विकास सारस्वत। लंबे समय तक हिंदू और हिंदुत्व के बीच अनावश्यक, अनर्गल भेद खड़ा करने के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अब भारतीयता के अभिप्राय पर आपत्तिजनक बयान दिया। उन्होंने संसद में यह कहकर चौंका दिया कि भारत राष्ट्र नहीं, बल्कि राज्यों का समूह है। जिस प्रकार हिंदुत्व को हिंदू धर्म से अलग दिखाने का प्रयास दुर्भावना से प्रेरित था, उसी प्रकार भारत की संवैधानिक अवधारणा का अनर्थ राहुल के दुराग्रह का प्रदर्शन था। प्रधानमंत्री मोदी ने उनके बयान की गंभीरता को समझते हुए राष्ट्रपति के अभिभाषण पर अपने संबोधन का काफी समय इसका जवाब देने के लिए दिया। अपने बयान द्वारा राहुल ने यह जताने का प्रयास किया कि राज्यों की दया और स्वेच्छा से भारत का अस्तित्व मात्र एक देश के रूप में है और भारत राष्ट्र तो कतई नहीं है। भारत की यह व्याख्या सांस्कृतिक और संवैधानिक रूप से तो गलत है ही, यह कांग्रेस के उन मूल्यों का उपहास भी है, जिनकी प्रेरणा से पार्टी ने भारत को समग्र राष्ट्र मानकर स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी थी।

बंकिमचंद्र के राष्ट्रवादी घोष ‘वंदे मातरम’ को अपना क्रांति मंत्र बनाने वाली पार्टी, जिसका औपचारिक नाम ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस है, यदि ऐसे नेता का नेतृत्व पाती है, जो भारत की राष्ट्रीय अवधारणा को नकार दे तो इससे पता चलता है कि पार्टी न सिर्फ अपना मूल चरित्र खो बैठी है, बल्कि उन मूल्यों के विरोध में खड़ी हो गई है, जिन्हें लेकर उसका सृजन हुआ था। यहां राष्ट्र और देश के बीच का भेद समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि राहुल और उन्हीं की तरह के अन्य लोग जब भारत को राष्ट्र मानने से इन्कार करते हैं तो उनकी मंशा क्या होती है? जहां देश मात्र भौगोलिक सीमाओं से चिन्हित और संवैधानिक अधिकार से चलने वाली राजनीतिक इकाई है, वहीं राष्ट्र वह चेतना है जो साझा इतिहास, समान संस्कृति एवं सभ्यता के गौरव को आधार बनाकर उस राजनीतिक इकाई का सहज और स्वाभाविक एकीकरण करती है। यदि देश शरीर है तो राष्ट्र उसकी आत्मा है। राष्ट्रीय चेतना के अभाव में देशों की सीमाएं चलायमन और अस्तित्व संदिग्ध रहता है। वहीं राष्ट्रभाव, राष्ट्र-राज्य यानी नेशन स्टेट को उसकी विशिष्टता, स्थायित्व, दीर्घता, सांस्कृतिक शोभा, सामाजिक समरसता और राजनीतिक एकता प्रदान करने का ठोस आधार देता है।

संविधान के जिस अनुच्छेद एक का उल्लेख कर राहुल ने भारत को राष्ट्र नहीं, बल्कि महज राज्यों का संघ बताया, वह संविधान की मूल भावना के सर्वथा विपरीत निकाला गया अर्थ है। अनुच्छेद एक में ‘इंडिया दैट इज भारत’ में भारत स्पष्ट रूप से एक पुरातन, सांस्कृतिक राष्ट्र इंगित है। जहां तक बात ‘यूनियन आफ स्टेट्स’ यानी राज्यों का संघ होने की है तो यह शब्दावली राष्ट्र के विरोध में नहीं, बल्कि उसके शासकीय ढांचे को उद्धृत करने के लिए की गई है। राहुल यदि यूनियन आफ स्टेट्स का अर्थ ढीले-ढाले, स्वायत्त राज्यों के संघ से समझते हैं तो संविधान निर्माता यूनियन की जगह फेडरेशन शब्द का उपयोग करते। यूनियन बनाम फेडरेशन की चर्चा संविधान सभा में हुई थी और डा. भीमराव आंबेडकर ने दो कारणों से भारत को फेडरेशन मानने से इन्कार किया था। पहला तो यह कि भारतीय राष्ट्र स्वाधीन राज्यों के बीच हुए किसी समझौते का परिणाम नहीं और दूसरा इसलिए कि भारतीय कल्पना में राज्यों को देश से अलग होने की छूट नहीं। आंबेडकर ने स्पष्ट किया था कि फेडरेशन की जगह यूनियन शब्द के प्रयोग का कारण भारत की मजबूत संघीय कल्पना ही है।

