शंकर शरण। चुनावी रणनीति के जानकार प्रशांत किशोर अपनी पार्टी जन सुराज के जरिये बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। इससे वहां राजनीतिक हलचल है। प्रशांत किशोर यानी पीके जानते हैं कि चुनाव में दो-तीन प्रतिशत भी वोट इधर-उधर होने से सारा खेल बदल जाता है। वह वोट बनाने-बिगाड़ने के खेल के ही माहिर रहे हैं।

स्वतंत्र भारत की राजनीति में दलीय मतवाद से अलग शुद्ध पेशेवर हुनर को स्थान दिलाकर उन्होंने नया काम किया। इससे पहले तक विविध दल मुख्यतः अपने नारे और मतवाद पर चुनाव लड़ते थे। अन्य समीकरण हल्के-फुल्के रूप में गोपनीय रूप से साधे जाते थे। यह चलन ऐसा व्यापक था कि अधिकांश बौद्धिक भी विचारधारा को भारी महत्व देते रहे।

पीके का सलाहकारी काम बिना किसी वैचारिक/दलीय आडंबर से होता था। इस हद तक कि वह एक साथ विभिन्न दलों के चुनावी रणनीतिकार होते थे। वह बस एक वकील की तरह अपनी मुवक्किल पार्टी को जिताने के उपाय करते थे, लेकिन इस प्रक्रिया में यह अपने आप साफ हो गया कि विविध दलों का अपने नारों, मतवादों की कसमें खाना दिखावा या भोलापन था।

सभी केवल वोट और गद्दी पाना चाहते हैं, चाहे उनके नारे या विचारधारा का कुछ भी होता रहे। पीके ने उन्हें उनकी इसी चाहत पर केंद्रित होकर जिताने में मदद की। स्वाभाविक है कि ऐसे अनुभवी पेशेवर द्वारा बिहार में अपना दल बनाना अन्य दलों के लिए खतरे की घंटी हो सकती है। इसलिए भी, क्योंकि बिहारी समाज राजनीति में अत्यधिक रुचि लेने वाला रहा है। यह मानो वहां का सामाजिक शौक है।

बिहार में हर तबके के लोगों में देश-विदेश के समाचारों पर अंतहीन और आवेशपूर्ण बहस की आदत रही है। राजनीतिक विषयों में ऐसी सक्रिय मानसिकता शायद ही अन्य राज्यों में हो। यद्यपि इसका आशय यह नहीं कि ऐसी रुचि से बिहार में राजकाज अधिक सुसंगत एवं सुचारु बना है। बात इसके उलट है।

राजनीतिक बहस-विवाद में बिहार का समाज जितना उत्साहित रहता है, वहां वास्तविक शासन की गति-मति उतनी ही हतोत्साहित करने वाली रही। जो बिहारी बाहर जाकर विविध क्षेत्रों में अच्छा कर सके, वे भी अपने राज्य में कुछ सकारात्मक कर पाने में विफल रहते हैं। शासन, समाज या दल उन्हें अपेक्षित सहयोग करने में उदासीन या प्रतिकूल साबित होता है।

ऐसे राज्य में किसी नए राजनीतिक प्रयोग के प्रति रुचि होना एकदम सुनिश्चित है। एक तो इसलिए कि बिहार के सभी लोग बेहतर बदलाव चाहते हैं, वे चाहे इसका उपाय न जानते हों। ऊपर से नीचे तक संकीर्ण स्वार्थों के घने मकड़जाल में लोग फंसे रहते हैं। इस पर चर्चा करना उन्हें खूब आता है, पर उससे निकल पाना वे नहीं जानते।

चूंकि पीके ने गुजरात, तमिलनाडु, आंध्र, दिल्ली, पंजाब और बंगाल आदि अनेक राज्यों में अपनी चुनावी काबिलियत का सिक्का जमाया, इसलिए उनसे अपनी पार्टी का चुनाव जीतने की आशा करना स्वाभाविक है, लेकिन उनकी सफलता अभी भविष्य के गर्भ में है। बिहार अपनी तरह का अलग प्रदेश है।

जहां चुनाव संबंधी पीके की पेशेवर समझ संदेह से परे है, वहीं अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी चलाना उनके लिए चुनौती है। क्या वह उस राज्य के बड़बोले, चंचल, संदेही, ईर्ष्यालु समाज को सच्ची उन्नति की दिशा दिखा सकेंगे, जहां राजेंद्र बाबू से लेकर जेपी, लालू तक कुछ सकारात्मक न जोड़ सके?

