शिवकांत शर्मा। क्यूबा के स्वतंत्रता सेनानी कवि होजे मार्ती ने कहा था, 'वोट से नाज़ुक कोई भरोसा नहीं होता, क्योंकि उस पर वोटर के हित ही नहीं, उसकी जिंदगी, मान-सम्मान और भविष्य सब दांव पर लगा होता है।' इस वर्ष दुनिया के आधे से अधिक लोग अपना भरोसा दांव पर लगाने जा रहे हैं, क्योंकि यह इतिहास का सबसे बड़ा चुनावी वर्ष है। इस वर्ष करीब 75 देशों में चुनाव होने वाले हैं, जिनमें अमेरिका, भारत, पाकिस्तान, यूरोप, इंडोनेशिया, ताईवान, दक्षिण अफ्रीका, रूस और ईरान प्रमुख हैं।

ब्रिटेन और कनाडा में भी इसी वर्ष चुनाव होने की संभावना है। विडंबना यह है कि यह चुनावी वर्ष लोकतंत्र के पर्व की जगह उसकी परीक्षा सिद्ध होने जा रहा है। इसका पहला और सबसे बड़ा कारण अमेरिका का राष्ट्रपतीय चुनाव है, जहां नियमबद्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती देने वाले पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप के फिर से चुनावी दंगल में उतरने की प्रबल संभावना है।

उन पर चुनावी हार स्वीकार न करने, लोगों को बगावत के लिए उकसाने और अराजकता फैलाने के आरोप हैं। इसके आधार पर उन्हें चुनाव लड़ने से रोकने की कानूनी कोशिश चल रही हैं, लेकिन इसके लिए संविधान के जिस संशोधन का प्रयोग करने का प्रयास हो रहा है, वह लगभग 160 वर्ष पहले अमेरिकी गृहयुद्ध में शामिल नेताओं पर पाबंदी लगाने के लिए बना था। उसका प्रयोग आज तक किसी नेता को रोकने के लिए नहीं हुआ और न ही बग़ावत में शामिल होने या उसे उकसाने की व्याख्या की गई है।

ट्रंप के विरोधियों और प्रतियोगियों की परेशानी यह है कि रिपब्लिकन पार्टी में ट्रंप समर्थकों के संख्याबल को देखते हुए उन्हें उम्मीदवार बनने से रोक पाना असंभव सा है। वह उम्मीदवार बन गए तो अमेरिकी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया भर की नियमबद्ध व्यवस्था के लिए चुनौतियां खड़ी कर सकते हैं। यदि वह हारे तो चुनावी प्रक्रिया पर सवाल खड़े करके अराजकता फैला सकते हैं और यदि जीत गए तो लोकतांत्रिक परंपराओं को ताक पर रखते हुए मनमाने फ़ैसले कर सकते हैं। रूस के साथ चल रहे युद्ध में यूक्रेन के सहयोग से लेकर नाटो संगठन के सहयोग, फलस्तीनी संकट के समाधान और जलवायु परिवर्तन की रोकथाम, सबके अस्तित्व का संकट खड़ा हो सकता है।

सबसे बड़ा संकट तो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से अमेरिका के नेतृत्व में गठित संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं की देखरेख में चली आ रही उस नियमबद्ध व्यवस्था पर मंडरा रहा है, जिसे अब हर कोई चुनौती दे रहा है। संयुक्त राष्ट्र में कार्यकारी अधिकारों वाली एकमात्र संस्था सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य होने के बावजूद रूस, राष्ट्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता के मौलिक सिद्धांतों को ताक पर रखकर यूक्रेन को हड़पना चाहता है। परिषद का दूसरा स्थाई सदस्य अमेरिका गाजा में इजरायली हमलों से हो रही तबाही को रोकने के लिए जरूरी युद्धविराम के प्रस्तावों को रोक रहा है। तीसरा स्थाई सदस्य चीन ताइवान की प्रभुसत्ता छीनकर उसे हड़पना चाहता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा प्रस्ताव पारित करती है, पर उसके पास प्रस्तावों के क्रियान्वयन का अधिकार नहीं है। सुरक्षा परिषद, जिसके पास अधिकार है, वह सदस्यों के निहित स्वार्थों के कारण उसका प्रयोग नहीं करना चाहती।

