स्कन्द विवेक धर, नई दिल्ली। पिछले महीने साउथ अफ्रीका में हुई ब्रिक्स की बैठक में शामिल होने के बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने जब 9-10 सितंबर को दिल्ली में आयोजित जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन में आने से इनकार कर दिया तो इसे भारत के लिए एक बड़े झटके के रूप में माना जा रहा था। रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन पहले ही दिल्ली आने से इनकार कर चुके थे। ऐसे में जिनपिंग की गैर-मौजूदगी से आशंका थी कि भारत के अध्यक्षता में हो रही जी-20 की बैठक अपना महत्व खो देगी। लेकिन शिखर सम्मेलन समाप्त होते-होते हालात पूरी तरह बदल गए। भारत वैश्विक स्तर पर अपनी लीडरशिप की छाप छोड़ने में कामयाब हो गया, जबकि चीन ने कई बड़े मौके गंवा दिए।

कजाकिस्तान, स्वीडन और लातविया में राजदूत रह चुके भारतीय विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी अशोक सज्जनहार ने जागरण प्राइम से बातचीत में कहा कि शी जिनपिंग के भारत न आने से चीन का नुकसान और भारत का फायदा हुआ। उन्होंने कहा, अगर जिनपिंग भारत आते तो ज्यादातर चर्चा उनके, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ असहज मुलाकातों, द्विपक्षीय बातचीत आदि के इर्दगिर्द ही घूमती रहती, लेकिन जिनपिंग के न आने से जी-20 में सारा फोकस भारत की अध्यक्षता पर रहा।

शिखर सम्मेलन में चीनी राष्ट्रपति की गैर-मौजूदगी ने भारत को सेंट्रल स्टेज पर खेलने का मौका दे दिया। भारत ने जब 55 अफ्रीकी देशों के संगठन अफ्रीकी यूनियन को जी-20 का नया सदस्य घोषित किया तब इसका 100 फीसदी श्रेय भारत को मिल गया।

सज्जनहार कहते हैं, चीन अपने आप को ग्लोबल साउथ और खासतौर पर अफ्रीका का सबसे बड़ा पैरोकार बताता है, लेकिन जी-20 में अफ्रीकी यूनियन के शामिल होने का पूरा श्रेय भारत को मिल गया, क्योंकि इस महत्वपूर्ण मौके पर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग मौजूद ही नहीं थे, जो कि इस उपलब्धि पर बराबर का दावा कर सकते थे।

जानकार कहते हैं, जी-20 के शिखर सम्मेलन से इतर भारत-मिडल ईस्ट-यूरोप इकनॉमिक कॉरिडोर का ऐलान चीन एक लिए एक बड़ा झटका है। यह चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) को तो सीधी चुनौती है ही, यह खाड़ी देशों में चीन की कूटनीतिक पराजय भी है। धुर विरोधी सऊदी अरब और ईरान के बीच सुलह करा के चीन ने खाड़ी देशों में तेजी से पैठ बनाई थी। ऐसा लग रहा था कि सऊदी अरब चीन की ओर झुक रहा है। लेकिन भारत-मिडल ईस्ट-यूरोप इकनॉमिक कॉरिडोर में शामिल होकर सऊदी अरब ने चीन की मंशा पर पानी फेर दिया।

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सिंगापुर में एस राजरत्नम स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के सीनियर फेलो रैफैलो पंटुकी के मुताबिक, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी जिनपिंग की गैर-मौजूदगी का पूरा फायदा उठाया। बाइडेन जी-20 के दौरान विकासशील देशों के साथ संबंध बढ़ाने में कामयाब रहे। उन्होंने भारत को सेंट्रल स्टेज में बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यदि जिनपिंग नई दिल्ली में मौजूद होते तो ऐसा नहीं हो पाता।

भारत की साख को नुकसान पहुंचाने की चीन की मंशा उस समय ध्वस्त हो गई, जब दिल्ली घोषणा-पत्र को लेकर सभी देशों में आम सहमति बन गई। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इसके लिए चीन समेत सभी देशों को आभार जताया था। इससे पहले, केंद्र सरकार ने शी जिनपिंग की अनुपस्थिति को मुद्दा मानने से भी इनकार कर दिया था। जयशंकर ने इस मामले पर आए एक सवाल के जवाब में कहा था कि यह प्रत्येक देश को तय करना है कि उनका प्रतिनिधित्व किस स्तर पर होगा। मुझे नहीं लगता कि किसी को इसके ज्यादा मायने निकालने चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जानकार मानते हैं कि शी जिनपिंग भले ही भारत की छवि को धक्का पहुंचाने की नीयत से जी-20 शिखर सम्मेलन से दूर रहे हों, लेकिन इसके चक्कर में उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलने का मौका गंवा दिया। एशिया सोसाइटी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के सेंटर फॉर चाइना एनालिसिस के कार्यकारी निदेशक बेट्स गिल कहते हैं, चीनी राष्ट्रपति निश्चित रूप से जी-20 में बाइडेन से मिलने का एक मौका चूक गए। चीन और अमेरिका के बीच चल रही तनातनी को कम करने का यह मौका हो सकता था।

सैन फ्रांसिस्को में नवंबर में आयोजित होने जा रही एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग (APEC) की बैठक में शी जिनपिंग और जो बाइडेन की मुलाकात की उम्मीद है। हालांकि इस पर भी अब सवाल उठने लगे हैं। पंटुकी कहते हैं, जी-20 में जिनपिंग के नो शाे के बाद यह कहना मुश्किल है कि सैन फ्रांसिस्को में दोनों राष्ट्राध्यक्ष मिलेंगे या नहीं।