एस.के. सिंह, नई दिल्ली। शुरुआत एक उदाहरण से। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री में मैटेरियल का उचित प्रयोग करने, बिल्डिंग में बेहतर प्राकृतिक रोशनी और वेंटिलेशन में किया जाने लगा है। इससे संसाधनों की बचत तो हो ही रही है, कचरा भी कम निकलता है। बिल्डिंग की एनर्जी एफिशिएंसी बढ़ाने के लिए जेनरेटिव एआई की मदद से डिजाइन तैयार किए जा रहे हैं। सुरक्षित और सस्टेनेबल इमारत बनाने में एआई टूल्स की मदद से 3डी मॉडलिंग पर भी काम हो रहा है।

कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री का यह उदाहरण उद्योग में इनोवेशन की बढ़ती भूमिका को बताता है। समृद्धि का एक महत्वपूर्ण माध्यम है अधिक उत्पादकता, जो टेक्नोलॉजी के प्रयोग से ही आती है। और जब टेक्नोलॉजी पुरानी पड़ने लगे तो उत्पादकता बढ़ाने के लिए इनोवेशन जरूरी हो जाता है। विकसित बनने के लिए अर्थव्यवस्था के हर सेक्टर की उत्पादकता बढ़ाने की आवश्यकता है।

इस लिहाज से देखें तो ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर (GCC) बेहतरीन काम कर रहे हैं। हाल के वर्षों में भारत में ये बहुत तेजी से उभरे हैं। एक तरह से भारत ब्रेन पावर का हब बनता जा रहा है। नैसकॉम-जिनोव रिपोर्ट के मुताबिक 2022-23 में भारत में करीब 1600 जीसीसी थे, जिनमें 16 लाख से ज्यादा लोग प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से काम कर रहे थे। टैलेंट और कम लागत के कारण अधिक से अधिक विदेशी कंपनियां यहां अपने जीसीसी खोल रही हैं। डेलॉय टेक्नोलॉजी ट्रेंड्स 2024 में अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2030 तक और 2500 जीसीसी भारत में खुलेंगे और उनमें 45 लाख टैलेंट को रोजगार मिलेगा।

मिश्रित रणनीति की जरूरत

एक तरफ ये क्वालिटी जॉब हैं, तो दूसरी तरफ बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझता विशाल वर्ग है। उनके लिए करोड़ों की संख्या में रोजगार सृजन की जरूरत है ताकि विकास समावेशी हो सके। दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के सीनियर प्रोफेसर सुरेंद्र कुमार इसके लिए मिश्रित रणनीति अपनाने की राय देते हैं।

वे कहते हैं, “1960-70 के दशक में हम श्रम सघन टेक्सटाइल जैसे क्षेत्रों को डेवलप करने की बात करते थे। आज वह संभव नहीं है। टेक्नोलॉजी इतनी डेवलप हो गई है कि पुराने तरीके से आप बाजार में प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। हमें आधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना होगा। एक तरफ सेमीकंडक्टर या डिफेंस जैसे आधुनिक क्षेत्र में जाना पड़ेगा, तो दूसरी तरफ फूड प्रोसेसिंग जैसी श्रम-सघन इंडस्ट्री को साथ लेकर चलना पड़ेगा।”

यस बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री इंद्रनील पान के अनुसार, “भारत के जीडीपी आंकड़े भले ही दूसरों के लिए ईर्ष्या के काबिल हों, सतत विकास रोजगार सृजन के जरिए आय में असमानता दूर करने पर निर्भर करेगा। इससे अर्थव्यवस्था की खपत क्षमता बढ़ेगी।” वे कहते हैं, “सरकार को मैन्युफैक्चरिंग और कृषि, दोनों सेक्टर में रोजगार सृजन पर ध्यान देने की जरूरत है। मैन्युफैक्चरिंग में टेक्सटाइल और लेदर जैसे श्रम-सघन सेक्टर पर फोकस करने की आवश्यकता है।”

ग्लोबल मार्केट रिसर्च और इन्वेस्टमेंट बैंकिंग फर्म नेटिक्सिस की चीफ इकोनॉमिस्ट (एशिया पैसिफिक) एलिसिया गार्सिया हेरेरो भी मैन्युफैक्चरिंग बढ़ाने की बात कहती हैं, “भारत को मैन्युफैक्चरिंग मजबूत करनी पड़ेगी, क्योंकि मैं ऐसे किसी देश को नहीं जानती जो बिना मजबूत मैन्युफैक्चरिंग के विकसित राष्ट्र बना हो।”

आजादी के बाद इंडस्ट्री का विकास धीमा

आजादी के बाद चार दशक तक भारत ने आत्मनिर्भरता के लिए आयात कम करने और इंडस्ट्री में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने की नीति अपनाई। उभरते घरेलू उद्योग को सुरक्षित रखने के लिए आयात पर टैरिफ-नॉन टैरिफ अंकुश लगाए गए। इसका खमियाजा यह रहा कि संसाधनों का उचित इस्तेमाल नहीं हो सका। टेक्नोलॉजी का प्रयोग कम होने से लागत भी अधिक थी। ऐसे में भारतीय मैन्युफैक्चरिंग वैश्विक प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं सकती थी।

