रामिश सिद्दीकी। केंद्र सरकार की ओर से नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के नियमों को अधिसूचित करने के साथ ही उस पर अमल की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है। हालांकि कुछ नेता इसका विरोध करने में लगे हुए हैं। बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने बीते रविवार को एक रैली में फिर से यही दोहराया कि यह कानून देश के वैध नागरिकों को विदेशी बनाने की एक साजिश है।

मुसलमानों को बरगलाने के लिए इसी तरह की आधारहीन बातें तब की गईं थी, जब यह कानून संसद से पारित हुआ था। कुछ राज्य सरकारों ने तो इस कानून के खिलाफ अपनी विधानसभा में प्रस्ताव तक पारित किए थे। वह भी तब जबकि नागरिकता के विषय का राज्यों से कोई लेनादेना तक नहीं।

उस समय एक ऐसा माहौल बनाया गया कि तमाम लोगों और संगठनों ने सड़कों पर उतरकर इस कानून का उग्र विरोध किया था। इनमें मुसलमानों की अच्छी-खासी भागीदारी थी। इस बार वैसा कुछ देखने को नहीं मिल रहा तो इसका यही मतलब है कि पहले मुस्लिम समाज का एक तबका दुष्प्रचार के चलते गुमराह हो गया था।

यह महत्वपूर्ण है कि इस बार मुस्लिम समाज में नागरिकता कानून का कोई खास विरोध देखने को नहीं मिला। इसका कारण यह है कि मुस्लिम समाज को यह सच समझ आ गया कि कैसे कुछ दल और नेता उसे मात्र एक वोट बैंक के रूप में देखते हैं और उसे बरगलाते हैं। सीएए का संबंध केवल केंद्र सरकार से है, लेकिन अनेक राज्य सरकारों ने कहा कि वे इस कानून को अपने राज्यों में लागू नहीं होने देंगे। ऐसे बयानों का मकसद केवल मुस्लिम समाज को यह दिखाना है कि वे तो उनके साथ हैं, लेकिन केंद्र सरकार उनके खिलाफ है।

सीएए पर मुसलमानों को उकसाने की कोशिश कर रहे नेता यह जानते हैं कि वे केवल लफ्फाजी कर रहे हैं। वे यह भी जानते हैं कि इस कानून का संबंध भारत के मुसलमानों तो क्या, देश के किसी भी नागरिक से नहीं है। आजादी के बाद से भारतीय मुस्लिम समाज को कई बार इसी तरह झूठ का सहारा लेकर डराया गया और उसे सड़कों पर उतारा गया, फिर चाहे वह शाहबानो का मामला हो या सीएए का मसला। इससे मुस्लिम समाज को कोई लाभ नहीं मिला। लाभ मिला तो चंद मजहबी और मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने वाले नेताओं को। ये वे नेता हैं, जिन्हें मुस्लिम समाज के हितों से कोई लगाव नहीं।

यह शुभ संकेत है कि आज की युवा मुस्लिम पीढ़ी यह समझने लगी है कि मुस्लिम समाज को बरगलाने वाले मजहबी और सियासी नेता उनके समाज को केवल वोट बैंक के रूप में देखते हैं और वे उनके सच्चे हितैषी नहीं। आज जब संपूर्ण विश्व भारत की ओर देख रहा है, तब भारत की मुस्लिम आबादी, जो सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी है और यहां तक कि उनकी संख्या यहां कई इस्लामी देशों से भी अधिक है, को हर मुद्दे पर सकारात्मक रवैया अपनाना चाहिए। अज्ञानता किसी भी समाज की सबसे बड़ी शत्रु होती है।

इसी अज्ञानता का लाभ उठाकर कुछ नेता मुस्लिम समाज को गुमराह करते हैं। ऐसे लोग सफल न होने पाएं, यह मुस्लिम समाज को सुनिश्चित करना होगा। मुस्लिम समाज को इससे अवगत होना चाहिए कि नागरिकता कानून में 2019 में जो संशोधन किए गए, उसके तहत केवल तीन पड़ोसी देशों पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से भारत आए हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारत की नागरिकता दी जा सकती है। इस कानून के मुताबिक 31 दिसंबर, 2014 या उससे पहले भारत आ चुके उक्त तीन देशों के अल्पसंख्यकों को नागरिकता दी जा सकेगी। नागरिकता संशोधन कानून, 2019 से पहले किसी भी व्यक्ति को भारत की नागरिकता लेने के लिए कम से कम 11 साल भारत में रहना अनिवार्य था, लेकिन अब यह समय अवधि 11 से घटाकर पांच साल कर दी गई है।

मुस्लिम समाज को यह भी समझना होगा कि नागरिकता संशोधन कानून नागरिकता देने का कानून है, न कि किसी की नागरिकता छीनने का। इस कानून से किसी भी भारतीय नागरिक की नागरिकता नहीं जाने वाली। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सीएए में पड़ोसी देश के मुसलमानों को शामिल न करने की भी वजह बताई है और यह भी स्पष्ट किया है कि इन देशों के मुस्लिम भी भारत की नागरिकता ले सकते हैं। मुस्लिम समाज इससे अनजान नहीं हो सकता कि जब पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश इस्लामिक देश हैं तो फिर वहां के मुसलमान धार्मिक अल्पसंख्यक कैसे हो सकते हैं? यह कैसे संभव है?

वास्तविकता यही है कि इन तीनों पड़ोसी देशों में उत्पीड़न के शिकार लोगों के पास भारत भाग आने के अलावा यदि कोई विकल्प है तो यही कि वे या तो मारे जाएं या फिर अपना धर्म-पंथ त्याग दें। इसी कारण जहां अफगानिस्तान में गैर-मुस्लिम गिनती के बचे हैं, वहीं बांग्लादेश, पाकिस्तान में उनकी आबादी उत्पीड़न के कारण तेजी से कम होती जा रही है। विश्व की अनेक संस्थाओं द्वारा प्रकाशित रपटों में यह बात सामने आ चुकी है कि इन देशों में अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न हो रहा है और उनका सम्मान के साथ जीना मुश्किल है।

इन देशों के अल्पसंख्यक आसानी से न तो अमेरिका जा सकते हैं, न यूरोप और न ही किसी अन्य देश। उनके पास सबसे आसान विकल्प भारत आना ही है। वे भारत की ओर उम्मीद से न देखें तो किसकी ओर देखें? सीएए अपनी तरह का दुनिया का पहला कानून नहीं है। पश्चिम के देशों और यहां तक कि अमेरिका ने भी मजहब और संस्कृति के आधार पर नागरिकता देने के कानून बना रखे हैं। सीएए का विरोध न सिर्फ अनैतिक है, बल्कि भारतीय सोच के विरुद्ध भी है।

(लेखक इस्लामी मामलों के जानकार हैं)