एस.के. सिंह, नई दिल्ली। हाल के वर्षों में भारत का विकास क्रम काफी उत्साहजनक और प्रभावशील रहा है। भारत न सिर्फ लगातार दुनिया की सबसे तेज गति वाली अर्थव्यवस्था बना हुआ है, बल्कि मौजूदा दशक में इसके अमेरिका और चीन के बाद तीसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी भी बन जाने की संभावना है। लेकिन इस विकास क्रम का लाभ सबको समान रूप से नहीं मिला। आईटी जैसे सेक्टर नई ऊंचाई छू रहे हैं तो कृषि और एमएसएमई जैसे अधिक रोजगार देने वाले सेक्टर का प्रदर्शन कमतर रहा है। इससे संपन्न और गरीब के बीच का अंतर भी बढ़ा है। जॉब मार्केट में स्किल्ड लेबर की कमी से व्यक्ति के साथ उद्योग की उत्पादकता भी प्रभावित हो रही है। क्षेत्रीय विषमता के कारण राज्य भी संपन्न और गरीब में बट गए हैं। सामाजिक असमानता भी है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी आवश्यक सेवाओं तक सबकी पहुंच एक समान नहीं है।

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ये चुनौतियां एक-दूसरे से जुड़ी भी हैं। जैसे, स्किल के अभाव में क्षेत्रीय विषमता बढ़ती है। विशेषज्ञों का कहना है कि समावेशी विकास भारत की इन चुनौतियों का समाधान बन सकता है। विकास का यह तरीका अपनाने से संसाधन और अवसर सबके लिए समान रूप से उपलब्ध होंगे, वर्कफोर्स की स्किल और जॉब मार्केट की डिमांड के बीच अंतर कम होगा और क्षेत्रीय-सामाजिक असमानता भी कम होगी। समावेशी विकास में ग्रोथ की गति बढ़ाने की भी क्षमता है, क्योंकि तब हर वर्ग की खर्च करने की क्षमता बढ़ेगी।

सिर्फ 51% वर्कफोर्स एंप्लॉयबल

आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 के अनुसार भारत की 27% आबादी 15 से 29 साल की है। एसएंडपी ग्लोबल मार्केट इंटेलिजेंस के मुताबिक विशाल वर्कफोर्स भारत को ग्लोबल डिजाइन और मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने में मदद कर सकती है। विकास के घरेलू लक्ष्य और सप्लाई चेन में विविधता के वैश्विक प्रयासों में भारत की वर्कफोर्स बड़ी भूमिका निभा सकती है। ये दोनों फैक्टर भारत की भू-राजनीतिक आकांक्षाओं को भी पूरा करेंगे, लेकिन श्रमिकों की स्किलिंग क्षमता और महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत है, ताकि इन लक्ष्यों को हासिल किया जा सके।

आरबीआई के डिप्टी गवर्नर माइकल देबब्रत पात्रा ने हाल ही एक भाषण में कहा, भारत के लिए चुनौती यह है कि “सिर्फ 51% वर्कफोर्स एंप्लॉयबल है। स्किल बढ़ाने की बड़ी जरूरत है, ताकि स्किल गैप कम हो और एंप्लॉयबिलिटी बढ़ाई जा सके।” पात्रा के अनुसार, “शिक्षित लेबर फोर्स का योगदान तभी श्रेष्ठ होता है जब इन्फ्रास्ट्रक्चर भी उच्च क्वालिटी का हो। भारत में प्रति व्यक्ति इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश की दर 2020 में 90.6 डॉलर थी। विश्व स्तरीय बनने के लिए इन्फ्रा में निवेश वृद्धि दर 3.5% से बढ़ा कर कम से कम 6% करने की जरूरत है। इसके लिए पारदर्शी रेगुलेशन, जल्दी क्लियरेंस और पर्याप्त फाइनेंस जरूरी है। नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) और पीएम गति शक्ति से इसमें तेजी आई है।”

एसएंडपी ने कहा है कि भारतीय युवाओं को स्किल की जरूरत है ताकि उन्हें नौकरी मिल सके और उनकी उत्पादकता बढ़े। एआई और रोबोटिक्स जैसी नई टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में स्किलिंग पर फोकस होना चाहिए। स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर करने और बढ़ाने की जरूरत है ताकि लोग ज्यादा उम्र तक काम कर सकें। शिक्षा, स्किलिंग, सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण तथा स्वच्छता जैसे बेहतर सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर से ज्यादा प्रोडक्टिव वर्कफोर्स तैयार होगी।

