हृदयनारायण दीक्षित। न्याय आदिम अभिलाषा है। दुनिया की सभी प्राचीन सभ्यताओं में न्याय व्यवस्था के उल्लेख मिलते हैं। उनमें न्याय की प्रतीक देवी की आंखों पर पट्टी है। एक हाथ में तलवार है। देवी का प्रतीक यूनानी सभ्यता से लंबी यात्रा करते हुए यूरोपीय देशों और अमेरिका में भी पहुंचा।

औपनिवेशिक काल (17वीं सदी) में ब्रिटेन के एक न्यायिक अधिकारी न्याय की देवी की मूर्ति भारत लाए थे। भारत में कलकत्ता और बंबई हाई कोर्ट में न्याय की देवी की मूर्ति स्थापित की गई। इसका सार्वजनिक प्रयोग होने लगा। बांग्लादेश में भी न्याय देवी की प्रतिमा सुप्रीम कोर्ट में थी। कटटरपंथी मुस्लिम जमातों ने इसे बुतपरस्ती बताया और तख्तापलट के आंदोलन में यह ध्वस्त कर दी गई।

स्वाधीन भारत ने न्याय की देवी के प्रतीक को अपना लिया। हाल में प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने न्याय की देवी की एक नई प्रतिमा का अनावरण किया है। इस प्रतिमा में आंख की पट्टी हटा ली गई है। आंखों पर पट्टी कानून के अंधा होने का संकेत देती था। कानून को अंधा नहीं होना चाहिए।

भारतीय सिनेमा ने अंधा कानून विषयक कई फिल्में बनाईं। देवी के एक हाथ में तलवार सजा प्रतिबिंबित करती थी। अब न्याय की देवी की प्रतिमा में तलवार की जगह संविधान है। देवी का यह प्रतीक संवैधानिक मूल्यों और विधि के समक्ष समता का संदेश देता है। देवी की यह प्रतिमा आकर्षक है। उन्हें साड़ी पहनाई गई है। सिर पर मुकुट और गले के हार से मूर्ति को सुंदर बनाया गया है।

सुप्रीम कोर्ट के पुस्तकालय में यह मूर्ति स्थापित की गई है। साफ है कि देश औपनिवेशिक सत्ता के समय के कानूनों और प्रतीकों से धीरे-धीरे छुटकारा पा रहा है। भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता ब्रिटिश काल में अधिनियमित हुए थे। भारतीय संसद ने भारतीय न्याय संहिता, नागरिक सुरक्षा संहिता और साक्ष्य अधिनियम 2023 पारित किए। पुराने बूढ़े कानून कालवाह्य हो चुके हैं।

न्याय की देवी की प्रतिमा प्रेरक है। संशोधित प्रतिमा के हाथ में संविधान है तो इसीलिए कि भारत में संविधान का शासन है। न्याय देवी का ताजा प्रतीक स्वागतयोग्य है। न्याय देवी का इतिहास प्राचीन है। इसकी सबसे प्राचीन मूर्ति प्राचीन मिस्र में मिली थी। बाद में यूनानी और रोमन सभ्यताओं ने न्याय देवी की मूर्तियां बनाईं। रोमन साम्राज्य में भी न्याय की देवी थी।

यूनानी सभ्यता में गंभीर सृष्टि चिंतन हुआ था। होमर को कुछ विद्वानों ने यूनान का गुरु बताया है। उनके लिखे इलियड और ओडाइसी महाकाव्यों की विश्व प्रतिष्ठा है। जैसे भारत में वेदों और महाभारत के लिए वेद व्यास के प्रति श्रद्धा है, वैसे ही इलियड और ओडाइसी के लिए होमर की ख्याति है।

यूनानी अपनी न्याय व्यवस्था को लेकर गर्व करते रहे हैं, लेकिन प्रख्यात दार्शनिक सुकरात को यूनानी अदालत ने ही मृत्यु दंड दिया था। न्यायपालिका ने उनका पूरा पक्ष नहीं सुना। सुकरात के विरुद्ध देवताओं को न मानने और युवकों को पथभ्रष्ट करने का आरोप था।

