राष्ट्रीय चुनौती बना छल-बल से मतांतरण, समय की मांग है कि यह अपराध बंद हो
मतांतरण में जुटी शक्तियां भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 की आड़ में कथित पंथ प्रचार करती हैं। संविधान के उक्त प्रविधान में कहा गया है ‘‘सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म के अबाध रूप से मानने आचरण करने और प्रचार करने का सामान हक होगा।
हृदयनारायण दीक्षित : अवैध मतांतरण राष्ट्रीय चुनौती है। ईसाई-इस्लामी समूह लंबे समय से अवैध मतांतरण में संलग्न हैं। वे सारी दुनिया को अपने पंथ-मजहब में मतांतरित करने के लिए तमाम अवैध साधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं। अपनी आस्था, विवेक और अनुभूति में जीना प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है, लेकिन यहां अवैध मतांतरण के लिए छल, बल, भय और प्रलोभन सहित अनेक नाजायज तरीके अपनाए जा रहे हैं। यह मानवता के विरुद्ध असाधारण अपराध है। और राष्ट्रीय अस्मिता के विरुद्ध युद्ध भी है।
मतांतरण से व्यक्ति अपना मूल धर्म ही नहीं छोड़ता, बल्कि उसकी देव आस्थाएं भी बदल जाती हैं। पूर्वज बदल जाते हैं। वह अपनी संस्कृति के प्रति स्वाभिमानी नहीं रह जाता। वह नए पंथ-मजहब के प्रभाव में अपने पूर्वजों पर भी गर्व नहीं करता। उसकी भू-सांस्कृतिक निष्ठा बदल जाती है। भू-सांस्कृतिक निष्ठा ही भारतीय राष्ट्र का मूल तत्व है। इसलिए मतांतरण राष्ट्रांतरण भी है।
इस्लाम और ईसाइयत की आस्था सारी दुनिया को इस्लामी-ईसाई बनाना है। ईसाई मिशनरियां अस्पताल, स्कूल जैसी सेवाएं देकर गरीबों-बीमारों को ठगती हैं। वे हिंदू देवी-देवताओं का अपमान सिखाती हैं। गांधी जी ने हरिजन (18-07-1936) में लिखा था, ''आप पुरस्कार के रूप में चाहते हैं कि आपके मरीज ईसाई बन जाएं।'' उन्होंने 1937 में फिर लिखा, ''मिशनरी सामाजिक कार्य को निष्काम भाव से नहीं करते।'' स्कूल, अस्पताल बहाना हैं। मकसद मतांतरण है। इसी तरह तमाम इस्लामी संगठन भी अवैध मतांतरण में संलग्न हैं। दोनों की क्रूर कारगुजारियों का लंबा इतिहास है।
औद्योगिक समूह वस्तुओं के अपने ब्रांड का प्रचार करते हैं। अपने ब्रांड को उपयोगी बताते हैं, लेकिन धर्म, पंथ, मजहब उपभोक्ता सामग्री नहीं होते। इसी तरह पंथिक समूह राजनीतिक दल भी नहीं होते। राजनीतिक समूह अपने दल को लोक कल्याणकारी बताते हैं और दूसरे दलों को भ्रष्ट। यही काम पंथ, मजहब के प्रचारक करते हैं। वे अपने पंथ को सही और दूसरे पंथ को गलत बताते हैं।
मतांतरण में जुटी शक्तियां भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 की आड़ में कथित पंथ प्रचार करती हैं। संविधान के उक्त प्रविधान में कहा गया है, ‘‘सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का सामान हक होगा।'' इसे धर्म की स्वतंत्रता और प्रचार का अधिकार कहा गया है। यहां अंतर्विरोध हैं। ‘अंतःकरण की स्वतंत्रता' में धर्म प्रचार बाधक है। मतांतरण के मकसद खतरनाक हैं। संविधान सभा में अनुच्छेद 25 पर काफी बहस हुई थी। संविधान के मूल पाठ में धर्म की जगह रिलीजन शब्द प्रयोग हुआ है।