एसएंडपी ने सकारात्मक रुख रखते हुए लिखा है, “ऊंची बेरोजगारी दर और कम लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन के आंकड़े बताते हैं कि यहां की लेबर फोर्स का आने वाले वर्षों में काफी इस्तेमाल किया जा सकता है। भारत के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में कम स्किल वाले श्रमिक ज्यादा हैं, जबकि सर्विसेज में तुलनात्मक रूप से बेहतर स्किल वाले हैं। स्किल का स्तर बढ़ाकर भारत दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग हब बन सकता है।”

इसके मुताबिक सरकार ने मेक इन इंडिया, मेक फॉर द वर्ल्ड का जो लक्ष्य रखा है उसे, और लेबर एडवांटेज को देखते हुए वैश्विक कंपनियों के लिए यहां मैन्युफैक्चरिंग में निवेश करने का अच्छा अवसर है। अभी भारत की दो-तिहाई इकोनॉमी सर्विसेज पर निर्भर है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का अनुमान है कि यहां के 30.5% श्रमिक सर्विस सेक्टर में हैं।

दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स (दिल्ली यूनिवर्सिटी) के पूर्व प्रमुख सीनियर प्रोफेसर सुरेंद्र कुमार जागरण प्राइम से कहते हैं, “भारत के संदर्भ में देखे तो हमें समावेशी विकास चाहिए। यहां आज सबसे बड़ा सवाल रोजगार का है। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्र का संकट भी बड़ी समस्या है। अभी हमारी प्रति व्यक्ति औसत आय 2500 डॉलर के आसपास है, जिसे 14000 डॉलर पर लेकर जाना है। इसके लिए हमारे पास करीब 23 साल का समय है। इस हिसाब से देखें तो हमें 7.5 प्रतिशत से ज्यादा की विकास दर दो दशक तक लगातार चाहिए। दो दशक तक इतनी तेज ग्रोथ हासिल करना आसान नहीं है।”

नया स्किल हासिल करने लायक बनाना जरूरी

स्किल गैप दूर करने के लिए उच्च शिक्षा अहम है। टेक्नोलॉजी का विकास इतनी तेजी से हो रहा है कि कोई भी स्किल स्थायी नहीं हो सकता। ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के जिंदल स्कूल ऑफ गवर्मेंट एंड पब्लिक पॉलिसी में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर डॉ. अवनींद्र नाथ ठाकुर कहते हैं, “आज जो स्किल डिमांड में है कल उसकी जरूरत कम हो जाएगी, उसकी जगह मशीन ले लेगी। इसलिए उच्च शिक्षा बहुत जरूरी है। लोगों को इस लायक बनाना पड़ेगा कि वे कोई भी नया स्किल हासिल कर सकें।” उदाहरण के लिए, पहले इंजीनियरों की डिमांड हुई तो आईआईटी से इंजीनियर निकले। जब मैनेजमेंट की डिमांड निकली तो आईआईटी से निकले छात्र ही मैनेजमेंट की पढ़ाई करने लगे। उच्च शिक्षा है तो व्यक्ति खुद नई स्किल हासिल कर सकता है।

जेएनयू के रिटायर्ड प्रोफेसर और जाने-माने अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, “युवा शिक्षा में कमजोर होंगे तो उच्च क्वालिटी के काम नहीं कर पाएंगे। हमने शिक्षा में सुधार नहीं किया तो बहुत बड़ी मुसीबत में फंसेंगे। उच्च शिक्षा को बेहतर करना ही देश का भविष्य है। इसमें कमजोर पड़ने का मतलब है आरएंडडी में कमजोर पड़ना, और आरएंडडी में कमजोर हुए तो हम दुनिया में प्रतिस्पर्धी कैसे बनेंगे?”

वे कहते हैं, अगले कुछ वर्षों के दौरान युवाओं की संख्या काफी तेजी से बढ़ेगी। लेकिन दूसरी ओर, चैट जीपीटी जैसे टूल के एडवांस लेवल आने पर बहुत से स्किल्ड जॉब भी खत्म हो जाएंगे। डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंट के बहुत से काम मशीनें करने लगेंगी। कॉल सेंटर की नौकरियां कम रह जाएंगी क्योंकि वहां बॉट सवालों के जवाब देंगे। शिक्षकों की जरूरत कम रह जाएगी, बहुत से मेकैनिकल जॉब खत्म हो जाएंगे। वे सवाल करते हैं, “अभी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल शुरू हुआ है तब बेरोजगारी की यह हालत है, तो आगे चलकर जब मशीनों की भूमिका बढ़ेगी तब क्या होगा?”

विकास में हर वर्ग और क्षेत्र की हो साझेदारी

समावेशी विकास का सबसे बड़ा पहलू विकास में हर वर्ग की साझेदारी है। ठाकुर कहते हैं, “इसका मांग पर सीधा असर पड़ता है। अगर मांग में हर वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं होगा तो हर तरह की वस्तुओं की मांग भी नहीं होगी। कुछ चीजों में ग्रोथ होगी, कुछ में नहीं। कुछ लोग ही मांग को प्रभावित करेंगे। लांग टर्म में वह ग्रोथ सस्टेनेबल नहीं होगी।”

कम आय वाले कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च करते हैं, लेकिन अमीर लोगों की आमदनी के अनुपात में खपत की डिमांड बहुत कम होती है। वे पैसा खर्च करने के बजाय निवेश करते हैं। जरूरी है कि पैसे का वितरण दोनों वर्गों में हो। अगर शीर्ष 10% लोगों के पास ही ज्यादा संपत्ति हुई तो उससे मांग नहीं निकलेगी।

वे कहते हैं, “सिर्फ हर वर्ग की साझेदारी पर्याप्त नहीं, बल्कि हर क्षेत्र की साझेदारी जरूरी है। पर्यावरण, शहरों पर बोझ, माइग्रेशन की समस्याओं का प्रमुख कारण यह है कि चुनिंदा इलाके ही विकसित हो रहे हैं। हमें चुनिंदा बड़े औद्योगिक शहर या राज्य नहीं चाहिए। विकसित भारत का मतलब हर राज्य, हर क्षेत्र विकसित हो। वही सस्टेनेबल होगा।”

समावेशी विकास सिर्फ आर्थिक विकास नहीं है। यह भी जरूरी है कि देश का नागरिक कितना स्वस्थ और शिक्षित है, उसके आसपास का वातावरण कितना अच्छा है। आम लोगों की आमदनी का बड़ा भाग स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होता है। इससे कंजप्शन डिमांड कम होती है। ठाकुर बताते हैं, “एनएसएस के आंकड़े देखें तो लोगों के कर्ज का एक प्रमुख कारण स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च है। बीमार पड़ने पर लोग कर्ज लेते हैं और कर्ज नहीं चुका पाने पर काम की तलाश में माइग्रेट करते हैं। इस तरह यह माइग्रेशन का भी कारण बन जाता है।” आज भी देश के निचले 70% लोगों की आमदनी इतनी नहीं कि वे निजी क्षेत्र में शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च कर सकें। दूसरी तरफ, स्वस्थ व्यक्ति अर्थव्यवस्था में लंबे समय तक योगदान करता है। वह आमदनी का बड़ा भाग प्रोडक्टिव चीजों में खर्च करता है।

प्रो. सुरेंद्र कहते हैं, “आज हम पुराने तरीकों से नहीं चल सकते। यहां शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। हमने यूनिवर्सिटी तो बहुत सारी खोल दी हैं, इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज भी अनेक हो गए हैं, लेकिन अच्छी रेटिंग वाले संस्थान कितने हैं? आईआईटी-आईआईएम में भी जो पुराने हैं, उनका ही नाम आता है। हर यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स का विभाग है, लेकिन बड़ा नाम चुनिंदा यूनिवर्सिटी का ही है। हमने एम्स खोले तो बहुत लेकिन नाम सिर्फ दिल्ली एम्स का होता है। अनेक जगहों पर तो फैसिलिटी और फैकल्टी का अभाव है। हमें क्वालिटी शिक्षा बढ़ानी पड़ेगी।”

यूनिवर्सल शिक्षा और यूनिवर्सल हेल्थकेयर को जरूरी बताते हुए ठाकुर कहते हैं, “अमेरिका में आईटी रिवॉल्यूशन हुआ तो वही लोग शुरू में आए जो सार्वजनिक संस्थाओं से निकले थे। भारत में भी 1990 के दशक में आईटी का विकास हुआ तो उसमें सरकारी संस्थानों से निकले लोग ही पहले आए। ज्यादातर देशों में स्किल से जुड़ी जो भी क्रांति हुई उसमें सरकारी संस्थानों से निकले लोगों का योगदान बड़ा था।”

सरकारी संस्थान या मदद नहीं होने पर यह अवसर संभ्रांत लोगों तक सीमित हो जाएगा। निचले 70% लोग उस अवसर का लाभ उठाने से चूक जाएंगे। प्रतिभा हर वर्ग में होती है। इसलिए हमें ऐसी नीति अपनानी पड़ेगी जिससे हर वर्ग की प्रतिभा को सामने लाकर उसका इस्तेमाल किया जा सके।

आय में अंतर से अस्थिरता

आय में अंतर अधिक होने पर इकोनॉमी में अस्थिरता भी अधिक होती है। 1980 के दशक में मार्गरेट थैचर और रोनाल्ड रीगन के उद्भव के साथ आधुनिक पूंजीवाद का उदय हुआ जिसमें बड़े उद्योगपतियों को अनेक सुविधाएं दी गईं। उसे दौर में बड़े उद्योगपति बने और फाइनेंशियल सेक्टर का काफी विस्तार हुआ, लेकिन उससे असमानता और आर्थिक संकट भी बढ़े।

ठाकुर के अनुसार, उस दौर से पहले 50 वर्षों में जितने आर्थिक संकट आए, उससे कहीं ज्यादा संकट उसके बाद की अवधि में हम देख चुके हैं। ग्रोथ में भी स्थिरता नहीं है। असमानता अधिक होने पर मांग-आपूर्ति का अंतर बहुत बढ़ जाता है। इस तरह एक दुष्चक्र बन जाता है।

ग्रामीण इकोनॉमी को भी मजबूत करना जरूरी है। हमारी आधी लेबर फोर्स कृषि में है। अगर वहां मांग नहीं निकलेगी तो इंडस्ट्री सामान बनाकर भी क्या करेगी, कौन खरीदेगा? अभी भारत जिस स्थिति में है, उसमें बहुत जरूरी है कि कृषि को सस्टेनेबल बनाया जाए।

इंडस्ट्री भी इनक्लूसिव हो

आरबीआई के पूर्व गवर्नर और जाने-माने अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने फाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा है, “अगर सरकार युवाओं को रोजगार का कौशल दे और श्रम सघन सेक्टर में छोटे-मझोले उपक्रमों को रिवाइव करे तो आर्थिक विकास अधिक समावेशी होगा।”

छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने के सवाल पर ग्लोबल रिसर्च फर्म नेटिक्सिस की चीफ इकोनॉमिस्ट (एशिया पैसिफिक) एलिसिया गार्सिया हेरेरो (Alicia Garcia Herrero) जागरण प्राइम से कहती हैं, “इसके लिए फाइनेंशियल सेक्टर को भी उदार बनाना महत्वपूर्ण है। अभी ज्यादातर लोन निजी क्षेत्र की बड़ी कंपनियों या सरकारी कंपनियों को मिलते हैं। छोटी-मझोले उपक्रमों के लिए कर्ज लेना समस्या है।”

ठाकुर के अनुसार, बड़े उद्योग जरूरी हैं लेकिन सिर्फ बड़े उद्योगों के बल पर कोई देश औद्योगिक नहीं बन सकता है। चीन और ताइवान में इंडस्ट्री का विस्तार गांवों तक हुआ है। गांवों में सेमीकंडक्टर बन रहे हैं। इसके लिए लोगों को प्रशिक्षित किया गया है। बड़े उद्योग पूंजी सघन हो गए हैं। उनमें निवेश के अनुपात में कम रोजगार मिलता है। इसलिए उद्योगों का भी विकेंद्रीकरण करने और छोटी जगहों पर उनका विस्तार करने की जरूरत है।

असंगठित से संगठित की ओर जाने की जरूरत

इकोनॉमी में संगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ाकर भी कई चुनौतियों को दूर किया जा सकता है। पात्रा के अनुसार, भारत की 80% से ज्यादा वर्कफोर्स असंगठित क्षेत्र में है। उन्होंने कहा, “भारत का भविष्य नौकरियों को संगठित बनाने में है। इस लिहाज से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की भूमिका केंद्रीय हो जाती है।” वर्ष 2021-22 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 2019-20 में जो नई वर्कफोर्स आई उनमें 98% असंगठित क्षेत्र में गई। वर्ष 2019-20 में 89% वर्कफोर्स असंगठित क्षेत्र में थी।

