जागरण संपादकीय: संपदा के सर्जकों को मिले सम्मान, रतन टाटा ने स्थापित किए नए कीर्तिमान
पारंपरिक रूप से परोपकार और टाटा समूह एक दूसरे के पर्याय रहे। टाटा समूह की इस परंपरा को रतन टाटा ने और आगे बढ़ाया। शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास से लेकर आवारा पशुओं को सहारा देने में टाटा ने करोड़ों रुपये की आर्थिक सहायता प्रदान की। कोविड काल में टाटा ट्रस्ट ने 1500 करोड़ का दान दिया ।
विकास सारस्वत। उद्योगपति रतन टाटा के निधन पर समूचे राष्ट्र ने शोक मनाया। उद्योग जगत एवं शीर्ष नेताओं के अलावा जिस तरह गोरेगांव के गरबा पंडाल से लेकर काशी की संध्या आरती तक आमजन ने रतन टाटा को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की, वह टाटा घराने और स्वयं रतन टाटा के प्रति देशव्यापी स्नेह और कृतज्ञता के भाव को प्रकट करता है।
टाटा समूह ने उद्योग और व्यवसाय के क्षेत्र में बड़े-बड़े कीर्तिमान एवं आयाम स्थापित किए और यह उद्योग क्षेत्र में सबसे विश्वसनीय ब्रांडों में से एक बनकर उभरा। इस सुनहरी एवं समृद्ध विरासत को रतन टाटा ने बखूबी आगे बढ़ाया। बतौर चेयरमैन अपने 21 वर्ष के कार्यकाल में रतन टाटा के नेतृत्व में टाटा समूह का राजस्व 46 गुना बढ़कर 4.75 लाख करोड़ और मुनाफा 50 गुना बढ़कर 33,500 करोड़ रुपये के स्तर पर पहुंचा।
रतन टाटा ने करीब 50 देसी और विदेशी स्टार्टअप्स में निवेश किया। इनमें पेटीएम, ओला इलेक्ट्रिक, लेंसकार्ट और ब्लू स्टोन जैसे स्टार्टअप्स आज बहुत बड़ा रूप ले चुके हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि देश में स्टार्टअप्स को प्रोत्साहित करने में रतन टाटा का बड़ा योगदान रहा है।
रतन टाटा ने 1991 में टाटा समूह का उत्तराधिकार उस समय ग्रहण किया, जब देश उदारीकरण की नीति पर चल निकला था। यह दशकों तक घरेलू संरक्षण में पले-बढ़े भारतीय उद्योग और व्यापारों के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण समय था, जहां उन्हें एकाएक बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मुक्त बाजार में प्रतिस्पर्धा करनी थी।
संरक्षण के चलते टाटा समूह की कंपनियों की पेशेवर क्षमताएं सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के समान शिथिल और निष्क्रिय हो चली थीं। इन कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों ने टाटा ग्रुप के मूल मंत्रों से इतर अपनी मनमानी कार्यपद्धति से न सिर्फ कंपनियों की कार्यकुशलता को कमजोर किया, बल्कि टाटा समूह को भी विघटन के कगार पर ला खड़ा किया।
रतन टाटा ने एक समूह कार्यकारी कार्यालय की स्थापना कर इसके सदस्यों को टाटा कंपनियों के बोर्ड में स्थान दिया। साथ ही सभी कंपनियों में टाटा संस की 26 प्रतिशत भागीदारी तय कर जबरन अधिग्रहण यानी होस्टाइल टेकओवर से बचाने का मार्ग प्रशस्त किया। इस दौरान इंडियन होटल्स, टिस्को और टेल्को (वर्तमान में टाटा मोटर्स) से बड़ी संख्या में छंटनी की गईं, प्लांट एवं मशीनरी का नवीनीकरण हुआ और बहुत सी युवा प्रतिभाओं की भर्ती हुई।
जहां रतन टाटा नए सुझाव, नई तकनीक और नई प्रबंध नीतियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते थे वहीं कई मामलों में उनके निर्णय भावनात्मक, निज विवेक और दृढ़ निश्चय पर आधारित होते थे। हेलेन डेरेस्की और एलिजाबेथ क्रिस्टोफ ने अपनी पुस्तक में रतन टाटा के रोचक संस्मरणों का उल्लेख किया है।
