जागरण संपादकीय: तनावपूर्ण होते पक्ष-विपक्ष के संबंध, राष्ट्र निर्माण की कार्ययोजनाओं के लिए मिलकर करना होगा काम
राष्ट्र निर्माण की कार्ययोजना के संकल्प में प्रश्न-प्रतिप्रश्न और उत्तरदायित्वपूर्णता जरूरी है लेकिन ऐसा प्रायः नहीं होता। संसदीय कार्यवाही का सजीव प्रसारण होता है। अपने जनप्रतिनिधियों को शालीन और भद्र न देखकर आमजन निराश होते हैं। राष्ट्रजीवन में आशा उत्साह और उमंग जरूरी है। संसदीय संस्थाओं में अनुशासन एवं मर्यादा का परिवेश निर्मित करना हम सबके लिए अनिवार्य है ।
हृदयनारायण दीक्षित। संसद का सत्रावसान हो गया है। इस सत्र में राष्ट्रपति का अभिभाषण हुआ। 174 सदस्यों ने धन्यवाद प्रस्ताव में हिस्सा लिया। बजट चर्चा में भी 119 सदस्यों ने हिस्सा लिया। सदन में 11 विधेयक रखे गए। एक पारित हुआ। दो संयुक्त संसदीय समिति को भेजे गए। दोनों सदनों का कार्य संतोषजनक है, लेकिन भिन्न-भिन्न दलों के मध्य असंसदीय टकराव के साथ ही आत्मीयता का अभाव भी दिखा।
पीठासीन अधिकारियों को तनाव और अपमान झेलने पड़े। एक वरिष्ठ पदधारक सदस्य के आपत्तिजनक वक्तव्य को लोकसभा कार्यवाही से निकालना पड़ा। राज्यसभा के सभापति के समक्ष विषम परिस्थितियां रही हैं। सत्र का बड़ा भाग शोर और हंगामों में बीता। देश के कोने-कोने में संदेश गया है कि हमारे जनप्रतिनिधियों का व्यवहार उचित नहीं है। वस्तुतः भारत के दल समूहों में परस्पर मैत्री भाव नहीं है।
सत्ता पक्ष और विपक्ष परस्पर शत्रु नहीं होते। सत्तापक्ष के साथ ही विपक्ष का काम भी गहन जिम्मेदारी से जुड़ा है। जनादेश को पूरे मन से स्वीकार करना राष्ट्रीय कर्तव्य है। सदस्यों के बीच वैचारिक भिन्नता स्वाभाविक है, लेकिन यहां कटुता दिखाई पड़ती है। कटुता से आत्मीयता घटती है। परस्पर अलगाववाद बढ़ता है। सामूहिकता घटती है। इसका प्रभाव संसदीय कामकाज पर भी पड़ता है। इस तरह विधायी कार्य के साथ बजट आदि विषयों पर वाद-विवाद की गुणवत्ता बढ़ती है।
चूंकि संसदीय कार्य गहरी निष्ठा मांगता है, इसीलिए संविधान निर्माताओं ने संसद को विशेषाधिकारों से शक्तिशाली बनाया है। विशेषाधिकार उसी अनुपात में जिम्मेदारी भी बढ़ाते हैं। ब्रिटिश हाउस आफ कामंस की एक समिति ने विशेषाधिकारों पर टिप्पणी की थी कि ‘विशेषाधिकारों के कारण सदस्यगण समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो जाते, बल्कि संसद के सदस्य होने से अन्य नागरिकों की तुलना में उनकी जिम्मेदारियां और बढ़ जाती हैं।’
परस्पर कटुता के कारण संसद में व्यवधान होते हैं। व्यवधान संसद की गरिमा घटाता है। संविधान निर्माताओं ने कार्यपालिका को विधायिका के समक्ष जवाबदेह बनाया। उत्कृष्ट संसदीय कार्यवाही से ही सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित होती है। भारतीय संसदीय प्रणाली ब्रिटिश संसदीय परंपरा से प्रेरित है। ब्रिटेन में संसद संप्रभु है। भारत में संविधान संप्रभु और सर्वोपरि है। ब्रिटिश संसद की शक्ति के विषय में डायसी ने लिखा था कि ‘वह एक छोटे बच्चे को प्रौढ़ कर सकती है और गैरकानूनी को कानूनी ठहरा सकती है।
हालांकि ब्रिटिश संसद में भारतीय संसद जैसे हंगामे नहीं होते। अमेरिकी संसद-कांग्रेस में भी प्रतिनिधि सभा एवं सीनेट नाम के दो सदन हैं। अमेरिकी कांग्रेस के पास राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग के अधिकार हैं। सब कुछ विधि के अनुसार होता है। स्विट्जरलैंड में दो विधायी सदन हैं। यहां विधायिका द्वारा पारित कानून की समीक्षा न्यायालय नहीं कर सकते। यहां भी भारत जैसी संसदीय अव्यवस्था नहीं है। जापानी संसद डायट राज्य की शक्ति का सर्वोच्च सदन है।
