धर्मकीर्ति जोशी : वैश्विक स्तर पर आर्थिक अनिश्चतता का दौर काफी लंबे समय से कायम है। इस कारण तमाम संस्थाओं को आर्थिक वृद्धि से जुड़े अनुमान उलटने-पलटने पड़ रहे हैं। यह सही है कि जनवरी से मार्च की तिमाही में वैश्विक वृद्धि दर अनुमान से कहीं बेहतर रही, लेकिन आने वाले समय में यह सुस्त पड़ सकती है। इस आशंकित सुस्ती की बड़ी वजह दुनिया भर विशेषकर पश्चिमी देशों में निरंतर ब्याज दरों में हो रही बढ़ोतरी है।

महंगाई को रोकने के लिए ब्याज दरों में की जा रही बढ़ोतरी लगभग अपने चरम पर पहुंच गई और संभव है कि उसमें आगे वृद्धि का दौर न दिखे, लेकिन यह तय है कि पूर्व में जो ब्याज दरें बढ़ीं उनका असर आने वाले समय में दिखेगा। इससे मांग संकुचित होगी और उसका प्रभाव आर्थिक गतिविधियों पर पड़ेगा। जहां तक ब्याज दरों में बढ़ोतरी की बात है तो भारत में ये दरें पश्चिम की तुलना में कम ही बढ़ी हैं। जहां अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने अब तक दरों में 500 आधार अंकों का इजाफा किया है तो भारत में ये दरें 250 आधार अंक तक बढ़ी हैं।

चूंकि अमेरिका और यूरोप में ये ब्याज दरें ज्यादा बढ़ी हैं तो इससे वहां मांग घटेगी और इसका असर भारत पर होगा। भारत से होने वाली वस्तुओं का 35 प्रतिशत निर्यात अमेरिका और यूरोप को ही होता है। ऐसे में इन बाजारों में सुस्ती भारत के लिए परेशानी का सबब बनेगी, क्योंकि सेवाओं के निर्यात की तुलना में वस्तुओं के निर्यात तंत्र की एक लंबी शृंखला होती है और उनकी मांग घटने से तमाम अंशभागियों पर संकट के बादल मंडराएंगे। विश्व स्तर पर बढ़ती ब्याज दरों का एक नकारात्मक पहलू यह भी है कि इससे ऋण अदायगी पर दबाव बढ़ जाता है। एक ऐसे दौर में जब वैश्विक ऋण विश्व जीडीपी के करीब 350 प्रतिशत के बराबर हो गया है तो उस स्थिति में यह परिदृश्य और चिंतित करने वाला है।

समकालीन परिस्थितियों का असर वैश्विक जीडीपी पर स्पष्ट रूप से दिख भी रहा है। हर कहीं जीडीपी वृद्धि दबाव में है। जीडीपी घटती है तो आमदनी घटना स्वाभाविक है। आर्थिकी पर इसके दुष्प्रभाव दिखने लगे हैं। अमेरिका भी इससे अछूता नहीं, जहां सिलिकन वैली बैंक जैसे दिग्गज वित्तीय संस्थान का धराशायी होना बड़े खतरे की घंटी है। वहां कई अन्य बैंक भी दबाव में हैं। अन्य तमाम देशों में भी आर्थिक फिसलन की स्थिति कायम है। भू-राजनीतिक स्तर पर उपजे तनाव ने भी उथल-पुथल और अस्थिरता को बढ़ाया है। ऐसी विकट परिस्थितियों में भी भारत की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर नजर आ रही है। वह जी-20 देशों में सबसे ऊंची वृद्धि हासिल करने में अव्वल आता दिख रहा है। ऐसे असाधारण समय में यह कोई साधारण उपलब्धि नहीं है।

यदि इस मुश्किल दौर में भारत दुनिया को एक उम्मीद की किरण के रूप में दिख रहा है तो यह अकारण नहीं है। इसकी प्रमुख वजह भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूत बुनियाद है। सरकार अपने स्तर पर निवेश जारी रखे हुए है। निजी निवेश भी धीरे-धीरे पटरी पर आकर रफ्तार पकड़ रहा है। एक बड़ी चिंता इस साल मानसून को लेकर थी कि अल नीनो के चलते वह कमजोर पड़ सकता है। मौसम से जुड़े आरंभिक आकलन इस आशंका से राहत दिलाते प्रतीत होते हैं।

