चुनावी रेवड़ियां, सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को सहमत; दिख रहे सकारात्मक परिणाम के आसार
Supreme Court Freebies Culture चुनावी रेवड़ियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई करने जा रहा है। स्पष्ट है कि उसे शीघ्र ही ऐसे कोई आदेश-निर्देश देने होंगे जिनसे राजनीतिक दल बेहिसाब चुनावी वादे करने से बाज आएं। लोक-लुभावन चुनावी वादों के मामले में मुश्किल यह है कि जो वादे किसी के लिए जन कल्याणकारी हैं वही किसी अन्य के लिए मुफ्त की रेवड़ियां।
यह अच्छा है कि सुप्रीम कोर्ट राजनीतिक दलों की ओर से मुफ्त सुविधाएं और सामग्री देने के वादों पर कोई रोक-टोक लगाने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई करने के लिए सहमत हो गया, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वह इसके पहले भी इस विषय का संज्ञान ले चुका है, लेकिन उसका कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला।
उसने चुनावी रेवड़ियों के मामले में निर्वाचन आयोग को कदम उठाने को कहा था, लेकिन उसके पास ऐसे कोई अधिकार ही नहीं कि वह अनाप-शनाप वादे करने वाले दलों पर कोई लगाम लगा सके। यही कारण है कि उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। वे मतदाताओं को लुभाने के लिए ऐसे वादे करने में लगे हुए हैं, जिन्हें न तो पूरा करना संभव होता है और न ही आर्थिक हालात उन्हें ऐसा करने की अनुमति देते हैं।
इसका परिणाम यह होता है कि जब कभी रेवड़ियों का सहारा लेने वाले राजनीतिक दल सत्ता में आ जाते हैं तो वे अपने चुनावी वादों को या तो आधे-अधूरे ढंग से पूरा करते हैं या फिर केंद्र सरकार से उनके लिए धन की मांग करने लगते हैं। इससे भी बुरी बात यह होती है कि वे कर्ज लेकर अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क करने का काम करते हैं। वे नीति आयोग, रिजर्व बैंक आदि की ऐसी चेतावनियों की अनदेखी भी करते हैं कि चुनावी रेवड़ियां सरकारी खजाने पर अनावश्यक बोझ बढ़ा रही हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि ढेरों लोक-लुभावन वादे कर सत्ता में आईं हिमाचल, कर्नाटक और कुछ और राज्यों की सरकारें किस तरह अपनी अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए जोड़-तोड़ कर रही हैं।
चुनावी रेवड़ियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट एक ऐसे समय सुनवाई करने जा रहा है, जब लोकसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है और कई दल लोक-लुभावन वादे करने में जुट गए हैं। स्पष्ट है कि उसे शीघ्र ही ऐसे कोई आदेश-निर्देश देने होंगे, जिनसे राजनीतिक दल बेहिसाब चुनावी वादे करने से बाज आएं। लोक-लुभावन चुनावी वादों के मामले में मुश्किल यह है कि जो वादे किसी के लिए जन कल्याणकारी हैं, वही किसी अन्य के लिए मुफ्त की रेवड़ियां। जब तक जनकल्याणकारी योजनाओं और मुफ्त की रेवड़ियों को सही तरह परिभाषित किया नहीं जाएगा, तब तक उन पर लगाम लगाना संभव नहीं।
इसमें अंतर किया ही जाना चाहिए कि कौन सी योजनाएं लोगों को सचमुच आत्मनिर्भर बनाती हैं और कौन सामाजिक उत्थान के नाम पर उन्हें बैसाखी देने का काम करती हैं या फिर मुफ्तखोरी की संस्कृति को बल देती हैं। यदि ऐसा नहीं किया गया तो देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाए रखना कठिन होगा और इसके दुष्परिणाम लोगों को ही भोगने होंगे। राजनीतिक दलों को आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया वाले तौर-तरीके अपनाने से रोका ही जाना चाहिए। यह सही समय है कि आम लोग भी यह समझें कि वे रेवड़ियों के फेर में आकर अपना और साथ ही देश का अहित ही करते हैं।