अमेरिका, जर्मनी और दक्षिण कोरिया ने भी अपनी इंडस्ट्री के लिए संरक्षणवादी रवैया अपनाया था। लेकिन जैसे ही उनकी इंडस्ट्री ग्लोबल मानकों के बराबर हुई और अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनकी कंपनियों ने प्रवेश किया, संरक्षण खत्म हो गया।

उदारीकरण के बाद परिस्थितियां बदलीं, फिर भी जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी 30 साल से स्थिर है। उदारीकरण से पहले आत्मनिर्भरता वाली ट्रेड पॉलिसी के कारण भारत श्रम-सघन मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का विस्तार नहीं कर सका। लेकिन उदारीकरण के बाद भी इसका लाभ नहीं मिला, क्योंकि तब तक पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया के दूसरे देश श्रम-सघन मैन्युफैक्चरिंग में कड़ी प्रतिस्पर्धा देने लगे। अभी टेक्सटाइल, कपड़े, फुटवियर और ज्वैलरी जैसी कम स्किल वाली और श्रम सघन मैन्युफैक्चरिंग में चीन के साथ बांग्लादेश, श्रीलंका और थाईलैंड भी भारत को टक्कर दे रहे हैं। चाइनीज कंपनियां कम लागत के लिए बांग्लादेश, श्रीलंका, थाईलैंड और वियतनाम में मैन्युफैक्चरिंग प्लांट भी खोल रही हैं।

उदारीकरण के बाद की स्थिति

ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के जिंदल स्कूल ऑफ गवर्मेंट एंड पब्लिक पॉलिसी में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर डॉ. अवनींद्र नाथ ठाकुर बताते हैं, “उदारीकरण की नीति में कहा गया कि अगर लाइसेंस राज खत्म किया जाए, निर्यात-आयात की छूट दी जाए और निजी क्षेत्र को प्रतिस्पर्धा का मौका मिले तो निजी क्षेत्र औद्योगीकरण का अगुवा बनेगा। चौंकाने वाली बात है कि 1991 से अभी तक जीडीपी में इंडस्ट्री के हिस्से में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। यह 25% के आसपास बना हुआ है। इसमें मैन्युफैक्चरिंग लगभग 17% है, बाकी सेकेंडरी सेक्टर के दूसरे उद्योग हैं।”

जब 1991 से दो दशक तक जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा नहीं बढ़ा तो 2011 में नेशनल मैन्युफैक्चरिंग पॉलिसी लाई गई। उसमें 10 साल में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा बढ़ाकर 25% करने का लक्ष्य रखा गया। इससे 10 करोड़ नौकरियां सृजित होने का दावा भी किया गया। पॉलिसी के बावजूद न तो जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा बढ़ा न वांछित नौकरियां सृजित हुईं।

प्रो. ठाकुर के अनुसार, हाल में मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्किल इंडिया जैसी कई पहल हुईं और सप्लाई साइड को मजबूत करने की कोशिश की गई। कंपनियों के लिए कर्ज लेना आसान किया गया, इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने की दिशा में भी कदम उठाए गए। इस तरह की पहल 2015-16 के आसपास शुरू हुई। एक तरह से सरकार इंडस्ट्री से कहना चाह रही थी कि आप मैन्युफैक्चरिंग कीजिए, जिन चीजों की कमी होगी हम उपलब्ध कराएंगे। फिर भी अभी तक वांछित नतीजे नहीं मिले हैं। 2015 में जीडीपी गणना के तरीके में बदलाव किया गया तो अनुपात कुछ बदला, लेकिन वह परिभाषा बदलने के कारण था, वास्तव में नहीं।

सफलता क्यों नहीं

सवाल उठता है कि इतने प्रयासों के बावजूद वांछित सफलता क्यों नहीं मिल रही है। प्रो. ठाकुर के विचार से एक बड़ा कारण यह है कि भारत की मैन्युफैक्चरिंग पॉलिसी में डिमांड साइड की पूरी अनदेखी की जा रही है। कोई उद्योग बढ़ता है तो उसके दो बाजार होते हैं- घरेलू और अंतरराष्ट्रीय। अगर दोनों बाजार में वह प्रतिस्पर्धी है तो विस्तार अपने आप होगा।

दूसरे विकसित देश या चीन को देखें तो वहां की इंडस्ट्री घरेलू के साथ अंतरराष्ट्रीय बाजार को भी बड़े पैमाने पर सप्लाई करती है। भारत के साथ समस्या यह है कि यहां न तो घरेलू डिमांड इतनी है कि इंडस्ट्री के विस्तार को सपोर्ट कर सके, न ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह इतना प्रतिस्पर्धी है कि चीन, वियतनाम, बांग्लादेश, मलेशिया जैसे देशों से मुकाबला कर सके। नए सिरे से शुरुआत करके अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धी होना काफी मुश्किल हो जाता है। विश्व अर्थव्यवस्था के साथ इंटीग्रेशन बढ़ने से इंटरमीडिएट वस्तुओं का आयात बढ़ा लेकिन उस अनुपात में तैयार वस्तुओं का निर्यात नहीं बढ़ा।

