डा. ब्रजेश कुमार तिवारी। भारत विश्व में सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था बना हुआ है, लेकिन इसके साथ ही कर्ज का बोझ भी बढ़ रहा है। हाल में आई अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की रिपोर्ट के अनुसार देश का कुल कर्ज चालू वित्त वर्ष की जुलाई-सितंबर तिमाही में बढ़कर 2.47 लाख करोड़ डालर यानी 205 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया। इसमें केंद्र का हिस्सा 161 लाख करोड़ और राज्यों का 44 लाख करोड़ रुपये है। इस हिसाब से हर भारतीय पर एक लाख 40 हजार रुपये का कर्जा है।

वर्ष 2014 में केंद्र सरकार पर कुल देश और विदेश, दोनों तरह का कर्ज 55 लाख करोड़ रुपये था। इस हिसाब से देखें तो पिछले नौ साल में भारत सरकार पर अच्छा-खासा कर्ज बढ़ा है। रिपोर्ट में राजकोषीय घाटा का ब्योरा भी दिया गया है, जो अभी 9.25 लाख करोड़ रुपये है और यह कुल कर्ज का 4.51 प्रतिशत है। राजकोषीय घाटा सरकार की कुल कमाई और खर्च के बीच का अंतर होता है।

आइएमएफ का कहना है कि भारत का सामान्य सरकारी कर्ज वर्ष 2028 तक इसके सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 100 प्रतिशत से ऊपर पहुंच सकता है। हालांकि इस पर वित्त मंत्रालय ने असहमति जताई है। सरकार का मानना है कि इस कर्ज से देश की अर्थव्यवस्था को जोखिम काफी कम है, क्योंकि एक तो ज्यादातर कर्ज भारतीय मुद्रा यानी रुपये में है और दूसरे जीडीपी के मुकाबले इस कर्ज का अनुपात कम है। इसके साथ ही इस समय भारत की इकोनमी 3.35 ट्रिलियन डालर के साथ दुनिया भर में पांचवें नंबर पर है। 2028 तक इसके तीसरे नंबर की बनने की संभावना है। इस समय देश में रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट और अन्य जो आधारभूत ढांचा तेजी से बन रहा हैं, उसमें पैसा तो लगेगा ही।

जापान का कर्ज उसकी जीडीपी का 255 प्रतिशत है तो ग्रीस एवं सिंगापुर का 167 प्रतिशत, इटली का 143 प्रतिशत एवं अमेरिका का 123 प्रतिशत है। इस हिसाब से तो भारत का सामान्य सरकारी कर्ज इसकी जीडीपी का 81 प्रतिशत कम ही है। हालांकि भारत और अन्य विकसित देशों के कर्जों में बड़ा अंतर यह है कि अन्य विकसित देश अपने देश के केंद्रीय बैंक से कर्ज लेते हैं, वहीं भारत पर विदेशी कर्ज ज्यादा है, जो बढ़ रहा है। विकसित देशों की आमदनी भी भारत के मुकाबले ज्यादा है। उन देशों में रेवड़ी योजनाएं न के बराबर हैं। वहां सरकारें केवल शिक्षा एवं स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाएं ही मुफ्त में देती हैं।

इसके विपरीत दक्षिण भारत से शुरू हुआ मुफ्तखोरी यानी रेवड़ी बांटने का सिलसिला आज पूरे देश में पसर चुका है, जो लगातार राजकोषीय घाटे को बढ़ा रहा। भारत में शायद ही ऐसी कोई प्रमुख पार्टी हो, जिसने मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की सियासत न की हो। मुफ्त गेहूं-चावल से लेकर मुफ्त सिलेंडर, मोबाइल तक इन सब चीजों में कर्ज की धनराशि खर्च की जा रही है।

अभी भारत के कुल कर्ज में कारपोरेट बांड की हिस्सेदारी 21.52 प्रतिशत के साथ लगभग 44 लाख करोड़ रुपये है, जो चिंताजनक है। मार्च 2014 में भारत पर 446.3 अरब डालर विदेशी कर्ज था, जो मार्च 2023 के अंत में यह बढ़कर 629.7 अरब डालर तक पहुंच गया। इस कर्ज की वृद्धि में अमेरिकी डालर की कीमत में वृद्धि का भी योगदान है। पिछले कुछ समय से एक डालर की कीमत 83 रुपये के आसपास बनी हुई है।

असल में कर्ज दो तरीके से लिए जाते हैं-आंतरिक एवं बाह्य यानी विदेशी ऋण। आंतरिक ऋण में खुले बाजार से जुटाए जाने वाले कर्ज, कारपोरेट बांड, रिजर्व बैंक को जारी विशेष शेयर, क्षतिपूर्ति और अन्य बांड शामिल होते हैं। जबकि विदेशी ऋण वह ऋण होता है, जिसे दूसरे देशों की सरकारों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों सहित विदेशी कर्जदाताओं से लिया जाता है। कल्याणकारी योजनाओं और आधारभूत संरचना के विकास के लिए सरकार को विदेश से भी कर्ज लेना पड़ता है।

कोरोना काल में भारत सरकार ने लोगों को वैक्सीन के 220 करोड़ डोज मुफ्त में लगाए। तब से शुरू हुआ मुफ्त में राशन बांटने का सिलसिला आज भी जारी है। लोगों को भले ही ये सब मुफ्त मिले, लेकिन केंद्र सरकार ने तो इसके लिए भुगतान किया है। वास्तव में सरकार की आमदनी और खर्चे ही कर्ज को निर्धारित करते हैं। अगर खर्चा आमदनी से ज्यादा है तो सरकार को कर्ज लेना ही पड़ेगा। सब्सिडी एवं विभिन्न रेवड़ी योजनाओं पर उधार लेकर किए गए खर्च पर सरकार को कोई रिटर्न नहीं आता है।

रेवड़ी बांटने के लिए सरकारों द्वारा जो आज इतना कर्ज लिया जा रहा है, इसका बोझ न केवल हम पर है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी यह चुकाना होगा। बजट का एक हिस्सा इन कर्जों के ब्याज पर चला जा रहा है। देश का दुर्भाग्य है कि सरकारें कर्ज से चल रही हैं। अर्थव्यवस्था में उत्पादन एवं रोजगार बढ़ाने की तुलना में विभिन्न रेवड़ी योजनाओं को प्राथमिकता दी जा रही है। यदि रोजगार एवं उत्पादन नहीं बढ़ेगा और आय असमानता कम नहीं होगा तो कर्ज तो लेना ही होगा।

विडंबना यह भी है कि अनाज के मामले में देश के आत्मनिर्भर हो जाने के पांच दशक बाद भी देश की दो तिहाई आबादी सरकार की ओर से दिए जा रहे मुफ्त अनाज पर निर्भर है। सरकार को समझना होगा कि आर्थिक तौर पर पिछड़े जन किसी राष्ट्र के ऊपर बोझ होते हैं, जबकि आत्मनिर्भर नागरिक उसके लिए संपत्ति होते हैं। मुफ्त की योजनाओं की राशि को रोजगार के अवसर पैदा करने, कौशल बढ़ाने और इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर खर्च करने की जरूरत है। तभी लोगों का सामाजिक उत्थान और प्रगति होगी और देश आत्मनिर्भर बन सकेगा।

(लेखक जेएनयू के अटल स्कूल आफ मैनेजमेंट में प्रोफेसर हैं)