नई दिल्ली, अनुराग मिश्र। जलवायु परिवर्तन में लगातार हो रहे बदलावों से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूप मौसम संबंधी खतरे बढ़े हैं। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) के अनुसार, दुनिया में 90% से अधिक आपदाओं और 43% बाढ़ का कारण हाइड्रोक्लाइमेटिक का चरम पर पहुंचना है। भारत उन 10 देशों में से एक है, जिसने बाढ़ की वजह से कई आपदाओं का सामना किया है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के शोधकर्ताओं के अध्ययन में सामने आया कि भविष्य में अत्यधिक वर्षा तेज होने का अनुमान है, लेकिन निकट और सुदूर भविष्य में औसत वर्षा में कमी आएगी। मध्य और पश्चिम भारतीय नदी घाटियां अधिक असुरक्षित होंगी।

बीएचयू के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है कि निकट भविष्य में गंगा बेसिन के निचले इलाकों में खेती पर सूखे की मार पड़ सकती है। शोधकर्ताओं ने इसके लिए औसत बारिश में आने वाली कमी को जिम्मेवार माना है। शोध से यह भी पता चला है कि निकट भविष्य में इस क्षेत्र में होने वाली औसत वर्षा में सात से 11 मिलीमीटर प्रतिदिन की उल्लेखनीय कमी आ सकती है।

रिपोर्ट में सामने आया कि क्षेत्रीय औसत वर्षा धीरे-धीरे बढ़ रही है। 21वीं सदी में अत्यधिक वर्षा के बढ़ने और तेज होने का अनुमान है, 2040 के दशक के बाद इसमें और अधिक वृद्धि होगी। भारत के पश्चिम की ओर बहने वाली नदी घाटियों और पश्चिमी घाटों पर अत्यधिक वर्षा की आवृत्ति निकट और मध्य भविष्य में बढ़ने वाली है, जबकि सिंधु और ऊपरी गंगा घाटियों पर तीव्रता हावी रहेगी। अत्यधिक वर्षा की तीव्रता के कारण, पश्चिमी घाट, सिंधु, पश्चिम और मध्य भारतीय रिवर बेसिन अत्यधिक असुरक्षित होंगे। इसके अलावा, पश्चिम की ओर बहने वाली नदी घाटियों में स्थित मुंबई और पुणे जैसे प्रमुख शहरों में भविष्य में बढ़ती वर्षा की चरम सीमा के कारण शहरों में बाढ़ की आशंका बढ़ जाएगी।

वैज्ञानिकों के मुताबिक वैश्विक स्तर पर जिस तरह से तापमान में वृद्धि हो रही है। उसके चलते दुनिया भर में बाढ़-सूखा जैसी हाइड्रो-क्लाइमेट आपदाओं का खतरा बढ़ रहा है। भारत भी इससे बचा नहीं है। यही वजह है कि शोधकर्ताओं ने अपने इस नए अध्ययन में भविष्य में बारिश के पैटर्न में आते बदलावों के चलते भारतीय नदी घाटियों में आने वाली बाढ़ और सूखा जैसी घटनाओं का जायजा लिया है।

रिसर्च से यह भी पता चला है कि कम उत्सर्जन परिदृश्य में 2060 तक पश्चिमी भारत में होने वाली भारी बारिश की तीव्रता चार से दस फीसदी तक बढ़ सकती है। हालांकि यदि अगले कुछ दशकों की बात करें तो यह वृद्धि मुख्य रूप से केवल राजस्थान के कुछ हिस्सों और पश्चिम की ओर बहने वाली नदी घाटियों में केंद्रित होगी।

हर दशक औसत 1.22% घट रही मानसून की बारिश, फसलों के लिए बढ़ा संकट

मौसम विभाग (IMD) के जर्नल मौसम में हाल में ही छपे एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि हर दशक में बारिश के दिनों में औसतन 0.23 फीसदी कमी दर्ज की गई है। अध्ययन के मुताबिक आजादी के बाद से अब तक देश में बारिश का समय लगभग डेढ़ दिन कम हो गया है। यहां बारिश के एक दिन का मतलब ऐसे दिन से है जिस दिन कम से कम 2.5 मिलीमीटर बारिश हुई हो। वैज्ञानिकों के मुताबिक पिछले एक दशक में एक्सट्रीम इवेंट्स भी काफी तेजी से बढ़े हैं।

आईएमडी जर्नल मौसम में प्रकाशित ये अध्ययन 1960 से 2010 के बीच मौसम के डेटा के आधार पर किया गया है। अध्ययन में पाया गया कि बारिश के लिए जिम्मेदार लो क्लाउड कवर देश में हर दशक में लगभग 0.45 फीसदी कम हो रहा है। खास तौर पर मानसून के दिनों में इनमें सबसे ज्यादा, 1.22 प्रतिशत कमी आई है।

मानसून में किस महीने में होती है कितनी बारिश

मौसम विभाग के अध्ययन के मुताबिक 1971 से 2020 के बीच आंकड़ों पर नजर डालें तो दक्षिण पश्चिम मानसून देश की कुल बारिश में लगभग 74.9 फीसदी की हिस्सेदारी रखता है। इसमें से जून महीने में लगभग 19.1 फीसदी बारिश होती है। वहीं जुलाई में लगभग 32.3 फीसदी और अगस्त में लगभग 29.4 फीसदी बारिश होती है। सितंबर महीने में औसतन 19.3 फीसदी बारिश दर्ज की जाती है।