एक मजबूत संघीय ढांचे के तहत राष्ट्रभाव को संवैधानिक रूप देने के लिए आंबेडकर ने संविधान सभा के कई सदस्यों की नाराजगी भी झेली। मौलाना हसरत मोहानी ने उन पर आरोप लगाया कि वह भारत को बिस्मार्क, कैसर विल्हेम और हिटलर के जर्मनी की तर्ज पर एकीकृत शासन व्यवस्था के अधीन लाना चाहते हैं। इस्लामी राष्ट्र पाकिस्तान के निर्माण और गांधीजी के राष्ट्र विभाजन के प्रबल विरोध के बाद भारतीय राष्ट्रभाव को इस प्रकार लांछित करना बेहूदगी थी, परंतु किसी ने यह आशा नहीं की थी कि नेहरू-गांधी खानदान में भी कभी कोई केंद्रीकृत संघीय ढांचे का विरोध करेगा। हसरत मोहानी की तरह आज राहुल भी भारत को एक ऐसे ढीले- ढाले रूप में देखना चाहते हैं, जिसमें विघटन बड़ी बात न होकर सामान्य सी बात हो। अपने भाषण में तमिलनाडु का जिक्र राहुल की इसी विघटनकारी मंशा को जाहिर करता है। राहुल का प्रधानमंत्री से यह कहना कि आप तमिल लोगों पर राज नहीं कर सकते, उस अलगाववार्दी ंचगारी को हवा देने का प्रयास है, जो लंबे समय तक वहां कभी तेज तो कभी धीमे-धीमे सुलगती रही है। इस तमिल अलगाववाद ने कभी खुलकर अलग देश ‘द्रविडनाडु’ की मांग की तो कभी आर्य विरोध के नाम पर प्रच्छन्न रूप से क्षेत्रीय कट्टरता को बढ़ावा दिया। राहुल द्वारा तमिल अलगाव को हवा देने का यह पहला प्रयास नहीं। पहले भी वह केंद्र द्वारा तमिल संस्कृति को कुचलने का मनगढ़ंत आरोप लगा चुके हैं। कांग्रेस सीएए विरोध के बहाने मुसलमानों और किसान आंदोलन की आड़ में सिख भावनाओं को भड़का चुकी है। कांग्रेस पुलवामा हमले, सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक और चीन से गतिरोध पर दुश्मन देशों के सुर में सुर मिलाती देखी गई है। राहुल द्वारा भारत की राष्ट्र चेतना से इन्कार इसी क्रम में अलगाव को वैधता देने का प्रयास है।

अपने बयान और कृत्यों से राहुल आज उन वामपंथी अतिवादियों के खेमे में आ गए हैं, जो भारत को एक राष्ट्र न मानकर बलात जोड़े गए छोटे-छोटे कई राष्ट्रों का समूह मानते हैं। धुर वामपंथी कन्हैया कुमार को पार्टी में स्थान देना राहुल की विघटनकारी संवेदनाओं को प्रकट करता है। हिंदुत्व से राहुल की चिढ़ भी इसी कारण दिखती है, क्योंकि हिंदुत्व भारतीय राष्ट्रबोध का मूलभूत आधार है। यह दिनोंदिन साफ होता जा रहा है कि सत्ता से दूर कुंठाग्रस्त राहुल की राजनीति भारतीय अक्षुण्णता के लिए खतरा बनती जा रही है। इस नाते प्रधानमंत्री का कांग्रेस को टुकड़े-टुकड़े गैंग का लीडर बताना राजनीतिक आरोप से बढ़कर राष्ट्र को इस घातक राजनीति के प्रति सचेत करने का प्रयास है।

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)