रिलीजन और धर्म में मौलिक अंतर है। धर्म भारत के लोगों की जीवनशैली है। सभा में तजम्मुल हुसैन ने कहा था, ‘‘मैं आपसे मेरे अपने तरीके से मुक्ति पाने का आग्रह क्यों करूं? आप भी मुझसे ऐसा क्यों कहें?'' सही बात है। जीवन का लक्ष्य या मुक्ति के उपाय और साधन एक पंथिक समूह द्वारा दूसरे पंथिक समूह पर नहीं थोपे जा सकते। ऐसे प्रयास सभ्य समाज पर कलंक हैं। प्रो. केटी शाह ने कहा कि ''यह अनुचित प्रभाव डालना हुआ। ऐसे बहुत उदाहरण है जहां अनुचित धर्म परिवर्तन कराए गए हैं।” लोकनाथ मिश्र ने पंथ प्रचार के अधिकार को गुलामी का दस्तावेज बताया था। उन्होंने भारत विभाजन को मतांतरण का परिणाम बताया।
वास्तव में मतांतरण से जनसंख्या के चरित्र में बदलाव आते हैं। के संथानम ने ईसाई मिशनरियों द्वारा कराए जा रहे मतांतरण पर कहा था कि ''राज्य को अनुचित प्रभाव डाल कर मतांतरण करने वालों पर कार्रवाई का पूरा अधिकार है।” संविधान सभा का बहुमत पंथ-धर्म प्रचार के वैधानिक अधिकार के विरुद्ध था। इसे देखकर केएम मुंशी ने कहा, ‘‘ईसाई समुदाय ने इस शब्द के रखने पर बहुत जोर दिया है। परिणाम कुछ भी हों, हमने जो समझौते किए हैं, हमें उन्हें मानना चाहिए।''
इस प्रविधान पर दिसंबर 1948 में संविधान सभा में बहस हुई थी। 73 साल हो गए। संविधान सभा में मुंशी ने जिन समझौतों का उल्लेख किया था, आखिरकार उन समझौतों के पक्षकार कौन लोग थे? क्या तत्कालीन सरकार एक पक्षकार थी? तो दूसरा पक्ष कौन था? क्या दूसरा पक्ष संप्रभु राष्ट्र राज्य से ज्यादा प्रभावी था? अब समय आ गया है कि इस रहस्य से पर्दा उठना चाहिए। अनुच्छेद 25 पर भी नए सिरे से विचार की आवश्यकता है। इससे राष्ट्रीय क्षति हुई है। पंथ प्रचार के अधिकार से हुए लाभ-हानि पर भी विचार करने का यही सही अवसर है। पंथ प्रचार के नाम पर पंथिक, मजहबी अलगाववाद बढ़ाने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती।
मध्य प्रदेश में ईसाई मतांतरणों की बाढ़ से पीड़ित तत्कालीन मुख्यमंत्री रवि शंकर शुक्ल ने न्यायमूर्ति भवानी शंकर की अध्यक्षता में एक जांच समिति बनाई थी। उस समिति ने मतांतरण के उद्देश्य से भारत आए विदेशी तत्वों को बाहर करने की सिफारिश की थी। न्यायमूर्ति एमवी रेगे जांच समिति (1982) ने भी ईसाई मतांतरणों को दंगों का कारण बताया था। वेणु गोपाल आयोग ने तो मतांतरण रोकने के लिए कानून बनाने की सिफारिश की थी। मतांतरण का प्रश्न पहली लोकसभा में ही उठा था।
देश के 12 राज्यों ने मतांतरण रोकने पर कानून बनाए हैं। वे राज्य उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, अरुणाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, कर्नाटक, हरियाणा एवं तमिलनाडु हैं। हाल में सर्वोच्च न्यायपीठ में इन कानूनों के विरुद्ध याचिका भी दाखिल हुई है। याचिका में मतांतरण विरोधी कानूनों को समाप्त करने की मांग की गई है। कानून विधि सम्मत हैं।
संविधान (अनुच्छेद 25-2) का पुनर्पाठ आवश्यक है कि ‘‘इस अनुच्छेद की कोई बात विद्यमान विधि के प्रवर्तन पर कोई प्रभाव नहीं डालेगी और धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य क्रियाकलापों का विनियमन या निर्बंधन करने वाली विधि बनाने से राज्य को नहीं रोकेगी।'' राज्य विधानसभाओं ने अपनी विधायी क्षमता के आधार पर ही मतांतरण विरोधी कानून बनाए हैं। ये कानून भय, लोभ, छल से होने वाले अवैध मतांतरण रोकने के लिए ही बनाए गए हैं। वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप इन्हें प्रभावी रूप से लागू किए जाने की आवश्यकता है। देश भय, लोभ, छल, बल आधारित मतांतरण की क्षति बर्दाश्त नहीं कर सकता। समय की मांग है कि मतांतरण का अपराध बंद होना चाहिए।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)