प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विपक्षी दलों के नकारात्मक रवैये का संकेत करते हुए यह जो कहा कि वे अभी भी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं और न तो खुद कुछ करना चाहते हैं और न ही दूसरों को करने देना चाहते हैं, उससे इन्कार करना कठिन है। नकारात्मकता की राजनीति के कारण ही संसद का मानसून सत्र बाधित है। विपक्ष एक ओर तो मणिपुर की घटनाओं को लेकर बहुत ही चिंतित और व्यथित नजर आ रहा है, लेकिन वह उस पर संसद में सार्थक चर्चा भी नहीं होने दे रहा है।

यह समझना कठिन है कि दिल्ली में सेवाओं संबंधी विधेयक पर विपक्ष ने जिस तरह लोकसभा की चर्चा में भाग लिया, उसी तरह वह अन्य विधेयकों के पेश और पारित होने में शामिल होना क्यों आवश्यक नहीं समझ रहा है। संसद तभी चल सकती है जब सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों के बीच कोई समझबूझ और समन्वय कायम हो, लेकिन पिछले कुछ समय से यह देखने में आ रहा है कि सत्तापक्ष और विपक्ष किसी भी मसले पर एकमत नजर नहीं आते। यही कारण है कि संसद में सार्थक बहस का अभाव बढ़ता चला जा रहा है।

बात केवल मानसून सत्र में हो रहे हंगामे की ही नहीं है, इसके पहले भी जो सत्र हुए, उनका अधिकांश हिस्सा गतिरोध और हंगामे की भेंट चढ़ गया। यहां तक कि बजट सत्र में भी हंगामा ही होता रहा। बजट सत्र के दौरान इतना अधिक हंगामा हुआ कि आम बजट को बिना चर्चा के ही पारित करना पड़ा। मोदी सरकार के इस कार्यकाल में यह स्मरण करना कठिन है कि किस विधेयक पर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच गहन-विस्तृत चर्चा हुई थी।

विपक्ष को यह समझना चाहिए कि विरोध के लिए विरोध की राजनीति से वह अपना ही नुकसान कर रहा है। मानसून सत्र में विपक्षी दलों ने जैसा रवैया दिखाया, उससे आम जनता के बीच यही संदेश गया कि वे जानबूझकर संसद को नहीं चलने देना चाहते हैं। विपक्षी दलों को यह समझना चाहिए कि संसद में हंगामा करके उन्हें कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलने वाला। इसके विपरीत आम जनता यह देख-समझ रही है कि उसकी नकारात्मक राजनीति कई अहम मसलों पर समाधान निकलने में बाधक बन रही है।

विपक्ष अपने इस रवैये के पीछे चाहे जैसे तर्क दे, लेकिन उसे इसकी अनुभूति होनी चाहिए कि संसद की गरिमा और महत्व कायम रखने के लिए उसकी भी उतनी ही जिम्मेदारी है जितनी कि सत्तापक्ष की। सत्तापक्ष और विपक्ष में मतभेद होना स्वाभाविक है, लेकिन लोकतंत्र तो मतभेदों के बीच समन्वय कायम करने की विधा है। यदि सत्तापक्ष और विपक्ष में सामंजस्य का अभाव इसी तरह बढ़ता रहा तो इससे केवल संसद की गरिमा ही नहीं गिरेगी, बल्कि पक्ष-विपक्ष के बीच राजनीतिक कटुता भी बढ़ेगी। इसके अतिरिक्त यदि विधेयक समय पर संशोधित-परिवर्तित और पारित नहीं होते तो उससे देश की प्रगति का काम भी रुकेगा।