नई दिल्ली, जागरण प्राइम। जलवायु परिवर्तन के असर से पूरी दुनिया प्रभावित है। मौसम में इसके प्रभाव अब साफ दिखने लगे हैं। मौसम में बदलाव का सबसे अधिक असर कृषि क्षेत्र में देखने को मिल रहा है। इस आपदा से निपटने के लिए कई समाधान भी है। जागरण कृषि पंचायत में एग्रो केमिकल फेडरेशन के प्रमुख कल्याण गोस्वामी, आईफॉरेस्ट के सीईओ चंद्रभूषण और टेरी के सतत कृषि प्रभाग में विशिष्ट फेलो डॉ. अरविंद कपूर ने क्लाइमेट चेंज का फसलों पर असर विषय पर अपने विचार रखें।

मॉडरेटर : क्लाइमेट चेंज की की जाए तो मौजूदा समय में बड़ा फैंसी शब्द हो गया है लेकिन खेती एक मात्र ऐसा मुद्दा है जिसमें कोई रेगुलेशन नहीं है। पर्यावरण को कैसे भी आप उसको डिफाइन किया जा रहा है। किसी खांचे में पर्यावरण सही से स्थापित नहीं है। आपकी राय में पर्यावरण के कौन-कौन से प्रमुख मुद्दे हैं।

चंद्रभूषण : आपने सस्टेनेबल एग्रीकल्चर पर यह मीटिंग आपने ऑर्गेनाइज की है। मैं पर्यावरण के फील्ड से आता हूं, पिछले 27 साल से पर्यावरण में काम कर रहा हूं लेकिन इस 27 साल में जब भी हमने पर्यावरण और कृषि की बात करने की कोशिश की है, एक रेगुलेटरी फ्रेमवर्क में बात करने का प्रयास किया, तो वह कभी वह मुद्दा आगे नहीं बढ़ा। सही मायने में अगर आप देखें तो आज के दिन में हम इंडस्ट्री को रेगुलेट करते हैं। भारत में कृषि में 50 फीसद जमीन, 80 फीसद पानी में जितना केमिकल हम इस्तेमाल करते हैं, वह बहुत है। 40 फीसद जितना केमिकल देश इस्तेमाल करता है वह कृषि में इस्तेमाल होता है। लेकिन इन मुद्दों का डिस्कशन कभी भी नहीं होता है क्योंकि हमेशा यह डिस्कशन होता है कि हमारे फार्मर छोटे हैं, हम उसको कैसे डील करेंगे। हम समझते हैं कि पर्यावरण का मुद्दा किसान भाइयों के इंटरेस्ट में नहीं है। हम उनको कमजोर समझते हैं कि वह पर्यावरण के मु्द्दों को आगे लेकर जा नहीं सकते हैं। मौजूदा समय में कार्बन क्रेडिट की बात हो रही है क्योंकि उसमें थोड़ा पैसा है।

हमारे बुनियादी एनवायरमेंटल के जो मुद्दे हैं पहले उन्हें हल करने की आवश्यकता है। मैं हमेशा 1970-80 के दशक में जाता हूं जिस समय मृदा संरक्षण बहुत काम हुआ था। 80 के दशक के बाद से आप इस देश में मृदा संरक्षण का नाम भी नहीं सुनेंगे। 70- 80 के दशक में किसानों के साथ सरकार काम कर रही थी, कोऑपरेटिव काम कर रही थी क्योंकि हमारे यहां मिट्टी का क्षरण बहुत ज्यादा है। मौजूदा समय में जो डिजर्टीफिकेशन हमारे देश में है वह मिट्टी के क्षरण के कारण है। बारिश तेजी से होने के कारण मिट्टी निकल जाती है। अगर तेज हवा चलेगी तो उससे मिट्टी निकल जाएगी। मृदा संरक्षण पर कोई काम नहीं हो रहा है। मौजूदा समय में जल संरक्षण पर काम काम सिर्फ मनरेगा में हो रहा है।

मॉडरेटर : बात हम खेती के संदर्भ में करें तो आज के दौर में सरकार का जो भी प्राकृतिक खेती की तरफ है। सर्वे भवंतु निरामया, सर्वे भवंतु सुखन: हमारे धर्म ग्रंथों की बात है हम उसी कांसेप्ट पर चीजों को आगे लेकर जा रहे हैं। अकॉर्बनिक से कॉर्बनिक की तरफ जाने की प्रक्रिया है। मौजूदा स्थिति में किस तरह की प्रक्रियाओं को अपनाने की आवश्यकता है।

अरविंद कपूर : एग्रीकल्चर को समझना जरूरी है। भारत में अभी हम 330 मिलियन टन अनाज उत्पादन कर रहे हैं। यह बहुत बड़ी अचीवमेंट है। हमारे 142 मिलियन हेक्टेयर एरिया में हम अलग-अलग फसल उत्पादित कर रहे हैं। हमारे एग्रीकल्चर में हम जितना फर्टिलाइजर डालेंगे, उतनी प्रोडक्टिविटी आएगी। अभी इस कांसेप्ट पर ही लोग काम कर रहे हैं। यूरिया पर सब्सिडी की वजह से पहले जहां किसान चार बैग डालता था, अब सात बैग डालता है क्योंकि बाकी फर्टिलाइजर महंगे हो गए हैं डीएपी महंगा हो गया है

अब सवाल यह उठता है कि क्या आज हम जो उत्पादित कर रहे हैं, अगर ऐसे ही चलता रहा तो क्या वह फ्यूचर जनरेशन के लिए प्रोड्यूस कर पाएंगे ? अभी जितनी भी टेक्नोलॉजी कृषि में आई है, उसमें हम नई वैराइटी डेवलप कर रहे हैं। मिट्टी में अगर हम फर्टिलाइजेशन या केमिकल से नेचुरल फार्मिंग या ऑर्गेनिक फार्मिंग की तरफ जाएंगे तो यह एक बेहतर प्रक्रिया होगी। इससे फायदा होगा। वहीं अगर सब जैविक खेती करेंगे और दूसरी खेती बंद कर देंगे तो इससे कोई समस्या हल नहीं होने वाली है। श्रीलंका का जो हाल हुआ है, वह हमारा भी हो जाएगा। इफको और टेरी ने नैनो फर्टिलाइजर्स निकाले हैं। हमारी प्रोसेस बायोजीन है। बॉयोलॉजिकल इज ए नेक्स्ट सॉल्यूशन। इसमें समय भले ही लगे, पर यह आवश्यक है। इसी फोकस से ही सस्टेनेबल एग्रीकल्चर को आगे ले जाएंगे।

मॉडरेटर : अगर हम बात क्लाइमेट चेंज की करते हैं तो उसको खेती के संदर्भ में सही से डिफाइन नहीं किया गया है। क्लाइमेट चेंज का एक पूरा चक्र है। क्लाइमेट चेंज खराब होगा तो इकोनॉमी पर असर पड़ेगा। हमारे देश में अधिकतर रकबे छोटे हैं उस संदर्भ में देखें तो किसानों की आजीविका प्रभावित होगी। आजीविका पर असर पड़ेगा तो उसे जुड़ी इंडस्ट्रीज है उन पर असर पड़ेगा। अमूमन हमारे देश में होता है कि सब्सिडी दे देते हैं लेकिन क्या यह स्थाई समाधान है। क्लाइमेट चेंज एक आपदा है जो हम सब देख रहे हैं। इसके बारे में किस तरह की ठोस नीति बननी चाहिए जिससे किसानों की आय भी बेहतर हो और स्थितियों से निपटा भी जा सकें।

कल्याण गोस्वामी : मैं असम से ताल्लुक रखता हूं। 14 अप्रैल को बैशाखी और बिहू होता है। हमारे यहा तो बिहू के दिन जमीन की पूजा होती है। पूजा करने के बाद धान की बुआई होती है लेकिन पिछले छह साल हम देख रहे हैं एक बूंद बारिश नहीं हो रही है। उड़ीसा में जगन्नाथ जगन्नाथ देव की रथ यात्रा के समय खेती चालू होती है क्योंकि उस दिन बहुत बारिश होती है। पिछले दो तीन साल से उस दिन बारिश नहीं हुई है। दिल्ली में भी क्लाइमेट चेंज का असर साफ दिख रहा है। जहां धान का खेती होना है वो भी नहीं हो पा रहा है, जहां गेहूं की खेती होनी है, वह भी नहीं हो पा रही है। मैं कहूंगा कि क्रॉप डायवर्सिफिकेशन करना चाहिए क्योंकि जो फसल सस्टेनेबल है, उसकी खेती करें। आजादी के बाद हमारे सामने फूड सिक्योरिटी की समस्या थी। हमने केमिकल फर्टिलाइजर और केमिकल कीटनाशक में काफी खर्च किया। हमने उसे प्रमोट किया है। उसका फायदा सबको मिला है। इससे खाद्य समस्या सिक्योर हो गई है। सॉयल टेस्टिंग फैसिलिटी काम की नहीं है। एग्रीकल्चर एक्सटेंशन को मजबूत करने की आवश्यकता है। यह किसान को क्रॉप को डायवर्सिफाई करने का ज्ञान देगा।

लोगों को सबल करने की आवश्यकता है कि किस समय कीटनाशक डालना है, किस समय नहीं डालना है। हम लोगों के धैर्य में कमी आई है। किसानों के भी धैर्य में कमी आई है। किसान कीड़ा देखते ही कीटनाशक डाल देते हैं। दो दिन में यदि कीड़ा खत्म नहीं होता है तो फिर कीटनाशक डाल देते हैं। उसके बाद वही फसल बाजार में भेज दी जाती है। उसमें एक तय मानक से अधिक कीटनाशक होता है। हमारे इसमें कृषि की बेहतरी को लेकर तकरीबन 73 मिशन है। मिशन सही से लागू नहीं हो पा रहे हैं।

कीटनाशकों की जैसे बात आपने की। कीटनाशकों का जो बेवजह इस्तेमाल होता है इससे सब वाकिफ है। कहा जाता है कि उससे फसलों की पैदावार बढ़ सकती है या कम हो सकती है। इसके अलावा उसके हेल्थ इंपैक्ट भी बहुत सारे होते हैं साथ ही कई बार किसानों को यह अज्ञानता होती है कि किस फसल में कितने कीटनाशक होते हैं। ऐसे में किस तरह की पुख्ता नीति की आवश्यकता है ?

चंद्रभूषण : एग्रीकल्चर एक्सटेंशन को एक डिजिटल वर्ल्ड की तरह से देखने की जरूरत है। आज के दिन में किसान मोबाइल फोन इस्तेमाल करता है। आज के दिन किसान यह भी देखता है कि मंडी में कितना दाम है। किसान को मौसम की जानकारी जल्दी मुहैया कराई जा सकें। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं फरवरी के महीने में उत्तर भारत में आलू की खेती निकलती है। उसी समय हेल स्टॉर्म का भी सीजन होता है। हमारे यहां प्रधानमंत्री का नेशनल मिशन है। क्लाइमेट चेंज पर मिशन ऑन सस्टेनेबल एग्रीकल्चर भी है। आप कृषि मंत्रालय से पूछ लीजिए मिशन का स्टेटस क्या है तो स्टेटस पेपर भी निकल कर नहीं आएगा। आज के दिन में हमारी मॉडलिंग कैपेसिटी इतनी बढ़ चुकी है कि हम इस बात का आकलन कर सकते हैं कि अगले 20 साल में क्लाइमेट चेंज किस तरह का होगा। दुनिया भर के शोधकर्ता इसी पर काम कर रहे हैं। मुझे किसी ने बताया था कि इतनी एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी है, आप उनमें चले जाइए और पूछिए क्लाइमेट मॉडलिंग पर कौन काम कर रहा है तो आपको बहुत सकारात्मक उत्तर नहीं मिलेगा। अगर हम क्लाइमेट रेजिलिएंट एग्रीकल्चर को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो हमें यह समझना पड़ेगा कि अगले 10 साल कैसा इंपैक्ट होने वाला है।

मॉडरेटर : हमारे देश में गर्मी की समयसीमा बढ़ गई है साथ ही सर्दियों के क्रम में भी बदलाव हो रहा है। सितंबर माह में बारिश बढ़ने लगी है। हमारे देश में क्लाइमेट के अनुरूप फसलों की आवश्यकता है साथ में क्या ऋतु चक्र परिवर्तन की आवश्यकता भी है ? क्या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस खेती में लाभप्रद हो सकती है। मौसम की पहले भविष्यवाणी करने,मिट्टी की टेस्टिंग आदि के बारे में यह टेस्टिंग कितनी लाभप्रद हो सकती है ?

अरविंद कपूर : मौसम का बदलाव हो रहा है। बारिश, गर्मी, सर्दी का क्रम बदला है। मौसम का प्रतिकूल असर फसलों पर पड़ेगा। गर्मी एकदम से बढ़ती है तो दाने झुलस जाते हैं। हम इसको सही से प्रबंधित करने की आवश्यकता है। गेहूं की अर्ली मैच्यूरिंग वैराइटी को हम अक्टूबर में लगाए और फरवरी में कटाई कर ले तो हम अत्यधिक गर्मी से बच पाएंगे। अगर फसलें कम अवधि की होगी तो उससे इसका मुकाबला किया जा सकता है। जीन एडिटिंग टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल भी संभव है इससे अधिक बारिश में भी फसलों पर असर नहीं पड़ेगा।