पश्चिमी देशों की विधायिका में भारत जैसे अप्रिय आचरण नहीं होते। इन देशों में संसदीय व्यवस्था का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। जबकि भारत वैदिक काल से ही जनतांत्रिक व्यवस्था को पोषित करता आ रहा है। सभा और समितियां वैदिक काल में भी थीं। तब से लेकर महाकाव्यकाल तक संसदीय व्यवस्था के सूत्र मिलते हैं। ब्रिटेन में 1228 में कुलीनों की समिति बनाने की मांग की गई थी। 1295 में एडवर्ड प्रथम ने इसे परामर्शदात्री संस्था की मान्यता दी।
एडवर्ड तृतीय (1327) के समय व्यवस्था द्विसदनीय हुई। इंग्लैंड में संसदीय परंपरा का जन्म और विकास धीरे-धीरे हुआ। भारत में लगभग 5,000 साल पहले भी सभा समितियां थीं, लेकिन ब्रिटिश संसदीय परंपरा अल्पकाल में ही प्रख्यात हो गई। स्मरण रहे कि राष्ट्र का मूलाधार संस्कृति है। संस्कृति का मूलाधार सामूहिक रीति-प्रीति है। सामूहिकता में ही संविधान एवं उसकी संस्थाओं के प्रति आदर सुनिश्चित होता है। भारत में वैदिक काल से ही सांस्कृतिक निरंतरता है।
संप्रति, संसदीय कार्यवाही की गुणवत्ता घटी है। वाद-विवाद में शालीनता भी घटी है। जनसभा में बोलना अलग बात है और संसद या विधानसभा में बात रखना अलग। संसदीय कार्यवाही का उद्देश्य राष्ट्र का लोकमंगल है। इसलिए शालीन विमर्श के प्रति निष्ठा होनी चाहिए। देश को झकझोरने वाले मुद्दे बहुधा सिर उठाते हैं। संस्कृति का क्षरण, अलगाववाद, चिकित्सा, शिक्षा, कृषि, बेरोजगारी और अर्थनीति सहित सभी मुद्दों पर राष्ट्रीय विमर्श की आवश्यकता है, लेकिन पवित्र सदनों में अव्यवस्था है।
सदनों की बैठकों की संख्या लगातार घट रही है। अल्पकालीन सत्रों में विधायकों-सांसदों को अपनी बात कहने का अवसर नहीं मिलता। हंगामों का एक कारण यह भी है। विधायी सदनों की बैठकों की संख्या और समय बढ़ाना होगा। बैठकों एवं सत्रों की संख्या को संविधान का भाग बनाया जाना चाहिए। विपक्ष के प्रस्तावों, निजी विधेयकों और संकल्पों का समय भी बढ़ाना चाहिए। इसके लिए प्रतिपक्षी भागीदारी से युक्त दोनों सदनों की एक संयुक्त समिति बन सकती है। संसदीय प्रणाली में सुधारों की फौरी आवश्यकता है। ऐसे सुधार अविलंबनीय लोक महत्व के हैं।
प्रसिद्ध इतिहासकार ग्रोट ने कहा है, ‘सरकार संचालन में वैधानिक नैतिकता का प्रसार जरूरी है। केवल बहुसंख्यक लोगों में ही नहीं, बल्कि सभी नागरिकों में। कोई भी शक्तिशाली हठी और दुसाध्य अल्पमत स्वतंत्र शासन का कार्य संचालन दुरूह या कठिन बना सकता है।’ हालांकि कार्यपालिका के संबंध में यहां आलोचना की सुविधा है। दल संघर्ष की कटुता के बावजूद संविधान के प्रति आदर है। संसदीय कार्यवाही में भारत के हर्ष-विषाद, आशा-अभिलाषा की छाप होनी चाहिए।
राष्ट्र निर्माण की कार्ययोजना के संकल्प में प्रश्न-प्रतिप्रश्न और उत्तरदायित्वपूर्णता जरूरी है, लेकिन ऐसा प्रायः नहीं होता। संसदीय कार्यवाही का सजीव प्रसारण होता है। अपने जनप्रतिनिधियों को शालीन और भद्र न देखकर आमजन निराश होते हैं। राष्ट्रजीवन में आशा, उत्साह और उमंग जरूरी है। संसदीय संस्थाओं में अनुशासन एवं मर्यादा का परिवेश निर्मित करना हम सबके लिए अनिवार्य है। सत्तापक्ष और विपक्ष पूरे देश को संदेश दें कि वे वैचारिक मतभेद के बावजूद राष्ट्र सर्वोपरिता के महामंत्र से जुड़े हुए हैं।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)