सुकरात 70 वर्ष के वृद्ध थे। उन्होंने कहा था, ”शासक जल्दी न करते तो भी वह थोड़े दिन बाद स्वाभाविक मृत्यु से मरते।” 501 सदस्यीय न्यायपीठ ने सुकरात को सुना। वोट हुआ। 281 सदस्यों ने मृत्युदंड के पक्ष में मत दिया और 220 ने उन्हें निर्दोष माना। न्यायालय की पूरी कार्यवाही केवल एक दिन चली। ऐसे अनेक उदाहरण हैं।

भारत में दुनिया की प्राचीन न्यायपालिका है। यहां प्राचीन काल में भी व्यवस्थित न्यायतंत्र था। राजा हरिश्चंद्र, रघु और शिवि आदि न्यायप्रियता के लिए देश में आज भी चर्चित हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एसएस धवन ने प्राचीन भारत की न्यायायिक प्रणाली का खूबसूरत अध्ययन किया है।

उन्होंने ब्रिटिश लेखकों पर प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था के बारे में गलत और मनमाने विचार व्यक्त करने के आरोप लगाए। उन्होंने हेनरी मेने पर भारत की न्याय व्यवस्था को बदनाम करने का आरोप भी लगाया। यही स्थिति अनेक यूरोपवादी विद्वानों की है। धवन ने भारत की प्राचीन न्याय व्यवस्था को निष्पक्ष बताया। इसके ज्ञान के लिए प्राचीन साहित्य का अध्ययन जरूरी कहा।

अर्थशास्त्र के अनुसार राज्य प्रशासनिक इकाइयों में विभाजित था। प्रत्येक स्तर पर अधिकारी कर्मचारी थे। न्याय व्यवस्था थी। मनु, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, बृहस्पति आदि ने प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था को सुंदर बताया है। न्यायाधीश के लिए निर्धारित आचार संहिता थी। निष्पक्ष काम करने वाला न्यायप्रिय राजा प्रशंसा का पात्र था।

तब राजा आसन पर बैठते ही विवस्वान के पुत्र यम की शपथ लेकर काम करते थे। उत्तर वैदिक काल में नचिकेता और राजा यम के बीच संवाद पठनीय हैं। यम ने नचिकेता को बताया, ”धरती पर जो लोग अन्याय और उत्पीड़न करते हैं, हे नचिकेता! मैं उन्हें बार-बार दंडित करता हूं।” यम न्याय व्यवस्था के उच्चतर देवता हैं। वह दोषियों को दंड देते हैं।

ऋग्वेद के अनुसार न्यायकर्ता के लिए उच्च प्रतिभा आवश्यक थी। कात्यायन ने लिखा है, ”न्यायाधीश को संयमी, निष्पक्ष और दृढ़ निश्चयी होना चाहिए।” बृहस्पति ने कहा है , ”व्यक्तिगत लाभ के लिए पक्षपात नहीं करना चाहिए।” वैदिक साहित्य में राजव्यवस्था और न्यायतंत्र के विशेष उल्लेख हैं। पराशर ने कह है, ”कृतयुग के कानून कृतयुग के समय उपयोगी हैं। द्वापर के कानून अलग हैं। कलयुग के कानून पिछले युगों से अलग हैं।” प्रत्येक युग के कानून प्रत्येक युग की विशेषता के अनुसार होते थे। प्राचीन काल से लेकर मध्य युग के अंत तक न्याय प्रणाली का लगातार विस्तार हुआ है।

संप्रति भारतीय न्यायपालिका की प्रतिष्ठा है, लेकिन तमाम मामलों में न्यायपालिका से आशा के साथ निराशा हाथ लगती है। न्याय में देरी अन्याय है। यह सिद्धांत पुराना है। इस समय देश के न्यायालयों में विचारणीय मुकदमों की संख्या लगभग 5 करोड़ है। यह एक बड़ी चुनौती है। ऐसे में यह अपेक्षा है कि न्याय की देवी समय पर सुगम तरीक से सभी को न्याय देने में प्रभावी सिद्ध हों, क्योंकि न्याय में विलंब की समस्या राष्ट्रीय चिंता का विषय है। न्यायपालिका का सम्मान है, लेकिन कई शिकायतें भी हैं। न्याय व्यवस्था को और विश्वसनीय बनना होगा।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)