क्या वह राजनीतिक दलों के प्रोपेगंडा कर्म और रचनात्मक राजनीति के बीच भेद करेंगे या अपने हुनर से पुरानी लीक पर ही केवल अपना कब्जा जमाने की कोशिश करेंगे? गत लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने जोर दिया था कि भाजपा के पास एक नैरेटिव है, जबकि उसके विरोधियों के पास नहीं है, किंतु चुनाव परिणाम ने दिखाया कि कथित नैरेटिव का होना या न होना उतनी बड़ी बात नहीं थी और वह उसे अतिरंजित महत्व दे रहे थे।

प्रोपेगंडा और नैरेटिव में अंतर होता है, जिसे समय के साथ साधारण लोग जल्दी पहचान लेते हैं। बुद्धिजीवियों को इसमें बहुत देर लगती है। यह भारत में पहले भी कई बार हो चुका है। बिहार में पीके का नैरेटिव क्या है, इसका संकेत स्पष्ट नहीं है। क्या बिहार के समाज को किसी बिंदु पर भरोसा दिलाने का कोई उपाय है?

पीके ने इसे अभी जाहिर नहीं किया है। संभव है कि उनकी दिशा ही कुछ और हो। अभी तक तो उन्होंने बिहार की विभिन्न जातियों, समुदायों को आकर्षित करने की ही चिंता दिखाई है, पर इसमें सफलता के बाद आगे क्या है? क्या जन सुराज विधायक निजी जुगाड़-लाभ से अलग कुछ सामाजिक हित करने को उत्कंठित होंगे?

क्या ऐसे व्यक्तियों की पहचान की कोई विधि पीके के पास है? क्या राज्य में स्वस्थ-दक्ष प्रशासन, सुरक्षित जनजीवन बनाने या शिक्षा व्यवस्था प्रशंसनीय बनाने आदि किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर उनके पास कोई अचूक योजना है?

नेतागण आमतौर पर लोगों के भय और लोभ का दोहन कर उसी समाज-विखंडक राजनीति का शिकार बना देते हैं, जिससे निकलना अभी तक किसी के बस में नहीं दिखा है। पीके ने भी कुछ जातियों, वर्गो को जोड़ने की ही बात की है, उन्हें उम्मीदवार बनाने में आरक्षण देकर। उन्होंने मुसलमानों को बिहार में 40 सीटें देने की घोषणा की है।

क्या वह मुस्लिम राजनीति के इतिहास और सार-लक्ष्य से सुपरिचित हैं या गांधीजी की तरह अपनी सदाशयता को ही आदि-अंत मानते हैं? यह गंभीर बिंदु गत सौ वर्षों में हमारे अनेक नेताओं की नैतिक कब्रगाह बना है। साफ है कि यह एक यक्ष प्रश्न रहेगा कि क्या प्रशांत किशोर को भी मुख्यतः आरक्षण और अल्पसंख्यक चिंता का ही सहारा है अथवा वह कुछ करके दिखा सकते हैं?

क्या वह एक ओर गांधी-नेहरू के अल्पसंख्यकवाद, दूसरी ओर दिखावटी हिंदुत्व से भिन्न कोई विचार दे सकते हैं? यदि पीके ने व्यापक हित के प्रश्नों का कोई सार्थक उत्तर खोजा है तो यह बिहार ही नहीं, पूरे देश के लिए बड़ी बात होगी, किंतु यदि वह केवल चुनाव जीतने की चिंता मे हैं तो वह शायद ही कुछ कर सकें।

उनकी महत्वाकांक्षा उससे आगे हो, तभी उनकी राजनीति बिहार और देश के लिए हितकर हो सकेगी। हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि अतीत में कई दलों ने बेहतर बदलाव की उम्मीद दिखाई, लेकिन अंततः वे अन्य दलों जैसे हो गए। आम आदमी पार्टी नई तरह की राजनीति का वादा करके सक्रिय हुई थी, लेकिन वह अन्य दलों जैसी राजनीति करने लगी।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं)