पंकज चतुर्वेदी। सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर पराली यानी फसलों के अवशेष जलाने वालों के खिलाफ मुकदमा चलाने और सख्त कार्रवाई में कोताही बरतने पर हरियाणा और पंजाब की सरकारों को फटकार लगाई। पराली का मामला सुप्रीम कोर्ट में इसलिए पहुंचा, क्योंकि दिल्ली और इसके आसपास वायु प्रदूषण का स्तर फिर बढ़ने लगा है।

इसके लिए वाहनों, फैक्ट्रियों एवं पराली का धुआं, धूल इत्यादि कारण अधिक जिम्मेदार हैं। आने वाले दिनों में पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में जैसे-जैसे पराली जलाने की घटनाएं बढ़ेंगी वैसे-वैसे प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुंच जाएगा।

इस बार भी खेतों से लपटें और हवा में धुएं के बादल उठते दिख रहे हैं। अब तो कुछ उन राज्यों में भी पराली जलने लगी है, जहां पहले नहीं जलती थी। किसान वैसे तो समाज को जीवन देने के लिए अन्न उगाता है, लेकिन अनजाने में ही फसलों के अवशेष जलाने से सांस लेने से जुड़ी गंभीर तकलीफों और कैंसर तक का वाहक बन रहा है। इससे उनका अपना परिवार भी नहीं बचता।

इसे देखते हुए अब पराली की समस्या का निदान कानून या तकनीक की जगह सामाजिक तरीके से करना बेहतर होगा। यह बात किसानों तक पहुंचानी जरूरी है कि खेतों में लगी आग से जमीन की उर्वरा शक्ति प्रभावित हो रही है। पराली का सलीके से निपटान कर किसान अपने खेतों की उर्वरता बढ़ा सकते हैं और अपनी तकदीर बदल सकते हैं।

देश में हर साल करीब 31 करोड़ टन फसल अवशेष जलाए जाते हैं, जिससे हवा में जहरीले तत्वों की मात्रा 33 से 290 गुणा तक बढ़ जाती है। हर साल अकेले पंजाब और हरियाणा में करीब तीन करोड़ 50 लाख टन पराली जलाई जाती है।

एक टन पराली जलाने पर दो किलो सल्फर डाईआक्साइड, तीन किलो ठोस कण, 60 किलो कार्बन मोनोआक्साइड, 1,460 किलो कार्बन डाईआक्साइड और 199 किलो राख निकलती हैं। ऐसे में जब करोड़ों टन अवशेष जलते हैं तो वायुमंडल की कितनी दुर्गति होती होगी। इन दिनों सीमांत एवं बड़े किसान खरीफ फसलों खासतौर पर धान काटने के लिए हार्वेस्टर जैसी मशीनों का सहारा ले रहे हैं। इससे कटाई से फसल के तने का अधिकांश हिस्सा खेतों में ही रह जाता है।

जहां गेहूं, गन्ने की हरी पत्तियां, आलू, मूली की पत्तियां पशुओं के चारे के रूप में उपयोग की जाती हैं तो कपास, सनई और अरहर आदि के तने, गन्ने की सूखी पत्तियां, धान की पुआल आदि को जला दिया जाता है। फसलों के बचे अंश का इस्तेमाल मिट्टी जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ाने के लिए नहीं किया जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।

आज पूरी खेती ऐसे रसायनों द्वारा हो रही है, जो कृषि-मित्र सूक्ष्म जीवाणुओं को ही चट कर जाते हैं। ऐसे में खेत की जैव-विविधता का संरक्षण बेहद जरूरी है। फसलों के अवशेष इसमें किसानों की मदद कर सकते हैं। किसान चाहें तो फसलों के अवशेषों से कंपोस्ट या जैविक खाद तैयार कर अपने रासायनिक खाद के खर्चे से बच सकते हैं।

पुआल को खेत में ढेर बनाकर खुला छोड़ने के बजाय गड्ढों में कंपोस्ट खाद बनाकर उपयोग कर सकते हैं। आलू और मूंगफली जैसी फसलों को खोदाई कर बचे अवशेषों को भूमि में जोत कर मिला सकते हैं। मूंग एवं उड़द की फसल में फलियां तोड़कर खेत में मिला सकते हैं।

केले की फसल के बचे अवशेषों से तैयार कंपोस्ट खाद में 1.87 प्रतिशत नाइट्रोजन, 3.43 प्रतिशत फास्फोरस तथा 0.45 प्रतिशत पोटाश होता है। वैसे आधुनिक मशीन रोटावेटर भी फसल अवशेषों को उपयोगी बनाने में बेहद कारगर है। इस मशीन से जुताई करने पर फसल अवशेष मशीन से बारीक होकर मिट्टी में ही मिल जाते हैं।

जिन इलाकों में जमीन की नमी कम हो रही है और भूजल और गहराई में जा रहा है, वहां रासायनिक खाद के बजाय कंपोस्ट ज्यादा कारगर है और पराली जैसे अवशेष बगैर किसी व्यय के आसानी से कंपोस्ट खाद में बदले जा सकते हैं। यदि मिट्टी में नमी कम हो जाए तो जमीन के बंजर होने का खतरा बढ़ जाता है।

फसल अवशेष को जलाने से खेत की छह इंच परत आग में भस्म हो जाती है, जिसमें विभिन्न प्रकार के लाभदायक सूक्ष्मजीव जैसे राइजोबियम, एजेक्टोबैक्टर, नील हरित काई, मित्र कीट के अंडे आदि होते हैं। इससे भूमि की उर्वरा शक्ति भी जर्जर हो जाती है।

किसानों का कहना है कि पराली को मशीन से निपटाने पर प्रति एकड़ कम से कम पांच हजार रुपये का खर्च आता है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय होता नहीं कि गीली पराली को खेत में पड़े रहने दें। पंजाब में किसानों का एक बड़ा वर्ग सरकार की सब्सिडी योजना से भी नाखुश है। उसका कहना है कि पराली को नष्ट करने की मशीन बाजार में 75 हजार से एक लाख रुपये में उपलब्ध है।

यदि सरकार से सब्सिडी लो तो वह मशीन डेढ़ से दो लाख रुपये की पड़ती है। जाहिर है सब्सिडी उनके लिए बेमानी है। उसके बाद भी मजदूरों की जरूरत होती ही है। किसानों को पराली के हर पक्ष को समझाने के अलावा सामुदायिक स्तर पर मजदूरों की मदद से सरकार खुद इस काम को कुछ साल करे तो शायद उनके मन में व्याप्त शंका का निवारण हो जाए और वे आगे से खुद पराली नहीं जलाएं।

(लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)