कम बारिश और तापमान बढ़ने से घट रहा उत्पादन

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने देश के 573 ग्रामीण जिलों में जलवायु परिवर्तन से भारतीय कृषि पर खतरे का आकलन किया है। इसमें कहा गया है कि 2020 से 2049 तक 256 जिलों में अधिकतम तापमान 1 से 1.3 डिग्री सेल्सियस और 157 जिलों में 1.3 से 1.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की उम्मीद है। इससे गेहूं की खेती प्रभावित होगी। गौरतलब है कि पूरी दुनिया की खाद्य जरूरत का 21 फीसदी गेहूं भारत पूरी करता है। वहीं, 81 फीसदी गेहूं की खपत विकासशील देशों में होती है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर मेज एंड वीट रिसर्च के प्रोग्राम निदेशक डॉ. पीके अग्रवाल के एक अध्ययन के मुताबिक तापमान एक डिग्री बढ़ने से भारत में गेहूं का उत्पादन 4 से 5 मीट्रिक टन तक घट सकता है। तापमान 3 से 5 डिग्री बढ़ने पर उत्पादन 19 से 27 मीट्रिक टन तक कम हो जाएगा। हालांकि बेहतर सिंचाई और उन्नत किस्मों के इस्तेमाल से इसमें कमी की जा सकती है।

खाद्य जरूरतें पूरी करने में बढ़ेगी मिलेट्स की भूमिका

बारिश में कमी और बढ़ती गर्मी से गेहूं और धान जैसी पारंपरिक फसलों के उत्पादन पर असर पड़ा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि आने वाले दिनों में बाढ़, तेज बारिश और सूखे जैसी घटनाएं तेजी से बढ़ेंगी। ऐसे में खाद्य जरूरतों को पूरा करने में मिलेट्स महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सेमी एरिड ट्रॉपिक्स (इक्रीसैट) संस्था के ग्लोबल रिसर्च प्रोग्राम के डिप्टी डायरेक्टर डॉक्टर शैलेंद्र कुमार कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते बढ़ती गर्मी और असमय बारिश जैसे हालात में मिलेट्स खाद्य जरूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मिलेट्स के पौधों की जड़ें मजबूत होती हैं। तेज बारिश में भी इनका पौधा गिरता नहीं है। वहीं जड़ें गहरी होने के चलते सूखे के दौरान इनका पौधा पारंपरिक फसलों की तुलना में काफी समय तक जीवित रह जाता है। मिलेट्स के पौधे तेज गर्मी भी बर्दाश्त कर लेते हैं। ये पोषक तत्वों से भी भरपूर हैं। ऐसे में आम लोगों को बेहतर पोषण प्रदान करने के लिए भी ये एक बेहतर विकल्प है।

भारत के बाढ़ की राजधानी बनने की आशंका

पिछले 100 साल में देश के तापमान में 0.6 डिग्री की वृद्धि हुई है जिससे प्राकृतिक आपदाएं बढ़ गई हैं। रिपोर्ट कहती है कि इससे आने वाले समय में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा बाढ़ की घटनाएं भारत में दर्ज की जा सकती हैं। भारत फ्लड कैपिटल बन सकता है। वहीं देश में मानसून के दिनों की संख्या में गिरावट आ रही है, लेकिन एक दिन में बारिश का औसत बढ़ रहा है। इसका नतीजा बाढ़ में इजाफा होगा।

सूखाग्रस्त इलाके भी बढ़े

बाढ़ के साथ देश में सूखा भी बढ़ रहा है। सीईईडब्ल्यू की रिपोर्ट के मुताबिक 2005 से तुलना करें तो सूखा 13 गुना बढ़ गया है। देश के 68 फीसदी जिले (79 जिले) सूखे की चपेट में आ गए हैं। जबकि 2005 से पहले केवल 6 जिले औसतन सूखे के असर में रहते थे। पिछले एक दशक में अहमदनगर, औरंगाबाद, अनंतपुर, चित्तूर, बगलकोट, बीजापुर, चिक्काबल्लापुर, गुलबर्गा और हसन जिले सबसे ज्यादा सूखे की चपेट में आए हैं।

गेहूं और धान पर असर

बिहार कृषि विश्वविद्यालय के एसोसिएट डायरेक्टर रिसर्च प्रोफेसर फिजा अहमद कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज ने कृषि पर बड़ा प्रभाव डाला है। इससे मक्का जैसी फसल हर हाल में प्रभावित होगी क्योंकि वे तापमान और नमी के प्रति संवेदनशील हैं। उनके अनुमान के मुताबिक 2030 तक मक्के की फसल के उत्पादन में 24 फीसदी तक गिरावट की आशंका है। गेहूं भी इसकी वजह से काफी प्रभावित हो रहा है। वह बताते हैं कि अगर तापमान में चार डिग्री सेंटीग्रेड का इजाफा हो गया तो गेहूं का उत्पादन पचास फीसद तक प्रभावित हो सकता है।