संजय गुप्त। निर्वाचन आयोग की ओर से लोकसभा चुनाव की घोषणा करते ही पक्ष-विपक्ष की क्षमता और उनकी जीत की संभावनाओं का आकलन शुरू हो गया है। वैसे तो हर चुनाव जिज्ञासा जगाता है, लेकिन यह लोकसभा चुनाव इसलिए कुछ अलग है, क्योंकि जहां मोदी सरकार अपने दस साल की अनेक उपलब्धियों के साथ मजबूती से चुनाव मैदान में है, वहीं विपक्ष न तो कोई नैरेटिव खड़ा कर पा रहा है और न ही कोई वैकल्पिक एजेंडा पेश कर पा रहा है। वह और विशेष रूप से कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन आइएनडीआइए जिन मुद्दों के सहारे जनता को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं, वे वामपंथी और समाजवादी सोच से प्रेरित नजर आते हैं। जहां भाजपा अपने गठबंधन राजग को विस्तार देने में लगी हुई है, वहीं आइएनडीआइए अपने सहयोगियों के बीच एकजुटता दिखाने में सफल नहीं हो पा रहा है। उसके कई घटक उससे छिटक चुके हैं या कांग्रेस से मिलकर चुनाव लड़ने से इन्कार कर चुके हैं। विपक्ष यह तो जान रहा है कि भाजपा के तरकश में कई तीर हैं, लेकिन वह उनकी काट पेश नहीं कर पा रहा है। इसमें संदेह है कि वह अगले 40-50 दिनों में कोई ऐसा विमर्श खड़ा कर पाएगा, जिससे मतदाता उसकी तरफ आकर्षित हों।

कांग्रेस ने पिछले लोकसभा चुनाव में करीब 20 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। वह आज भी देश भर में असर रखने वाला प्रमुख विपक्षी दल है। यह भाजपा भी समझ रही है और इसीलिए वह उसकी चुनौती को हल्के में नहीं ले रही है। भाजपा परिवारवाद और भ्रष्टाचार का मुद्दा आगे कर कांग्रेस पर निशाना साध रही है। इसके जवाब में राहुल गांधी भी प्रधानमंत्री मोदी को कठघरे में खड़ा करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं। राहुल गांधी प्रधानमंत्री पर नित नए लांछन लगाते हैं, लेकिन ऐसा करते हुए वह ऐसा दिखाते हैं, जैसे 2014 में कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर देश ने गलती की और वह केंद्र की सत्ता के स्वाभाविक दावेदार हैं। गांधी परिवार उस राजघराने जैसा व्यवहार कर रहा है, जिससे उसका राजपाट गलत तरीके से छीन लिया गया हो। राहुल गांधी प्रधानमंत्री को जितना लांछित करते हैं, मोदी को उतनी ही ताकत मिलती है। राहुल की समस्या यह है कि वह बिना सोचे-समझे कुछ भी कह जाते हैं। बीते दिनों उन्होंने यह कह दिया कि हिंदू धर्म में एक शब्द है शक्ति और वह उससे ही लड़ रहे हैं। प्रधानमंत्री पर राजनीतिक हमला करने के लिए हिंदू धर्म का उल्लेख करने का तुक समझ नहीं आया। इस पर हैरानी नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी ने राहुल गांधी के बयान को एक मुद्दा बना लिया और कांग्रेस को जवाब देना मुश्किल हो गया।

कांग्रेस की कमजोर स्थिति के बाद भी भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव जीतने के लिए हर तरह के प्रयास कर रही है। भाजपा ने अपनी चुनावी तैयारी लगभग उसी समय शुरू कर दी थी, जब यह संकेत मिलने लगे थे कि कांग्रेस विपक्षी दलों को साथ लेकर लोकसभा चुनाव में उतरने की तैयारी कर रही है। उसकी तैयारियां तो पीछे रह गईं, लेकिन भाजपा आगे निकल गई। राजग का विस्तार करने और सहयोगी दलों के साथ सीटों का बंटवारा करने में वह आइएनडीआइए से आगे दिख रही है।

विपक्षी दल भाजपा को एक हिंदूवादी पार्टी के रूप में प्रचारित करते हैं, जबकि भाजपा भारतीयता और हिंदुत्व को एक-दूसरे का पर्याय बताती है। उसके समर्थक भी ऐसा ही मानते हैं। भाजपा भारतीयता की बात करके अपने विचार जनता के बीच लेकर जाती है। भाजपा राष्ट्र प्रेम के जरिये राष्ट्र उत्थान को प्राथमिकता देती है। इसके साथ ही भारतीय संस्कृति को विशेष महत्व देती है। जहां भाजपा भारतीय संस्कृति को महत्व देती है, वहीं उसके विरोधी दल उसकी उपेक्षा करते हैं। कुछ तो सेक्युलरिज्म के नाम पर सनातन धर्म पर हमला करने में भी संकोच नहीं करते। जब वे ऐसा करते हैं, तो खुद का नुकसान ही करते हैं। जब कोई राजनीतिक दल भारतीय संस्कृति को महत्व देने से इन्कार करता है तो वह भारतीयता की अनदेखी करने का ही काम करता है। विपक्षी दल यह देखने को तैयार नहीं कि भाजपा जिन कारणों से देश की सबसे बड़ी पार्टी बनी, उसमें एक बड़ा कारण भारतीयता को महत्व देना है। जनसंघ के नए अवतार के रूप में 1980 में गठित भाजपा को 1984 के लोकसभा चुनाव में मात्र दो सीटें मिली थीं। 2014 में उसने अपने बलबूते 282 सीटें हासिल कीं और 2019 में 303। यह धारणा एक हद तक सही है कि भाजपा की उत्तर के मुकाबले दक्षिण में उतनी पैठ नहीं है, पर इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में वह दक्षिण में अपने पैर जमाने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है।

कांग्रेस और उसके अधिकांश सहयोगी दल परिवारवाद की राजनीति के प्रतीक हैं। इस पर हैरानी नहीं कि भाजपा भ्रष्टाचार के साथ परिवारवाद की राजनीति के विरोध को धार दे रही है। इसके चलते जनता का एक वर्ग यह समझने लगा है कि कांग्रेस और अधिकांश क्षेत्रीय दल परिवार विशेष की निजी जागीर बनकर रह गए हैं और उनकी प्राथमिकता परिवार हित अधिक होती है और जनहित एवं राष्ट्रहित कम। यह बहुत हद तक सच भी है। मतदाताओं की जागरूकता से ही वंशवादी राजनीति को हतोत्साहित किया जा सकता है। उन्हें ऐसा करने के साथ ही अपने मत का प्रयोग जाति, क्षेत्र, भाषा, पंथ के आधार पर करने से बचना चाहिए। लोकतंत्र के लिए यह शुभ नहीं कि मतदान प्रत्याशी की योग्यता के बजाय जाति, क्षेत्र, भाषा, पंथ के आधार पर हो। इसी तरह यह भी ठीक नहीं कि मतदाताओं का एक वर्ग किसी लोभ-ललाच में आकर मतदान करे या फिर मतदान के प्रति उदासीन बना रहे। यह उदासीनता दूर होनी चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह आवश्यक है कि अधिक से अधिक लोग मताधिकार का प्रयोग करें और ऐसा करते समय अपने हित के साथ राष्ट्र के हित का भी ध्यान रखें। राजनीतिक दलों के लिए भी यह आवश्यक है कि उनकी गतिविधियां लोगों में मतदान को लेकर उत्साह जगाएं।

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)