गुरचरण दास। विश्व में सबसे तेज गति से वृद्धि कर रही भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष कुछ चुनौतियां भी हैं। रोजगार के पर्याप्त अवसर सृजित न हो पाना ऐसी ही एक चुनौती है। इसका मुख्य कारण यह है कि देश किसी बड़ी औद्योगिक क्रांति के सूत्रपात में विफल रहा है। हालांकि हाल में सामने आई एक सफलता गाथा ऐसी स्थापित धारणाओं को ध्वस्त करने वाली है।

इसने उम्मीदें जगाने के साथ ही यह भी सिखाया है कि अभी और क्या-क्या किया जाना शेष है। क्या इससे सबक लेते हुए हम लेबर इंटेंसिव यानी बड़े पैमाने पर श्रम की खपत करने वाले क्षेत्रों में इस सफलता को दोहरा सकते हैं? भारत में बेरोजगारी समस्या नहीं, बल्कि रोजगार के लिए काबिल लोगों की कमी उससे बड़ी समस्या है।

तमाम लोग खेतों से लेकर बाजार तक कम उत्पादकता वाले कामकाज या असंगठित रोजगार में सक्रिय हैं, लेकिन वे गुणवत्तापरक एवं अधिक उत्पादक रोजगार के आकांक्षी हैं। हालिया लोकसभा चुनाव के दौरान कई सर्वे में सामने आया कि अच्छी नौकरियों को लेकर कितना असंतोष है। अनपेक्षित चुनाव नतीजों में एक पहलू यह भी माना गया।

नि:संदेह 1991 में आरंभ हुए आर्थिक सुधारों के बाद भारत ने उल्लेखनीय प्रगति की है। सेवा क्षेत्र में तो भारत विश्व के ‘बैक-ऑफिस’ के रूप में तब्दील हो गया है, लेकिन ‘दुनिया के कारखाने’ के रूप में रूपांतरित नहीं हो पाया है।

जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी अभी भी 15 प्रतिशत से कम है, जिसमें देश की 11 प्रतिशत आबादी लगी हुई है, जिनके माध्यम से विश्व में आपूर्ति की जाने वाली महज 2 प्रतिशत वस्तुओं का ही उत्पादन हो पा रहा है।

विश्व में कोई भी देश खुद को विनिर्माण महाशक्ति बनाए बिना विकसित नहीं हो पाया। इसके बिना वह लोगों को गरीबी से उबार नहीं पाया है। जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

इन सभी ने लेबर इंटेंसिव विनिर्माण में खुद को संवारने एवं निर्यात बढ़ाने वाले तरक्की के मंत्र को अपनाया। चीन इसका सबसे ताजा उदाहरण है। अच्छी बात है कि भारत में भी इस मोर्चे पर कुछ शुभ संकेत दिखने लगे हैं।

दिग्गज कंपनी एपल ने अपनी वैश्विक आपूर्ति के लिए उत्पाद तैयार करने के लिहाज से भारत को अपने दूसरे महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में चुना है। 2021 तक आईफोन पूरी तरह चीन में बनते थे। आज आईफोन निर्माण के चलते भारत में डेढ़ लाख प्रत्यक्ष नौकरियां और करीब साढ़े चार लाख लोगों को परोक्ष रूप से रोजगार मिला है।

अभी देश में 14 अरब डॉलर के आईफोन निर्मित हो रहे हैं, जिसमें से 10 अरब डॉलर के फोन का निर्यात किया जा रहा है। यह आईफोन के वैश्विक उत्पादन का केवल 14 प्रतिशत ही है, जिसके 2026 तक बढ़कर 26 से 30 प्रतिशत तक होने का अनुमान है।

स्वयं को निर्यात के एक गढ़ के रूप में स्थापित करने के लिए भारत को आईफोन के कंपोनेंट यानी उसमें लगने वाले कलपुर्जा निर्माताओं को भी लुभाना होगा, जिनकी समूचे वैल्यू-एडिशन में करीब 85 प्रतिशत की भागीदारी है।

ऐसे अधिकांश कंपोनेंट निर्माता मुख्यत: चीनी हैं। उनके आने से न केवल रोजगार के अधिक अवसर सृजित होंगे, बल्कि कौशल विकास के विस्तार के साथ ही तकनीकी हस्तांतरण की प्रक्रिया भी तेज होगी। यही वह राह है, जिससे हमारे एमएसएमई ग्लोबल वैल्यू चेन से जुड़ सकते हैं।

