेलन स्विट्जरलैंड में हुआ था, जिसमें रूस को नहीं बुलाया गया था और चीन भी रूस की अनुपस्थिति की वजह से शामिल नहीं हुआ। भारत ने भाग लिया था, परंतु उसने रूस की अनुपस्थिति के चलते सम्मेलन की विज्ञप्ति को एकतरफा बताकर उस पर हस्ताक्षर नहीं किए थे।

इसी को रेखांकित करते हुए चीनी सरकार के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने लिखा कि पहले शांति शिखर पर हस्ताक्षर न करने वाले देश को दूसरे शिखर सम्मेलन की मेजबानी नहीं करने दी जाएगी। समस्या यह है कि अमेरिका, उसके खेमे के देशों और चीन के साथ-साथ स्विट्जरलैंड और आस्ट्रिया जैसे गुटनिरपेक्ष देशों की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिह्न लग गया है।

ऐसे में केवल भारत ही बचता है, जिस पर दोनों पक्ष भरोसा कर सकते हैं। इसलिए यदि वह रूस और यूक्रेन, दोनों को शांति वार्ता की मेज पर लाने में सफल हो जाता है तो संभवतः ऐसी शर्तों को आड़े नहीं आने दिया जाएगा। अपनी निष्पक्षता कायम रखने के लिए भारत ने यह स्पष्ट किया है कि समझौते का फॉर्मूला यूक्रेन और रूस को स्वयं तय करना होगा।

भारत केवल माध्यम बनेगा, मध्यस्थ नहीं। जो भी हो, यदि भारत की मेजबानी में शांति सम्मेलन कराने की बात आगे बढ़ती है तो भारत की कूटनीति में एक नया अध्याय जुड़ेगा, क्योंकि अभी तक भारत बड़े गुटों के संघर्ष में तटस्थ रहने की नीति पर ही चला है, शांति बहाल कराने की सक्रिय नीति पर नहीं।

(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)