कर्नाटक सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने से जिस तरह इन्कार किया, उससे यही पता चलता है कि राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर भी किस तरह सस्ती राजनीति की जाती है। कर्नाटक की नई सरकार ने नई शिक्षा नीति को ठुकराने का फैसला तब लिया, जब उसे लागू हुए तीन वर्ष हो चुके हैं। इसका अर्थ है कि पिछली राज्य सरकार ने नई शिक्षा नीति को अमल में लाने के लिए जो कुछ किया, वह व्यर्थ हो जाएगा। इससे समय और संसाधन की बर्बादी ही होगी, क्योंकि कर्नाटक सरकार रातों-रात अपनी शिक्षा नीति तैयार नहीं कर सकती।

कर्नाटक सरकार के फैसले पर केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने यह उचित ही कहा कि नई शिक्षा नीति को राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है। कम से कम शिक्षा नीति को तो दलगत राजनीति से परे रखा जाना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं किया जा रहा।

यह तब है, जब तीन वर्ष पहले जारी नई शिक्षा नीति की प्रशंसा कांग्रेस के कई नेताओं ने भी की थी। नई शिक्षा नीति को इसलिए दलगत राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए, क्योंकि उसे तैयार करने का काम प्रख्यात शिक्षाविदों, विज्ञानियों और अपने-अपने क्षेत्र के अन्य नामी विशेषज्ञों ने किया था।

कर्नाटक सरकार के पहले बंगाल, तमिलनाडु और केरल की सरकारें भी नई शिक्षा नीति पर आपत्ति जता चुकी हैं। हैरत नहीं कि कर्नाटक सरकार के फैसले के बाद हिमाचल प्रदेश की नई सरकार भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति का विरोध करने के लिए आगे आ जाए, क्योंकि कर्नाटक सरकार ने उसके समक्ष यह प्रश्न तो खड़ा ही कर दिया है कि जब हम नई शिक्षा नीति का विरोध कर रहे हैं, तब आप उसे कैसे अपना सकते हैं?

जो भी हो, शिक्षा नीति पर संकीर्ण राजनीति छात्रों के साथ-साथ देश के भविष्य से भी खिलवाड़ है। यह सही है कि शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है और राज्य सरकारें केंद्र की ओर से तैयार की गई नई शिक्षा नीति में कुछ संशोधन-परिवर्तन कर सकती हैं, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि वे उसे सिरे से खारिज कर दें या फिर उसके प्रविधानों के उलट प्रविधान बनाएं। कुछ गैर भाजपा शासित राज्य सरकारें ऐसा ही करना चाह रही हैं। इन राज्य सरकारों ने नई शिक्षा नीति का विरोध महज केंद्र सरकार के प्रति अपने विरोध को धार देने के लिए ही किया है।

विडंबना यह है कि ऐसी ही सरकारें केंद्र सरकार पर यह आरोप लगाती हैं कि वह संघीय ढांचे के अनुरूप काम नहीं कर रही है। नई शिक्षा नीति को लागू करने से मना करने का कर्नाटक सरकार का फैसला यह भी बता रहा है कि किस तरह सत्ता परिवर्तन होते ही शासकों की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। कई बार तो वे केवल इसलिए बदल जाती हैं, ताकि यह जताया जा सके कि पिछली सरकार कुछ भी सही नहीं कर रही थी।