एस.के. सिंह, नई दिल्ली। समावेशी विकास के रास्ते भारत को विकसित देश बनाने में छोटे-मझोले उद्योगों (एमएसएमई) की अहम भूमिका है। विशेषज्ञ तो यहां तक कहते हैं कि एमएसएमई पर फोकस किए बिना भारत विकसित देश नहीं बन सकता। देश के 6.4 करोड़ एमएसएमई रोजगार बढ़ाने में बड़ा योगदान कर सकते हैं, खास कर ग्रामीण इलाकों में जिससे घरेलू खपत बढ़ेगी। सस्ते इनोवेशन का हब बन कर ये मैन्युफैक्चरिंग निर्यात में भारत की भागीदारी बढ़ा सकते हैं। ग्रामीण इलाकों में इकाइयां लगने से माइग्रेशन कम होगा, इकोनॉमी संतुलित होगी और वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी। लेकिन यह सब हासिल करने के लिए कुछ चुनौतियों से निपटना जरूरी है। छोटे उपक्रमों के लिए जगह का खर्च बहुत अधिक होता है, टेक्नोलॉजी के मामले में वे सालों पीछे हैं और इन सबसे निपटने के लिए उन्हें बैंक से कर्ज लेने में भी समस्या आती है। विशेषज्ञ पुरानी रेगुलेटरी व्यवस्था को भी उनके विस्तार में बाधक मानते हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था में छोटे-मझोले उपक्रमों के महत्व का अंदाजा इन आंकड़ों से मिलता है। एमएसएमई मंत्रालय की तरफ से दिसंबर 2023 में राज्यसभा में दी गई जानकारी के अनुसार जीडीपी में इनकी 29%, मैन्युफैक्चरिंग में 41% और निर्यात में 45% हिस्सेदारी है। मंत्रालय के उद्यम पोर्टल पर (27 जून 2024 तक) 4.63 करोड़ एमएसएमई रजिस्टर्ड हैं जिनमें 20 करोड़ से ज्यादा लोग काम करते हैं। रजिस्टर्ड उद्यमों में 67,474 मझोले आकार वाले हैं।

चॉइस आंत्रप्रेन्योरशिप हो, मजबूरी में नहीं

सरकारी और कॉरपोरेट सेक्टर मिलाकर संगठित क्षेत्र में कुल 10% रोजगार हैं- 3% सरकारी में और 7% कॉरपोरेट में। बाकी लोग या तो कृषि क्षेत्र में हैं या फिर स्वरोजगार में। इनमें स्वरोजगार वालों के पास काम करने वाले भी शामिल हैं। छोटे-मझोले उद्योगों की संस्था फिस्मे (FISME) के सेक्रेटरी जनरल अनिल भारद्वाज के अनुसार, कृषि में मशीनीकरण बढ़ने से श्रमिक सरप्लस हो रहे हैं, लेकिन उनके पास शहर जाने के लिए रोजगार के उतने साधन नहीं हैं। सिवाय कंस्ट्रक्शन, ड्राइविंग, छोटे-मोटे रेस्तरां जैसे सर्विस सेक्टर के निचले पायदान पर जाने के।

वे कहते हैं, “समस्या यह है कि भारत में ज्यादातर आंत्रप्रेन्योरशिप पसंद से नहीं, बल्कि थोपी गई है। उन्हें नौकरी नहीं मिली तो आजीविका चलाने के लिए कुछ न कुछ कर रहे हैं। विकसित बनने के दो उपाय हैं। एक तो हमें चॉइस आंत्रप्रेन्योरशिप में जाना पड़ेगा, यानी लोग अपनी पसंद से उद्यमी बनें। दूसरा, कॉरपोरेट सेक्टर में ज्यादा नौकरियों का सृजन करना पड़ेगा।”

“लेकिन कॉरपोरेट सेक्टर ने तो एक तरह से कह दिया है कि वहां ज्यादा रोजगार की गुंजाइश नहीं है क्योंकि वे पूंजी-सघन हो रहे हैं। वहां प्रति यूनिट निवेश के अनुपात में श्रमिकों की संख्या कम हो रही है। मशीनीकरण बढ़ने से यह अनुपात और कम होगा। जहां तक कृषि की बात है तो उसमें आय बढ़ाने के प्रयास पूरी दुनिया में हुए, लेकिन उसकी एक सीमा है। इसलिए कृषि में पूरी दुनिया में रोजगार कम हुआ है, यहां भी होना है।”

भारद्वाज के अनुसार, “ऐसे में सिर्फ स्वरोजगार और उनके पास काम करने वाला सेगमेंट ही बच जाता है जिसमें रोजगार और इनकम बढ़ाई जा सकती है। इसलिए एमएसएमई पर फोकस किए बिना भारत विकसित देश नहीं बन सकता।” हमारे पास दुनिया में सबसे ज्यादा 6.4 करोड़ एमएसएमई उद्यमी हैं, लेकिन इनमें अपनी पसंद से कितने उद्यमी बने हैं? लोग अपनी पसंद से उद्यमी बनें इसके लिए बहुत से सुधारों की जरूरत है।

भारत में 6.4 करोड़ एमएसएमई होने के बावजूद बिजली का इंडस्ट्रियल कनेक्शन पूरे देश में सिर्फ 35 लाख है। इसमें कोल्ड स्टोरेज, सिनेमा, मॉल आदि को निकाल दें तो करीब 30 लाख मैन्युफैक्चरिंग उद्यमी बचते हैं। भारद्वाज एक और तथ्य बताते हैं, “10 से ज्यादा कर्मचारी वाले उद्योगों की संख्या सिर्फ 2.5 लाख है। इनमें सरकारी कंपनियां और कॉरपोरेट भी शामिल हैं। इन्हें हटा दें तो 10 से ज्यादा कर्मचारी वाली सिर्फ 2.25 लाख फैक्ट्रियां हैं।” भारत के आकार के लिहाज से यह संख्या बहुत कम है।

फैक्ट्री क्यों नहीं लगाना चाहते लोग

सवाल उठता है कि जब हमारा घरेलू बाजार इतना बड़ा है, हम चीन से बहुत सारी चीजें आयात करते हैं, तो यहां वे चीजें क्यों नहीं बना सकते? लोग फैक्ट्री क्यों नहीं लगाना चाहते?

दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के सीनियर प्रोफेसर सुरेंद्र कुमार समावेशी विकास में पूंजी-सघन आधुनिक इंडस्ट्री के साथ श्रम-सघन इंडस्ट्री को भी साथ लेकर चलने की बात कहते हैं। उनके मुताबिक, इस तरह की ज्यादातर इंडस्ट्री एमएसएमई सेगमेंट में हैं। आज वे लागत के लिहाज से प्रतिस्पर्धी नहीं हैं। इस वजह से उन्हें बाजार में समस्या आती है। प्रो. सुरेंद्र की राय में, “हमें थोड़ा अलग तरीके से सोचना पड़ेगा। हमें देखना होगा कि संसाधनों को इकट्ठा करके बड़े स्केल पर कैसे ले जाया जाए। इसका ढांचा कुछ हद तक कोऑपरेटिव जैसा हो सकता है।”

भारत में मैन्युफैक्चरिंग में छोटी कंपनियों की संख्या बहुत है। उन्हें स्केल का फायदा नहीं मिल पाता। फिस्मे के अनुसार, साझा उपक्रम और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के माध्यम से हजारों प्रोडक्ट कैटेगरी में टेक्नोलॉजी गैप दूर करने के लिए भारत को न्यूनतम इकोनॉमी स्केल वाले कम से कम दो लाख उपक्रमों की जरूरत है।

भारद्वाज चार प्रमुख चुनौतियां मानते हैं- महंगी जगह, पुरानी रेगुलेटरी व्यवस्था, फाइनेंस की समस्या और टेक्नोलॉजी की कमी। वे विस्तार से बताते हैं, “सबसे बड़ी समस्या जगह की है। उदाहरण के लिए नोएडा-ग्रेटर नोएडा में कहीं भी प्लांट लगाने का प्लॉट तीन-चार करोड़ रुपये से कम में नहीं मिलेगा, जबकि मशीन की कीमत एक करोड़ रुपये तक होगी। एमएसएमई सेगमेंट में नई यूनिट बहुत कम आने का यह एक बड़ा कारण है।”

चीन ने इसका रास्ता निकाला था। उसने जगह-जगह प्लग एंड प्ले वर्कशॉप स्थापित कर दीं। उनका किराया भी बहुत कम रखा। कुछ शेड तो 10 युवान प्रतिदिन किराये पर मिलते थे। यानी 3000 रुपये प्रति माह किराये पर 500 गज का इंडस्ट्री शेड मिल जाता था। उनमें बिजली-पानी आदि का कनेक्शन पहले से होता है।

भारद्वाज के अनुसार, “हमारी रेगुलेटरी व्यवस्था बहुत पुरानी है। चाहे वह फायर एक्ट हो, वेट एंड मेजर या इन्सॉलवेंसी एक्ट हो। प्रोपराइटरशिप या पार्टनरशिप फर्मों के लिए अब भी इन्सॉलवेंसी का कोई रास्ता नहीं है। व्यक्तिगत इन्सॉलवेंसी का एक्ट 1920 का है।”

वे बताते हैं, “नियम बना कि महिला कर्मचारी प्रेगनेंट होने पर उन्हें नौ महीने की सैलरी देनी पड़ेगी। लेबर फोर्स में महिलाओं की भागीदारी पहले ही कम थी, इस नियम के बाद और कम हो गई। इस तरह की सामाजिक सुरक्षा जरूरी है, लेकिन उसका सारा बोझ निजी क्षेत्र पर नहीं दिया जाना चाहिए। उद्यमी इन सबसे बचने के लिए ट्रेडिंग (आयात कर बेचने) का आसान रास्ता चुन लेता है।”

टेक्नोलॉजी और फाइनेंस की कमी

एमएसएमई सेगमेंट में व्यापक टेक्नोलॉजी अपग्रेडेशन की जरूरत है। भारद्वाज के अनुसार, टेक्नोलॉजी में हम बेसिक गुड्स में भी 10 से 20 साल पीछे हैं। हम इलेक्ट्रिकल या इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान आयात करते हैं। पहले पंखे दिल्ली, पंजाब, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में बनते थे। लेकिन अब 90% पंखे चीन से आयात होते हैं। उनकी डिजाइन और क्वालिटी भी बेहतर होती है।

इलेक्ट्रॉनिक्स को छोड़ दें तो चीन से आयात होने वाली अनेक वस्तुएं एमएसएमई सेक्टर की हैं। इनमें कपड़े, इलेक्ट्रिकल समान, हार्डवेयर, फर्नीचर, सजावटी सामान, बर्तन, खिलौने इत्यादि शामिल हैं। चीनी कंपनियों ने क्वालिटी बढ़ाने के साथ कीमत भी कम किया और एमएसएमई के बाजार में छा गए। वर्ष 2000-01 से 2023-24 तक भारत का कुल आयात 13.5 गुना बढ़ा, लेकिन चीन से आयात में 68 गुना बढ़ोतरी हुई है।

फिस्मे के मुताबिक, भारत में 3000 से ज्यादा टैरिफ लाइन एमएसएमई से जुड़ी हैं। ऐसे उत्पादों की पहचान की जानी चाहिए जो आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। उनमें प्रौद्योगिकी की कमी का विश्लेषण किया जाना चाहिए। चीन ने दक्षिण कोरिया, ताइवान और जापान से टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के माध्यम से इस अंतर को दूर किया था। ग्लोबल वैल्यू चेन में बदलाव को देखते हुए यही तीनों देश भारत के लिए सबसे अच्छे साबित हो सकते हैं। दक्षिण कोरिया अपने एसएमई को भारत में प्रोत्साहित कर रहा है। भारत में इस समय 600 से ज्यादा दक्षिण कोरियाई छोटे-मझोले उपक्रम हैं। 10 साल की नीति बनाकर इंडस्ट्री क्लस्टर में उसे लागू किया जाना चाहिए।