दिसंबर 2022 के आरबीआई बुलेटिन के अनुसार वर्ष 2020-21 में भारत के जीवीए (ग्रॉस वैल्यू एडेड) में असंगठित क्षेत्र का हिस्सा 43.5% था। एक दशक पहले, 2011-12 में यह 45.5% था। यानी एक दशक में इसमें सिर्फ दो प्रतिशत की कमी आई। उस एक दशक में संगठित क्षेत्र औसतन 9.5% की नॉमिनल दर से आगे बढ़ा। असंगठित क्षेत्र में यह दर 8.9% थी। वर्ष 2020-21 में महामारी के दौरान असंगठित क्षेत्र का जीवीए 3.9% कम हुआ जबकि संगठित क्षेत्र के जीवीए में 0.2% की वृद्धि हुई।

ज्यादातर असंगठित गतिविधियां चार सेक्टर- कृषि-वानिकी-मछली पालन, कंस्ट्रक्शन, ट्रेड-रिपेयर-होटल-रियल एस्टेट तथा प्रोफेशनल सर्विसेज में हैं। एक दशक में कृषि, खनन, बिजली और कंस्ट्रक्शन को छोड़कर बाकी सभी सेक्टर में असंगठित क्षेत्र का हिस्सा कम हुआ है। वर्ष 2020-21 में संगठित क्षेत्र का मैन्युफैक्चरिंग का नॉमिनल जीवीए 2.6% बढ़ा तो असंगठित क्षेत्र का 16.6% कम हो गया।

वर्ल्ड बैंक (2021) के मुताबिक उभरते और विकासशील देशों में असंगठित क्षेत्र जीडीपी में एक-तिहाई योगदान करता है, लेकिन रोजगार में इसकी 70% हिस्सेदारी है। आईएलओ डेटाबेस के अनुसार भारत में 88% रोजगार असंगठित है जबकि ब्रिक्स देशों का औसत 49% है। वर्ष 2019 में 12% रोजगार संगठित था, जबकि दक्षिण अफ्रीका में 65%, ब्राजील में 52% और रूस में 79% रोजगार संगठित थे।

हर साल 1.65 करोड़ नौकरियां सृजित करने की जरूरत

ग्लोबल मार्केट रिसर्च और इन्वेस्टमेंट बैंकिंग फर्म नेटिक्सिस के सीनियर इकोनॉमिस्ट ट्रिन गुयेन (Trinh Nguyen) का कहना है, वर्ष 2030 तक दुनिया के हर पांच वर्किंग एज लोगों में एक भारतीय होगा। अभी लोगों को स्किल से कमतर काम करना पड़ रहा है। स्किल के मुताबिक लोगों को काम देने और नई लेबर फोर्स को खपाने के लिए 2030 तक 11.5 करोड़ नौकरियों की जरूरत होगी। हर साल 1.65 करोड़ नौकरियां सृजित करने की जरूरत होगी और इसमें से 1.04 करोड़ औपचारिक क्षेत्र में होने चाहिए। इसके लिए मैन्युफैक्चरिंग से लेकर सर्विसेज तक, हर क्षेत्र में बड़े प्रयास करने होंगे।

गुयेन के अनुसार, बिजनेस सर्विस सेगमेंट के निर्यात में वृद्धि की गुंजाइश तो है लेकिन इसमें हाई स्किल वाले चाहिए और नौकरियों की संख्या भी कम है। उदाहरण के लिए पूरे आईटी सेक्टर में 50 लाख लोग काम करते हैं। आईएलओ की 2024 की लेबर रिपोर्ट के अनुसार पूरे आईसीटी, फाइनेंशियल और बिजनेस सर्विस सेक्टर में 2.3 करोड़ लोग काम करते हैं। दूसरी ओर, मैन्युफैक्चरिंग में 6.3 करोड़ तथा कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में 6.8 करोड़ लोग हैं।

समावेशी विकास के लिए हर क्षेत्र में प्रयास करने होंगे। गुयेन के मुताबिक, “जीडीपी और नौकरियों में योगदान के अनुपात के आधार पर कहा जा सकता है कि अगर सर्विस सेक्टर पर जोर दिया भी गया तो इसमें ज्यादा लोगों को खपाया नहीं जा सकेगा। कृषि क्षेत्र में 24.7 करोड़ लोग काम कर रहे हैं, उन्हें खपाने के लिए हर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन करने की आवश्यकता होगी।”