यह अच्छा हुआ कि प्रधानमंत्री ने कानून मंत्रियों के सम्मेलन में कहा कि न्याय मिलने में देरी सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है, लेकिन यह बात पहले भी न जाने कितनी बार कही जा चुकी है। वास्तव में यह बात पिछले करीब दो-तीन दशकों से ऐसे ही अवसरों पर कई बार कही गई है-कभी कानून मंत्री की ओर से, कभी न्यायाधीशों की ओर से और कभी प्रधानमंत्री की ओर से भी, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला है।

समस्या की चर्चा करते रहने का तभी कोई औचित्य है, जब उसका समाधान भी निकले। दुर्भाग्य से यही नहीं हो रहा है और वह भी तब जब न्याय में देरी के कारणों से सभी अवगत हैं- न्यायपालिका भी और कार्यपालिका के साथ विधायिका भी। यह सही है कि न्याय में देरी के कारणों का निवारण करने के लिए समय-समय पर कदम उठाए गए हैं, लेकिन उनका अपेक्षित लाभ देश की जनता को नहीं मिल सका है।

पुराने कानूनों को खत्म करने की पहल हो या फिर लोक अदालतों और फास्ट ट्रैक अदालतों को गठित करने की, ऐसे उपाय अभीष्ट की पूर्ति में सहायक नहीं बन सके हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि न्याय देने की प्रक्रिया में व्यापक बदलाव की मांग पूरी करने की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा रहा है। इसी के चलते तारीख पर तारीख का सिलसिला कायम है। इसी तरह यह भी एक यथार्थ है कि जो सरकारें न्याय में देरी को लेकर चिंतित होती रहती हैं, वही सबसे बड़ी मुकदमेबाज बनी हुई हैं। आखिर सरकारें अपनी जनता को अदालतों में क्यों घसीटती हैं?

चिंताजनक केवल यह नहीं है कि न्यायिक तंत्र के आधारभूत ढांचे को सुदृढ़ करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं, बल्कि यह भी है कि इस तंत्र में सुधार से बचा जा रहा है और इसका सबसे प्रमाण है उच्चतर न्यायपालिका में जजों द्वारा जजों की नियुक्ति वाली कोलेजियम व्यवस्था जारी रहना। प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देशों में कहीं पर भी जज जजों की नियुक्ति नहीं करते, लेकिन भारत में ऐसा ही किया जा रहा है। पता नहीं हमारे न्यायाधीशों को यह क्यों लगता है कि यदि लोकतांत्रिक मूल्यों को मुंह चिढ़ाने वाली कोलेजियम व्यवस्था खत्म हो गई तो आसमान टूट पड़ेगा?

करोड़ों मुकदमे के लंबित रहने से बड़ी संख्या में जो लोग न्याय के लिए प्रतीक्षारत हैं, उनकी लोकतंत्र के प्रति आस्था तो डिगती ही है, उनके मन में न्यायपालिका को लेकर निराशा भी घर करती है। इसलिए और भी, क्योंकि आम लोगों को न्याय न केवल देर से मिल रहा है, बल्कि वह महंगा भी होता जा रहा है। महंगा न्याय किसी व्याधि से कम नहीं। तथ्य यह भी है कि लंबित मुकदमों का अंबार देश की प्रगति में बाधक बन रहा है।