वर्षों पहले मारुति के मामले में ऐसा हो चुका है। इसका एक अतिरिक्त लाभ चीन के साथ बढ़ते व्यापार घाटे को पाटने में भी होगा।

देश में आईफोन सफलता गाथा साकार हो सकी तो इसका श्रेय संवेदनशील सरकारी वार्ताकारों को भी जाता है, जिन्होंने खुलेपन से कंपनी के आग्रहों को सुनकर उसकी आवश्यकता के अनुरूप प्रविधानों को हरी झंडी दिखाई। इस सफलता गाथा का एक सबक यह भी है कि कोई भी देश केवल घरेलू बाजार के दम पर पर्याप्त रोजगार अवसर नहीं सृजित कर सकता।

चीन हमसे कहीं बड़ा बाजार है, लेकिन सफलता के लिए वह भी निर्यात पर निर्भर है। इसके लिए ऊंची टैरिफ दरों से परहेज करना होगा। इसके बिना भारत ग्लोबल वैल्यू चेन का हिस्सा नहीं बन सकता। टैरिफ के लिहाज से प्रत्येक पीएलआइ योजना में कोई मियाद तय करनी होगी।

रोजगार सृजन में एमएसएमई के मुकाबले बड़ी कंपनियां कहीं अधिक मददगार हो सकती हैं। उनके लिए आपूर्तिकर्ता की भूमिका छोटी कंपनियों के लिए भी लाभदायक होगी। इसलिए सरकार को ऐसी दिग्गज कंपनियों को आकर्षित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जो चीन में विनिर्माण को लेकर जोखिम महसूस कर रही हैं।

वैश्विक बाजार में सफलता के लिए उत्तम कोटि के उत्पाद अपरिहार्य होते हैं। इस दिशा में अगला कदम यह होना चाहिए कि लेबर इंटेसिंव क्षेत्रों में दिग्गज ब्रांडों को लुभाकर आईफोन की सफलता गाथा दोहराई जाए। इसके लिए कौशल विकास का स्तर भी सुधारना होगा।

कौशल मिशन जैसे हमारे प्रशिक्षण कार्यक्रमों के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि वे उद्योग जगत की जरूरतों के अनुरूप काम नहीं कर रहे। ऐसे में, अप्रेंटिसशिप, इंटर्नशिप और काम के दौरान प्रशिक्षण ही कारगर उपाय हैं।

चीन, वियतनाम और अन्य प्रतिस्पर्धियों की तुलना में उत्पादन लागत के मोर्चे पर भारत पिछड़ा रहा। इस स्थिति में सुधार के लिए की गई पीएलआइ जैसी पहल सब्सिडी न होकर भूमि, श्रम, ऊर्जा और परिवहन लागत जैसे उन पहलुओं पर समायोजन करती है, जहां भारत पिछड़ा है।

डब्ल्यूटीओ नियमों के चलते निर्यात प्रोत्साहनों को लेकर हाथ बंधे होने के कारण स्मार्टफोन पीएलआइ ने उत्पादन के ऐसे महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए, जिन्हें रोजगार और निर्यात में भारी बढ़ोतरी के जरिये ही हासिल कर पाना संभव था।

भारत में एपल की सफलता से वैश्विक कंपनियों को संदेश गया है कि विनिर्माण के लिए भारत अब प्रतिकूल ठिकाना नहीं है। अब परिधान, फुटवियर, खिलौना और खाद्य प्रसंस्करण जैसे क्षेत्रों में भी इस कामयाबी को दोहराया जाए। इसके लिए केंद्र सरकार को सक्रिय भूमिका निभानी होगी। राज्यों को भी आगे आना होगा।

अभी केवल दक्षिण और पश्चिम के राज्य ही इन पहलुओं को समझ रहे हैं। याद रहे कि ग्लोबल मैन्यूफैक्चरिंग हब बनने के लिए भारत को केवल एशियाई प्रतिस्पर्धियों से ही नहीं, बल्कि ओहायो जैसे अमेरिकी राज्यों से भी कड़ा मुकाबला करना है। इसके लिए आवश्यक सुधारों को जितना जल्दी आरंभ किया जाए, उतना ही बेहतर।

(प्रबंधन के क्षेत्र से जुड़े लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं)