गोपाल जैन : प्रतिष्ठाा अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय ने भी इसकी महत्ता रेखांकित की है। शीर्ष अदालत ने इस बिंदु पर जोर दिया था कि प्रतिष्ठा केवल किसी व्यक्ति की पहचान से ही नहीं जुड़ी, बल्कि उसके अस्तित्व का भी अभिन्न अंग होती है। किसी व्यक्ति के चरित्र का यह संवेदनशील पहलू अक्षुण्ण रहना चाहिए, क्योंकि अनर्गल आरोप किसी व्यक्ति की गरिमा को गंभीर रूप से क्षति पहुंचा सकते हैं।

भारत में यदा-कदा यही सिलसिला देखने को मिलता रहा है। बीते दिनों जब पूरी दुनिया में भारत की जी-20 शिखर सम्मेलन की मेजबानी चर्चा में थी तो उस दौर में निराधार आरोपों के निहितार्थ और भी अधिक गंभीर हो गए। निराधार दावे भारतीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित कर सकते हैं और इनसे भविष्य के निवेश की राह भी रुक सकती है। इस दौर में विश्वसनीय वैश्विक उपस्थिति बहुत आवश्यक है और निराधार आरोप इसमें बड़े अवरोध हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में विपक्ष द्वारा राफेल लड़ाकू विमान को लेकर लगाए गए आरोप इसकी बड़ी मिसाल हैं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था।

देश के प्रमुख कारोबारी समूह अदाणी ग्रुप के विरुद्ध भी ऐसे आरोप अक्सर लगाए जाते रहते हैं। राजस्व खुफिया निदेशालय यानी डीआरआइ से जुड़े एक मामले का ही उदाहरण लें। डीआरआइ की 2014 की एक जांच से जुड़े जो आरोप अदाणी समूह पर लगाए गए, उन्हें डीआरआइ की ही निर्णायक प्राधिकारी संस्था खारिज कर चुकी है। सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क एवं सेवा कर अपीलीय न्यायाधिकरण यानी सीईएसटीएटी ने भी उसी फैसले को कायम रखा। इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की भी मुहर लगी।

ऐसे मामले जिनमें फैसला स्पष्ट रूप से निर्धारित हो चुका है, उन पर सवाल उठाना विधि के शासन की बुनियाद को चुनौती देने जैसा है। शीर्ष न्यायालय द्वारा दिए गए अंतिम निर्णय की अवहेलना लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए अच्छी नहीं। समूची न्यायिक प्रक्रिया में गहन पड़ताल के बाद स्पष्ट फैसले के बावजूद जब नए सिरे से आरोप लगाए जाते हैं तो इससे न्यायिक तंत्र की पवित्रता का अवमूल्यन होता है। यह हमारी न्यायिक प्रणाली में सत्य की श्रमसाध्य अन्वेषण प्रक्रिया के लिए प्रत्यक्ष चुनौती है।

राजनीति के उलझाऊ परिदृश्य में आरोप शक्तिशाली हथियार बन जाते हैं। आरोप जनमत को प्रभावित कर सकते हैं, प्रतिष्ठा तार-तार कर सकते हैं और चुनाव परिणामों को भी निर्धारित कर सकते हैं। कुछ आरोपों की प्रकृति ऐसी होती है, जो पारदर्शिता सुनिश्चित कर लोकतंत्र को सशक्त बनाते हैं तो निराधार आरोप जनता को बरगलाने के साथ ही प्रगति में बाधक बनते हैं। आरोपों की जुबानी जंग के असल भुक्तभोगी केवल वही लोग नहीं होते, जिन पर आरोप लगाए जाते हैं, बल्कि इससे जनता का नेताओं में विश्वास भी डगमगाता है।

जब नेता राजनीतिक लाभ के लिए निराधार आरोप लगाते हैं तो इससे हमें उनके इरादों को लेकर भी संदेह बढ़ता है। निराधार आरोप लगाने के इसी सिलसिले को संगठित अपराध और भ्रष्टाचार रिपोर्टिंग परियोजना यानी ओसीसीआरपी जैसे संगठन ने भी कायम रखा है। उसने भारत के दिग्गज समूहों के विरुद्ध आरोप लगाए हैं। हमारी आर्थिकी में अहम योगदान देने वाले ये समूह कानूनों एवं नियामकीय संस्थाओं के प्रति उत्तरदायी हैं। जिन आरोपों का पूर्व में गहन जांच-पड़ताल के बाद निराकरण हो गया हो, उन्हें राजनीतिक लाभ के लिए फिर से तूल नहीं देना चाहिए।

उल्लेखनीय है कि ओसीसीआरपी के दावों में भी वही बात है जो अमेरिकी शार्ट-सेलर हिंडनबर्ग की रिपोर्ट में थी। जब प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड यानी सेबी जैसी नियामकीय संस्था और प्रवर्तन निदेशालय सरीखी जांच एजेंसी शेयर बाजार की गिरावट में कुछ विदेशी कंपनियों की भूमिका की जांच कर रही हैं, तब किसी भी संदिग्ध रिपोर्ट के पीछे की मंशा की अवश्य जांच होनी चाहिए। विशेषकर तब जब ऐसे कुछ संगठनों को मिलने वाली वित्तीय सहायता को लेकर सवाल उठते रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ताजा आरोप नए सिरे से दुष्प्रचार करने के उद्देश्य से लगाए गए हैं, क्योंकि पहले लगाए आरोपों से कोई ठोस परिणाम नहीं निकला। ओसीसीआरपी की रिपोर्ट जिस समय पर आई, उसे लेकर भी सवाल उठना स्वाभाविक है, क्योंकि यह मामले की उच्चतम न्यायालय में आगामी सुनवाई के पहले आई।

सत्य और साक्ष्यों के अभाव में आरोप दोधारी तलवार बन जाते हैं। एक ओर जहां साक्ष्य से लैस आरोप जवाबदेही तय कर करते हैं, पारदर्शिता सुनिश्चित करते हैं और गतिशील एवं जीवंत लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करते हैं, तो दूसरी ओर निराधार आरोप एक ऐसे हथियार में बदल जाते हैं, जिनसे भ्रामक सूचनाओं का सैलाब आ जाता है। उससे निवेशकों की धारणा प्रभावित होती है और प्रगति में तब तक अवरोध बना रहता है, जब तक अनिश्चितता के बादल छंट नहीं जाते। ऐसे में उन रपटों को महत्व देने में सावधानी बरतनी चाहिए, जो निवेशकों, बाजार की धारणा और समग्र आर्थिकी पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली हों।

लोकतांत्रिक दायरे में हमें रचनात्मक बहस को प्रोत्साहित करना चाहिए। हमारे नेताओं को निजी हमलों और निराधार आरोप लगाने के बजाय गवर्नेंस, आर्थिक नीतियों और सामाजिक कल्याण जैसे उन वास्तविक मुद्दों पर विमर्श करना चाहिए, जिनका नागरिकों से कहीं गहरा सरोकार है। कहने का आशय यही है कि बात कुछ समूह विशेषों पर हमले या उनके बचाव से परे होनी चाहिए। राजनीति में ईमानदारी और निष्पक्षता पर जोर दिया जाए। बेहतर हो कि आरोप साक्ष्यों पर आधारित हों। उनका निराकरण गहन जांच पड़ताल के बाद कानूनी रूप से होना चाहिए।

राजनीतिक लाभ के लिए आरोपों का इस्तेमाल न केवल लोगों को क्षति पहुंचाएगा, बल्कि इससे हमारी लोकतांत्रिक जड़ें भी कमजोर होंगी। हमारी अदालतें सत्य को परखने की एक सुनिश्चित-श्रमसाध्य प्रक्रिया के बाद ही किसी निर्णय पर पहुंचती हैं। इस प्रक्रिया के बाद जब कुछ तय हो जाए तो उस पर निरंतर सवाल उठाना कानून को ही कठघरे में खड़ा करता है। हमारे लोकतंत्र की मजबूती निराधार दावों से किसी को बदनाम करने में नहीं, बल्कि ईमानदारी और निष्पक्षता की खोज में निहित है।

(लेखक उच्चतम न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)