उमेश चतुर्वेदी : कभी अपने साथियों को तो कभी अपने विरोधियों को चौंकाना शरद पवार की फितरत है। अदाणी समूह को लाभ पहुंचाने के जिस मुद्दे पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी लगातार केंद्र सरकार पर निशाना साध रहे हैं, उसकी एक तरह से शरद पवार ने हवा निकाल दी। उन्होंने अदाणी मुद्दे पर संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी नियुक्त करने की विपक्षी दलों की मांग को एक तरह से खारिज कर दिया। चूंकि इस मांग को लेकर जारी संसदीय गतिरोध में शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) भी शामिल रही, इसीलिए उनका यह बयान चौंकाने वाला है।

सवाल है कि क्या शरद पवार ने इसके जरिये 2024 के आम चुनाव में संयुक्त विपक्ष की अपने-आप अगुआई करने की तैयारी में जुटी कांग्रेस और राहुल गांधी को कोई संकेत दिया है या फिर वह आगामी आम चुनाव के लिए नए गठबंधन बनाने की तैयारी में हैं? क्या शरद पवार इस बयान के जरिये विपक्षी दलों को भी नया संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं? यह संयोग नहीं है कि जिस समय शरद पवार ने अदाणी मुद्दे की जांच के लिए जेपीसी की मांग खारिज की, ठीक उसी वक्त उनके भतीजे अजित पवार ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व का गुणगान किया। आज के दौर में राजनीति यदि किसी की प्रशंसा भी करती है तो उसके राजनीतिक संकेत होते हैं। अजित पवार द्वारा मोदी की प्रशंसा करने का एक संकेत यही है कि पवार परिवार भाजपा के साथ राजनीति की कोई नई राह देख रहा है।

शरद पवार एक चतुर राजनेता माने जाते हैं। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि पवार को यह पता नहीं होगा कि जेपीसी की मांग को नकारना एक तरह से कांग्रेसी अभियान को नाकाम करने जैसा ही होगा। यह भी शायद ही कोई स्वीकार करे कि बिना पवार की सहमति से अजित पवार नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की सराहना करेंगे। चाचा-भतीजे के बयानों से साफ है कि महाराष्ट्र की राजनीति में कोई नई खिचड़ी पकाने की तैयारी है। यह खिचड़ी कैसी होगी? इसे लेकर कयासबाजी स्वाभाविक है। पवार परिवार की बयानबाजी का संकेत यह निकल रहा है कि कम से कम महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी गठबंधन से बाहर निकलने के जुगाड़ में राकांपा जुट गई है। पवार परिवार को उद्धव ठाकरे की अगुआई वाले गठबंधन में भविष्य नजर नहीं आ रहा। शायद इसीलिए शरद पवार नए राजनीतिक गठबंधन की तलाश में जुट गए हैं।

सूरत कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने में देरी की कांग्रेसी रणनीति का बहुत असर होता नजर नहीं आ रहा है। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने शायद सोचा था कि अपील करने की रणनीतिक देरी से कांग्रेस और राहुल को वैसी ही राष्ट्रव्यापी सहानुभूति मिल सकेगी, जैसी 1978 में तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार द्वारा इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के बाद मिली थी, लेकिन वैसा हुआ नहीं। कांग्रेसी रणनीतिकार भूल गए कि 1978 से लेकर अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है।

राजनीतिक लोहा कब गर्म है और कब उस पर चोट पहुंचानी है, पवार इसके पंडित हैं। ऐसे में उन्हें लग रहा है कि कांग्रेस का साथ कहीं आगामी लोकसभा चुनाव में भारी न पड़ जाए। इसलिए इस बयान के जरिये वह एक तरफ अपने राजनीतिक साथियों पर दबाव बना रहे हैं, वहीं वह दूसरी तरफ भाजपा को भी संकेत दे रहे हैं कि जरूरत पड़ी तो वह उसका साथ दे सकते हैं। लगता है शरद पवार इस तरह मोलभाव की अपनी ताकत को बढ़ा रहे हैं।

वह जब भी महाराष्ट्र में सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा रहे, रणनीतिक रूप से खुद की पार्टी को दूसरे नंबर पर रखते रहे हैं। हालांकि मलाईदार मंत्रालय अपने पास रखते रहे हैं। इसके दो फायदे होते हैं, अगर कोई सवाल उठा तो अगुआई करने वाला दल कहीं ज्यादा भुगतेगा और मलाईदार मंत्रालय का फायदा उनको ही मिलता रहेगा, लेकिन यह भी रणनीति तभी कारगर हो सकती है, जब अगुआ दल ताकतवर हो। एकनाथ शिंदे की अगुआई में शिवसेना के बड़े धड़े के अलग हो जाने के बाद उद्धव ठाकरे गुट वाली शिवसेना ताकतवर नहीं रह गई है, कांग्रेस की स्थिति पहले से ही कमजोर है। पवार का डर स्वाभाविक है कि दोस्ती वाली नाव डूबी तो उसमें उनकी राकांपा भी डूब सकती है।

महाराष्ट्र में अभी खोने को बहुत कुछ नहीं है। लिहाजा पवार इस बहाने केंद्रीय विपक्षी राजनीति की धुरी बनने की कोशिश भी कर रहे हैं। वह यह संदेश दे रहे हैं कि राहुल की अगुआई में मोदी को चुनौती नहीं दी जा सकती, इसलिए विपक्ष को चाहिए कि उसे नेता मान ले। वैसे विपक्षी खेमे में पहले से ही ममता बनर्जी और नीतीश कुमार दो और बड़े नाम हैं, जो केंद्रीय राजनीति की धुरी बनना चाहते हैं, लेकिन दोनों की अपनी-अपनी दिक्कतें हैं। ममता की पार्टी और उनका परिवार भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रहा है, वहीं नीतीश कुमार का जनाधार लगातार सिकुड़ रहा है। राजद के साथ होने की वजह से बिहार के ही वह एकछत्र नेता नहीं बन पा रहे। इसलिए उनकी छतरी के नीचे विपक्षी दलों की जुटान मुश्किल लग रही है।

दिल्ली के शराब घोटाले के तार तेलंगाना तक पहुंच जाने की वजह से फिलहाल के चंद्रशेखर राव की महत्वाकांक्षा को भी ब्रेक लग गया है। इस बीच कांग्रेस के दो दिग्गज आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री किरण रेड्डी और केरल के पूर्व मुख्यमंत्री एके एंटनी के बेटे अनिल भाजपा में शामिल हो चुके हैं। इसके संकेत साफ हैं कि कांग्रेस के लोगों को ही अब अपने नेतृत्व पर भरोसा नहीं है। सचिन पायलट अपनी ही राजस्थान सरकार के खिलाफ धरना दे रहे हैं। इससे आने वाले दिनों में कांग्रेस की राह और चुनौतीपूर्ण होने वाली है। शरद पवार इसी चुनौतीपूर्ण माहौल में अपने लिए नई राह तलाशते दिख रहे हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)