रीना गुप्ता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भोपाल में भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए, अपने भाषण के दौरान देश में यूनिफार्म सिविल कोड को लेकर एक नयी बहस छेड़ दी। उन्होंने कहा कि 'एक ही घर में दो कानून कैसे हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट भी बार-बार कह चुका है कि UCC लाओ, लेकिन विपक्षी दल वोट बैंक के लिए इसका विरोध कर रहे हैं। UCC का जिक्र संविधान में भी किया गया है।'

समान नागरिक संहिता

प्रधानमंत्री का ये बयान अचानक नहीं आया, समान नागरिक संहिता की चर्चा तभी सार्थक होगी जब इसे आगामी लोकसभा चुनाव से ठीक एक साल पहले सत्ता पक्ष कि रणनीति मानकर देखा जाए। सरकार द्वारा, समान नागरिक संहिता को लागू करने कि जिम्मेदारी, संविधान कि धारा 44 द्वारा तय कि गई हैं, पर प्रधानमंत्री का समान नागरिक संहिता पर राजनैतिक भाषण, इस चर्चा को राजनैतिक बना देता है। इसके साथ समान नागरिक संहिता पर भाजपा नेताओ के बयान और लेख भी गौर करने लायक है, जहां वो एक तरफ संविधान का जिक्र करते है, वही दूसरी तरफ विपक्ष के प्रवक्ता बनकर समान नागरिक संहिता के खिलाफ भी अपने विचार रखते है।

UCC आने से भारत की अखंडता को कोई खतरा नहीं होगा?

मोदी सरकार ने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट को बताया कि, संविधान में UCC बनाना सरकार के कर्तव्य में शामिल है और अलग अलग धर्मों , पंथों के लोगों के लिए जमीन और शादी से जुड़े अलग-अलग कानून होने से देश की अखंडता का अपमान है। इसका मतलब ये हुआ कि देश को खतरा है? UCC आने से भारत की अखंडता को कोई खतरा नहीं होगा? चीन भारत की जमीन पर कब्जा नहीं कर पाएगा? पाकिस्तान भारत पर हमले करना बंद कर देगा? क्या बेटियां-महिला सुरक्षित हो जाएंगी ?

देशवासियों के मन मे चिंता का कारण बन रहे ऐसे सवाल

समान नागरिक संहिता पर सैद्धांतिक तौर पर किसी भी भारतीय का,राजनैतिक दल का विरोध बिल्कुल भी नहीं है। संविधान में मानने वाले हर भारतीय को समान नागरिक संहिता मंजूर है, पर जिन कारणों से आजादी के दशकों बाद तक, समान नागरिक संहिता लागू नहीं हो पाई है,उन्हें अचानक से दरकिनार नहीं किया जा सकता। मसलन 2018 मे विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर अपने विचार रखते हुए कहा था कि 'इस स्तर पर न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय।'

विधि आयोग का ये भी सुझाव था कि, समान नागरिक संहिता कि बजाय अलग अलग धर्मों और पंथों के कानूनों में जरूरी फेरबदल करके उन्हें एक समान, तर्क संगत और न्याय संगत बनाने कि कोशिश कि जाए, जिससे आगे चलकर समान नागरिक संहिता पर चर्चा हो सके। प्रधानमंत्री ने इस बार समान नागरिक संहिता पर चर्चा कि शुरुआत करते हुए ये नहीं बताया कि,2018 के विधि आयोग के सुझावों पर उनकी सरकार ने क्या कदम लिए? पिछले 5 सालों मे देश भर मे उनकी सरकार ने समान नागरिक संहिता के पक्ष मे चर्चा क्यूँ नहीं कराई? इस महत्वपूर्ण विषय पर सांसद मे कोई चर्चा क्यूं नहीं रखी गई ? ऐसे कई सारे सवाल देशवासियों के मन मे चिंता का कारण बन रहे है।

सरकार के 9 सालों में इन मुद्दों पर नहीं किया कोई काम

सरकार कह रही है संविधान के Directive Principle of State Policy यानि राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत कि धारा 44 मे समान नागरिक संहिता का जिक्र है। आखिर Directive Principle of State Policy में है क्या ? Directive Principle of State Policy सरकार कि नागरिकों के प्रति जिम्मेदारी तय करते है।

राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत या सरल शब्दों मे सरकार कि भारत के नागरिकों के प्रति दायित्वों में,बच्चों को अच्छी शिक्षा, सामाजिक-आर्थिक-राजनतिक न्याय कि व्यवस्था, गुणवातापूर्ण स्वास्थ सुविधाय जैसे और भी कई सारे म्हत्वपूर्ण विषय शामिल है। पीएम मोदी सरकार जो इस समय धारा 44 समान नागरिक संहिता के नाम पर विपक्ष को संवेधनिक नैतिकता का पाठ पढ़ने कि कोशिश कर रही है, उस सरकार का पिछले नौ सालों मे इन मुद्दों पर काम करने का कोई प्रयास नहीं रहा है।

ऐसे विषय पर हो रही चर्चा

क्या भाजपा सरकार का ये दायित्व नहीं बनता कि पहले अपने नागरिको को मूलभूत सुविधाएं दें ? आज भारत में बेराजगारी दर चरम पर है, ऑक्सफेम की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 10% जनता के पास 77% देश का पैसा है। देश में स्कूलों और अस्पतालों की हालत किसी से छुपी नहीं है।

ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में भी भारत का स्थान 191 देशों में से 132 पर है। फिर भी ऐसा लग रहा है कि सरकार के लिए तलाक या शादी ज्यादा बड़ा मसला है। विधि आयोग ने मात्र 30 दिन का समय देकर समान नागरिक संहिता पर सुझाव मांगे है, जो कि नाकाफी है, क्योंकि भिन्नताओ और विविधता से भरे हमे देश मे, ऐसे विषय पर जो भारत के समाज को बदलने कि ताकत रखता है, ऐसे विषय पर सार्थक चर्चा के लिए कहीं ज्यादा समय कि जरूरत है।

सरकार जल्दबाजी में ले रही फैसले

समान नागरिक संहिता कि चर्चा गैर चुनावी माहौल में हो तभी, इसके राजनैतिक दुष्परिणामों से भी बच जा सकता है। फिलहाल समान नागरिक संहिता का जिक्र शुद्ध रूप से मोदी सरकार कि राजनैतिक चाल से ज्यादा और कुछ नहीं है। इससे पहले भी सरकार जल्द बाजी मे राजनैतिक स्वार्थ के लिए कई सारे ऐसे कदम ले चुकी है जो जनता और देश हित मे नहीं थे, इसलिए जरूरी है इस विषय पर सभी धर्मों, वर्गों को साथ मे लेकर चर्चा करने कि सरकार कि तरफ से पहल हो जिससे हम अपने संविधान कि मूल भावनाओ का सम्मान करते हुए समान नागरिक संहिता लागू कर सके।

लोकसभा चुनाव से पहले उठाया गया ये मुद्दा

गौरतलब ये है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ एक साल का समय रह गया है। ऐसे में इस समय में इस मुद्दे को भाजपा द्वारा उठाना एक सोची समझी राजनितिक रणनीति के तहत लगता है। पिछले कई महीनों से भाजपा सरकार लगातार जनता के बीच अनेक मुद्दों के कारण घिर रही है जैसे भारतीय रेल की दुर्दशा और हादसे, दिल्ली में क्राइम बढ़ना, मणिपुर के खराब हालात और महंगाई। इन सभी मुद्दों पर प्रधानमंत्री मोदी ने कोई भी बयान जारी नही किया है।

यदि मोदी सरकार यूनिफार्म सिविल कोड के पहले 'यूनिफार्म हेल्थ' पालिसी, 'यूनिफार्म' एजुकेशन' पॉलिसी या 'यूनिफार्म रोजगार पालिसी' पर ध्यान देती तो शायद सरकार को जल्दबाजी में ये मुद्दा उठाने की जरूरत नही पड़ती। सैद्धांतिक रूप से UCC ठीक लगता है परन्तु सरकार किस निति के तहत UCC को लागु करेगी, क्या ढांचा होगा, कैसे सभी धर्म और पांतों के लोगों को एक मंच पर लायेंगी? इन सभी बातों पर फिलहाल सरकार ने कुछ नही कहा हैं। बिना किसी स्पष्टता के ऐसे मुद्दों को जनता के बीच में लाना सिर्फ समाज में गुदगुदी लाने जैसा है ताकि लोगों की परेशानियों को छुपाया जा सके|

(रीना गुप्ता, अधिवक्ता और आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)