फाइनेंशियल सेक्टर में रिफॉर्म को जरूरी बताते हुए भारद्वाज कहते हैं, “देश की लगभग 70% बैंकिंग पब्लिक सेक्टर में है, जिनका मालिकाना हक एक (सरकार) के पास है। इनका कामकाज पूरी तरह सरकार पर निर्भर करता है। सरकार मुद्रा योजना के लिए कहेगी तो सब उसमें लग जाएंगे। ये बैंक बाजार आधारित तथ्यों के आधार पर कर्ज नहीं देते। इसमें सुधार की जरूरत है।” फिस्मे के मुताबिक, फाइनेंशियल मार्केट में प्रतिस्पर्धा लाने की जरूरत है ताकि अच्छे विचारों को पूंजी मिल सके। क्वालिटी प्रोडक्ट की सरकारी खरीद भी उद्यमियों के लिए क्वालिटी में निवेश करने का बड़ा इंसेंटिव हो सकती है।

मांग बढ़ाने की जरूरत

ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के जिंदल स्कूल ऑफ गवर्मेंट एंड पब्लिक पॉलिसी में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर डॉ. अवनींद्र नाथ ठाकुर कुछ और कारण बताते हैं, “नोटबंदी से छोटे उद्योगों पर प्रभाव पड़ा। वे जीएसटी के साथ भी एडजस्ट नहीं कर पाए। इन सब का डिमांड पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। छोटे उद्योग ज्यादातर असंगठित क्षेत्र में हैं। वे डिमांड को लेकर काफी संवेदनशील होते हैं। इंडस्ट्रियल गुड्स की डिमांड नहीं होगी तो इंडस्ट्री उसे बेचेगी कहां? ऐसे में इंडस्ट्री का विस्तार सीमित हो जाता है।”

ठाकुर के अनुसार, “इकोनॉमी में संगठित क्षेत्र का अनुपात अधिक होना चाहिए। अगर हम विकसित होना चाहते हैं तो रिकॉर्डेड आर्थिक गतिविधियों का होना भी जरूरी है, क्योंकि संगठित क्षेत्र में उत्पादन और रोजगार दोनों की क्वालिटी बेहतर होती है, लोगों को सामाजिक सुरक्षा मिलती है।”

फिस्मे का यह भी कहना है कि बड़ी और मझोली कंपनियों पर कंप्लायंस के बोझ एक समान नहीं होने चाहिए। कंप्लायंस में लिस्टेड और अनलिस्टेड कंपनियों में कोई फर्क नहीं किया गया है। कंपनी कानून के तहत अनलिस्टेड कंपनियों के लिए भी स्वतंत्र और महिला निदेशकों की नियुक्ति जरूरी की गई है। उन्हें कॉस्ट अकाउंटेंट इत्यादि रखने की भी मजबूरी होती है।

आने वाले समय फार्मा और मेडिकल उपकरण, डिफेंस और एयरोस्पेस, इलेक्ट्रिक वाहन, ग्रीन एनर्जी, मेडिकल टूरिज्म, टेलीकॉम, आईटी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे अनेक सेक्टर भारत में विकास की गति को बढ़ाएंगे। लेकिन एमएसएमई हर सेक्टर में मौजूद हैं। इसलिए उनकी चुनौतियां दूर करके विकास की गति बढ़ाई जा सकती है।

प्रो. सुरेंद्र के अनुसार, भारत को विकास की ऐसी नीति अपनाने की जरूरत है जो बाजार दक्षता के फायदे देने के साथ राष्ट्रीय हितों का भी ख्याल रखे। भारत न सिर्फ विकसित बने, बल्कि विकास समावेशी हो। वे कहते हैं, “बाजार ताकतें शून्य में काम नहीं करती हैं। बाजार की सफलता और क्षमता संस्थानों के गठन और उन्हें अधिकार देने पर निर्भर करती है। इन्फ्रास्ट्रक्चर पर सरकार का खर्च, रेगुलेशन और नीतियां बाजार को आकार देती हैं। विकास की नीति इन मौलिक सिद्धांतों के मुताबिक होंगी तो भारत 2047 तक समावेशी विकसित देश बन सकता है।”

समावेशी विकास के लिए समाज के हर वर्ग और अर्थव्यवस्था के हर सेक्टर को साथ लेने की जरूरत है। चाहे वह कुटीर उद्योग हो, एमएसएमई हो, अकुशल श्रमिक हों या मध्य वर्ग हो।