संपूर्ण आटोमोटिव सेक्टर से मिलकर एक पूर्णतः भारतीय कार बनाने के आग्रह पर एक उद्योग कार्यकारी से रतन टाटा को जवाब मिला, ‘भारतीय कार की बात करने से पहले मिस्टर टाटा कैसी भी कामचलाऊ कार बनाकर क्यों नहीं दिखाते।’ इसके तुरंत बाद पूरी तरह भारत में निर्मित टाटा इंडिका पर काम शुरू हुआ, जो शुरूआत में सामने आई खामियों के बावजूद न सिर्फ भारतीय इतिहास की सबसे ज्यादा बिकने वाली कारों में से एक बनी, बल्कि आटोमोबाइल क्षेत्र में भारत की आत्मनिर्भरता तय करने वाला मील का पत्थर भी बनी।
इंडिका का प्रक्षेपण टाटा समूह की उस चार सूत्रीय व्यावसायिक नीति पर आधारित था, जिसमें किसी भी परियोजना को बड़े बजट पर छोटी शुरुआत के साथ उतारा जाए, ताकि संभावित खामियों में सुधार के लिए पर्याप्त पूंजी बची रहे और उत्पाद को उत्तरोत्तर सुधारा जा सके।
इसी तरह अमेरिकी सलाहकार फर्म मैकेंजी द्वारा टिस्को का पूरी तरह विनिवेश करने यानी हिस्सेदारी बेचने की सलाह को भी टाटा ने नहीं माना, बल्कि उसे और संगठित किया। टिस्को ही टाटा स्टील का पूर्ववर्ती संस्करण थी। विनिवेश जैसी सलाहों को दरकिनार करते हुए टाटा स्टील ने इस्पात क्षेत्र की भीमकाय आंग्ल-डच कंपनी कोरस को खरीद कर इस्पात उत्पादन क्षमता को और बढ़ाया। यह किसी भी भारतीय कंपनी के विदेशी अधिग्रहण के सबसे बड़े मामलों में से एक रहा।
भारत के सबसे बड़े धनाढ्यों में से एक होने के बावजूद रतन टाटा का निजी जीवन बहुत सरल और सहज था। वह टाटा समूह के आफिस में बाकी कर्मियों के साथ कतार में लगकर प्रवेश करते दिख जाते थे और कभी-कभार अपनी गाड़ी भी स्वयं चला लेते थे। कभी-कभार वह मुंबई में चलने वाली सामान्य काली पीली टैक्सी में भी सवार हो जाते थे। वह संपदा सृजन को भी सेवा का उपकरण मानते थे।
एक उद्यमी के रूप में रतन टाटा की विरासत इस प्रकार स्मरण रखी जाएगी कि उन्होंने न सिर्फ बदलाव के समय में अपने समूह को संक्रमणकाल से सफलतापूर्वक बाहर निकाला, बल्कि उसे वैश्विक विस्तार भी दिया। जिस फोर्ड कंपनी के बिल फोर्ड ने 1998 में इंडिका का सौदा करने गए टाटा को अपमानित कर वापस भेजा था, उन्होंने 2008 में मुश्किल के दौर से गुजर रहे अपने दो बड़े ब्रांड जगुआर और लैंड रोवर टाटा समूह द्वारा खरीदने पर कठिन समय में उन पर कृपा करने के लिए धन्यवाद दिया।
इन सबसे भी बढ़कर रतन टाटा की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि उन्होंने दशकों तक पोषित समाजवादी कटुता के बावजूद राजनेताओं और राजनीति से अभिभूत भारतीय समाज में पूंजी, उद्यम और धन सृजन को भारतीय मानस में सम्मान दिलाने का काम किया है। यदि हमें एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरना है तो यह आवश्यक है कि टाटा जैसे और बहुत से भविष्यद्रष्टा उद्यमी भारत को मिलें।
यह आवश्यक है कि समाज में धन सृजन करने वाले ऐसे उद्यमियों को यथोचित सम्मान भी मिले, क्योंकि भारत का सुनहरा भविष्य खोखले समाजवाद और राजनीतिक नारों से नहीं, बल्कि व्यापार और उद्यम से तय होगा। यह ठीक नहीं कि कुछ नेता संकीर्ण राजनीतिक कारणों से कारोबारियों को खलनायक ठहराने पर तुले हैं।
(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)