राज कुमार सिंह : पिछले दिनों पटना में मुखर विपक्षी एकता की प्रतिबद्धता के सुर शिमला होते हुए कहां तक पहुंचेंगे, समय ही बताएगा, लेकिन भारतीय राजनीति का पहिया गैर-कांग्रेसवाद से गैर-भाजपावाद तक पूरा घूम गया लगता है। भाजपा को हराने के लिए विपक्षी एकता की कवायद में जिन 17 दलों के 32 नेता जुटे, उनमें वे भी शामिल रहे, जिनके पूर्वज पिछली शताब्दी में गैर कांग्रेसी राजनीति के बड़े स्तंभ रहे। उन्होंने भ्रष्टाचार और परिवारवाद जैसे मुद्दों पर कांग्रेस को कई बार जोरदार चुनौती दी।

महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि 2024 के सत्ता समर के लिए विपक्षी एकता की यह बैठक उस दिन से ठीक दो दिन पहले हुई, जब 1975 में देश में आपातकाल लागू किया गया था। वही आपातकाल, जिसके विरुद्ध तब जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया था। उसके बाद 1977 में हुए आम चुनाव में विपक्षी दलों के विलय से नवगठित जनता पार्टी की जीत को दूसरी आजादी माना गया था। उस दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ने वाले दलों-दिग्गजों के ही उत्तराधिकारी उस संघर्ष के एक अन्य साथी दल जनसंघ के नए राजनीतिक अवतार भाजपा के विरुद्ध अब एकजुट हो रहे हैं। पिछली शताब्दी तक कांग्रेस के विरुद्ध जो ध्रुवीकरण होता रहा, वही अब भाजपा के विरुद्ध करने की कवायद हो रही है। ऐसा ध्रुवीकरण सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध ही होता है। लोकतंत्र का तकाजा है कि ऐसा नीति, सिद्धांत और मुद्दों के आधार पर ही होना चाहिए।

आजादी के बाद जब कांग्रेस का जादू जनता के सिर चढ़ कर बोल रहा था, तब वैकल्पिक विचारधारा और जनहित के मुद्दों पर आधारित राजनीति के जरिये छोटे-छोटे दलों ने उसे 1967 में पहली बड़ी चुनौती दी थी। उत्तर से दक्षिण तक कई राज्यों में संयुक्त विधायक दल की गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। बेशक विभिन्न कारणों से वे सरकारें ज्यादा चली नहीं, पर विपक्षी दलों को चुनावी सफलता का यह फार्मूला मिल गया कि वे मिल कर कांग्रेस को हरा सकते हैं। कांग्रेस को केंद्र की सत्ता से बेदखल कर सकने का सोच तब तक दूर की कौड़ी ही थी, पर उसे साकार होने में भी 10 साल से ज्यादा समय नहीं लगा।

महत्वपूर्ण यह भी है कि केंद्र की सता से अपनी बेदखली खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आमंत्रित की। 1971 में अच्छे-खासे बहुमत से सरकार बनाने वाली इंदिरा गांधी ने चुनावी अनियमितताओं के आरोप में अपनी संसद सदस्यता समाप्त करने वाले अदालती फैसले के जवाब में देश में ही आपातकाल लगा दिया। 25 जून, 1975 को लगा आपातकाल जब 1977 में हटा और अंतत: नए चुनाव का मार्ग प्रशस्त हुआ तो जन दबाव में संपूर्ण विपक्ष ने एकजुट हो कर जनता पार्टी नाम से नया दल बनाया। तब देश में कांग्रेस विरोधी भावनाएं किस कदर उफान पर थीं, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि बिना किसी व्यापक संगठनात्मक ढांचे के चुनाव मैदान में उतरी जनता पार्टी को भी जनता ने सिर-आंखों पर बैठाते हुए सत्ता का जनादेश दिया और सर्वशक्तिमान इंदिरा गांधी और आपातकाल के सूत्रधार उनके पुत्र संजय गांधी तक चुनाव हार गए।

कांग्रेस को तीसरी बड़ी सफल चुनौती संयुक्त विपक्ष ने 1989 में दी, जब राजीव गांधी की प्रचंड बहुमत वाली सरकार बोफोर्स तोप सौदे में दलाली के आरोप से उठे बवंडर में हवा हो गई। कांग्रेस दूसरी बार केंद्रीय सत्ता से बेदखल हुई, पर वह ध्रुवीकरण इस मायने में खास रहा कि तीसरी धारा के मध्यमार्गी दलों ने राष्ट्रीय मोर्चा बनाया। विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्ववाली सरकार को भाजपा और वाम मोर्चा ने समर्थन दिया। नेताओं की महत्वाकांक्षाओं के टकराव और परस्पर घात-प्रतिघात के चलते उस सरकार का हश्र भी जनता पार्टी सरकार जैसा ही हुआ। कांग्रेस केंद्रीय सत्ता से तीसरी बार 1996 में भी बेदखल हुई, पर तब भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। बहुमत से वंचित अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार 13वें दिन गिर जाने के बाद कांग्रेस ने समर्थन दे कर तीसरी धारा के दलों के संयुक्त मोर्चा की सरकार बनवा दी, जिसने चंद महीने टिक पाने वाले दो प्रधानमंत्री दिए। और अंतत: कांग्रेस ने ही उन्हें चलता किया।

1996 को गैर-भाजपावाद का पहला प्रयोग कह सकते हैं, पर वास्तव में वह चुनाव पश्चात की राजनीतिक जोड़-तोड़ ज्यादा थी, जिसकी शिकार भाजपा रही, पर उसे जनता की सहानुभूति भी आने वाले दो चुनावों में मिली। उसके बाद की राष्ट्रीय राजनीति मुख्यत: दो ध्रुवीय रही। संप्रग के रूप में एक ध्रुव का नेतृत्व कांग्रेस करती रही तो राजग के रूप में दूसरे का नेतृत्व भाजपा। वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार चली तो बाद में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग सरकार, लेकिन तीन दशक बाद 2014 में किसी एक दल यानी भाजपा को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिल जाने के बाद राजनीतिक ध्रुवीकरण की दिशा तेजी से बदली है।

गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति से उपजे दल और जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति से बने नेता भी अपनी जरूरत के मुताबिक कांग्रेस से हाथ मिलाते रहे हैं। भाजपा के विरुद्ध व्यापक विपक्षी एकता की कोशिश 2019 के चुनाव से पहले भी हुई थी, लेकिन बाद में बिखराव ही नजर आया। अब जबकि अगले लोकसभा चुनाव में एक साल से भी कम समय है, तब पटना बैठक के जरिये विपक्षी एकता की गंभीर कोशिश नजर आई है। नेतृत्व के बजाय न्यूनतम साझा कार्यक्रम और राज्यवार रणनीति पर फोकस की बात सही सोच के संकेत तो हैं, पर कांग्रेस-आप तथा तृणमूल-वाम में अस्तित्व के टकराव से बचते हुए एकता मृग मरीचिका ज्यादा लगती है। फिर भी यह भारतीय राजनीति में ध्रुवीकरण की दिशा बदल जाने का प्रमाण तो है ही।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)