विश्व में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली भयावह अराजकता फैलती जा रही है। इससे भी भयावह अराजकता सूचना और प्रचार के क्षेत्र में फैल रही है जहां आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआइ से तैयार डीपफेक जैसी तकनीकों के विकास ने गंभीर चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। अमेरिका के पिछले चुनावों में आरोप लगे थे कि रूस, चीन जैसे देशो ने मिथ्या और भ्रामक प्रचार के ज़रिए चुनावी लहर बनाने के लिए इंटरनेट मीडिया का जमकर प्रयोग किया था। इस बार डीपफेक जैसी तकनीक के जरिये चेहरे, आवाज़ और घटनाओं की नकल कर ऐसे जाली वीडियो तैयार किए जा सकते हैं, जो असली जैसे लगें।

इससे निपटने के उपाय खोजे तो जा रहे हैं, लेकिन तकनीकी विकास की गति खोज की रफ़्तार से कहीं तेज़ है। वैसे भी हिंडनबर्ग-अदाणी प्रकरण की तरह इनसे होने वाले नुक़सान तत्काल होते हैं और तथ्य सामने आने तक देर हो चुकी होती है। इसलिए नियामकों के साथ-साथ प्राशासनिक अधिकारियों और नेताओं को भी एआइ की तकनीक को गहराई से समझना होगा, क्योंकि इन पर निगरानी का काम इन्हीं की सहायता से किया जा सकता है। इसी माहौल में भारत में भी आम चुनाव होने जा रहा है, जो अमेरिका के चुनाव के बाद इस वर्ष का सबसे महत्वपूर्ण चुनाव होगा।

भारत में चुनावी पराजय को स्वीकार न करने और सत्ता हस्तांतरण में अराजकता फैलाने जैसी घटनाएं नहीं होती हैं, परंतु चुनाव आयोग और इवीएम की विश्वसनीयता पर जरूर सवाल उठाए जाते हैं। भारत में सबसे बड़ी समस्या सदनों के संचालन में आ रही है। पिछले दिनों संसद की सुरक्षा में लगी सेंध को लेकर मचे बवाल की मिसाल ही लें। हर लोकतांत्रिक देश की तरह भारत में भी सदन के संचालन और सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सभापति की होती है। फिर भी जवाब गृहमंत्री से मांगा गया। यही हिंडनबर्ग-अदाणी मामले में हुआ। सर्वोच्च न्यायालय ने जांच समिति बैठा दी। शेयर बाजार की नियामक संस्था सेबी छानबीन कर रही थी, फिर भी संसदीय समिति और विशेष जांच समिति की मांगें की गईं। आखिर क्यों? सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा कि नियामक संस्थाओं के होते हुए हर मामले पर विशेष समितियां नहीं बैठाई जा सकतीं।

एक ओर तो संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता छीनने के आरोप लगाए जाते हैं, पर दूसरी ओर जब संस्थाएं स्वायत्तता से काम करती हैं तो उन्हें करने नहीं दिया जाता। तब या तो उनकी जगह प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को तलब किया जाता है या फिर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया जाता है। अदालतों में यदि आप जजों के हर निर्देश पर हो-हल्ला मचाने लगें तो वे कैसे चलेंगी? संसद तो अदालतों की भी अदालत है। देश का कानून बनाती है। क्या उसे स्वयं क़ायदे-कानून पर नहीं चलना चाहिए? अपनी राय रखने और सवाल करने के क़ायदे-कानून बने हुए हैं। उन पर चलते हुए कुछ करके दिखाएं तो संसदीयता कहलाती है। ब्रितानी संसद में अराजकता फैलाने वालों को सदन से निकाल दिया जाता है तो क्या ब्रिटेन में लोकतंत्र नहीं है? भारत में संसदीय अराजकता की स्थिति इतनी गंभीर हो चली है कि मतदाता को ही कुछ करना होगा।

(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)