भारतीय मौसम विभाग यानी आइएमडी ने इस साल मानसून के सामान्य रहने का अनुमान लगाया है। जबकि निजी संस्था स्काईमेट ने मानसून के सामान्य से कुछ कम रहने की भविष्यवाणी की है। ऐसे में अब नजरें मई में आने वाले अद्यतन अनुमान पर लगी हैं, जिसमें मानसून की तस्वीर और स्पष्ट रूप से सामने आएगी। फिर भी आरंभिक अनुमान के अनुसार यदि अल नीनो दस्तक भी देता है तो उसका असर मानसून सीजन के पहले हिस्से में कम और दूसरे हिस्से में अधिक पड़ेगा, जो बहुत ज्यादा चिंतित करने वाला पहलू नहीं होना चाहिए। ऐसे में यदि मानसून सामान्य से थोड़ा कम बरसा और वर्षा का वितरण बेहतर रहा तो भी ठीकठाक कृषि उत्पादन संभव हो सकेगा। कुछ दिन पहले एकाएक बढ़े तापमान और उसके बाद बेमौसम बारिश से रबी की फसलों खासकर गेहूं उत्पादन में कमी को लेकर जो खतरा जताया जा रहा था, वह भी गायब होता दिख रहा है, क्योंकि इन मौसमी परिघटनाओं से फसलों के उत्पादन पर कोई खास असर नहीं पड़ा है। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी बड़ा संबल मिलेगा।

बेहतर कृषि उत्पादन और सुगम आपूर्ति से महंगाई पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी, जो अभी भी परेशान किए हुए है। हालांकि, मार्च में महंगाई दर 5.7 प्रतिशत के स्तर पर आ गई और हमारा अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष में यह पांच प्रतिशत के स्तर पर आ सकती है। इससे भारतीय रिजर्व बैंक को कुछ समायोजन की गुंजाइश मिलेगी कि वह दरें बढ़ाने के सिलसिले पर विराम लगाए। उसने इस दिशा में कुछ संकेत भी दिए हैं। जैसे अप्रैल में व्यापक रूप से यही माना जा रहा था कि ब्याज दरों में बढ़ोतरी जारी रहेगी, लेकिन रिजर्व बैंक ने ऐसा नहीं किया। ऐसे में यदि महंगाई के स्तर पर राहत जारी रही तो संभव है कि रिजर्व बैंक भी उसके हमले से निपटने की कवायद में ब्याज दरों की ढाल को कुछ ढीला छोड़े। वहीं, पश्चिमी केंद्रीय बैंकों, विशेषकर अमेरिका में ब्याज दरों में बढ़ोतरी के रुझान पर भी रिजर्व बैंक की नजर टिकी रहेगी, क्योंकि उसे फिर उसी हिसाब से कदम उठाने होंगे। रिजर्व बैंक ऐसे इरादे जाहिर भी कर चुका है कि वह परिस्थितियों पर नजर बनाए हुए है और उसी हिसाब से आगे बढ़ेगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा दशा-दिशा सरकार और रिजर्व बैंक के लिए किसी बड़े खतरे की आहट का संकेत नहीं करती कि उन्हें राजकोषीय एवं मौद्रिक नीति में तत्काल रूप से कुछ नाटकीय कदम उठाने पड़ें। इसके कारण स्पष्ट दिखते हैं। जैसे वित्तीय तंत्र के संवाहक माने जाने वाले बैंक अच्छी स्थिति में हैं। कंपनियों के बहीखाते भी दुरुस्त हैं। बुनियादी ढांचे का तेजी से विस्तार जारी है, जिससे कई उद्योगों की राह सुगम हो रही है। 5जी का बढ़ता दायरा और डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर की बेहतर होती स्थिति भी कई सेवाओं को बेहतर बनाने एवं आर्थिक गतिविधियों की रफ्तार बढ़ाने का काम कर रही है। नाजुक वैश्विक आर्थिक परिवेश में ये सभी पहलू भारतीय आर्थिकी को मजबूती प्रदान करेंगे।

(लेखक क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री हैं)