वे बताते हैं, “चीन और सिंगापुर में आपको ऐसे उदाहरण मिलेंगे जहां पहले कंपनी पब्लिक सेक्टर में थी, सरकार की मदद से प्रतिस्पर्धी बन गई तो वह निजी क्षेत्र में चली गई। भारत को भी अपनी इंडस्ट्री को ऐसा मौका देने की जरूरत है। हालांकि अब ऐसा करना मुश्किल हो गया है।” जहां तक औद्योगिक इंफ्रास्ट्रक्चर और मार्केट इंटीग्रेशन की बात है, तो इनमें हम चीन और वियतनाम जैसे विकासशील देशों से काफी पीछे हैं। हमारा सप्लाई चेन मैनेजमेंट और क्रेडिट फ्लो कमजोर है। इन सबके साथ डिमांड की समस्या स्थिति को और गंभीर बना देती है।

ब्रिटिश पॉलिसी इंस्टीट्यूट चैथम हाउस के सीनियर रिसर्च फेलो डेविड लुबिन का मानना है, “भारत का संरक्षणवादी रवैया भी इसमें बाधक है। भारत का औसत आयात शुल्क 2014 के 13.5% से बढ़ कर 2022 में 18% हो गया। पिछले 10 साल में ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग में चीन का हिस्सा 25% से बढ़ कर 30% हुआ है जबकि भारत का 3% से भी कम है।” चाइना प्लस वन पॉलिसी के बावजूद भारत में एफडीआई हाल में घटा है। 2019-22 के दौरान भारत में हर साल लगभग 50 अरब डॉलर एफडीआई आ रहा था, लेकिन अब यह 30 अरब डॉलर के आसपास रह गया है।

असमानता का असर मांग पर

इंडस्ट्री मांग के मुताबिक चलती है और अर्थव्यवस्था में असमानता अधिक हो तो डिमांड का पैटर्न भी बदल जाता है। अगर इकोनॉमी में 70% से 80% लोग कम आय वाले हैं, तो उनकी मांग अलग तरह की होगी। उनकी ज्यादा डिमांड खाने-पीने की या बेसिक चीजों की होगी। प्रो. ठाकुर के अनुसार, ज्यादा डिमांड तो 80% लोगों से ही आएगी। इसलिए उनकी आमदनी बढ़ाए बिना अर्थव्यवस्था में मांग नहीं निकलेगी। सामान्य इंडस्ट्री के लिए मांग निचले 50% लोगों से ही निकलती है।

वे बताते हैं, “अगर शीर्ष 10% लोगों की आय बढ़ने से जीडीपी ग्रोथ में इजाफा हो रहा है तो डिमांड अलग तरह की होगी। उनकी मांग महंगी गाड़ियां, महंगे घर तथा अन्य महंगे और इंपोर्टेड प्रोडक्ट की होगी, जिनका घरेलू मैन्युफैक्चरिंग से लेना-देना कम होता है। भारत में होने वाली मैन्युफैक्चरिंग निचले 50% लोगों के लिए है, जो आमदनी कम बढ़ने के कारण डिमांड ज्यादा बढ़ाने की स्थिति में नहीं हैं।”

ठाकुर के मुताबिक, श्रम कानूनों में ढील दिए जाने के बाद बड़ी कंपनियों में कॉन्ट्रैक्ट लेबर बढ़ा है। सरकारी नौकरियों में भी कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वालों का अनुपात बढ़ रहा है। अगर कोई व्यक्ति बड़ी कंपनी में काम करता है तो उम्मीद यही होती है कि उसे नियमित रोजगार मिलेगा। लेकिन संगठित क्षेत्र में भी असंगठित रोजगार की संख्या लगातार बढ़ रही है। ऐसे लोगों की परचेजिंग पावर कम होती है क्योंकि वे कभी भी नौकरी छूटने के डर से बचत करने की कोशिश करते हैं।

“सोशल सिक्योरिटी नहीं है तो कंजप्शन डिमांड कम होगी क्योंकि तब आप बचत करने की सोचेंगे। जिन्हें पेंशन का भरोसा होता है वे नौकरी के दिनों में काफी खर्च करते हैं क्योंकि उन्हें रिटायरमेंट के बात आमदनी की चिंता नहीं रहती है।” ठाकुर के अनुसार, बड़ी कंपनियां भी मैन्युफैक्चरिंग से ज्यादा असेंबलिंग पर फोकस कर रही हैं। ये कांट्रैक्ट पर छोटी कंपनियों से बेसिक मैन्युफैक्चरिंग करवाती हैं। इससे भी क्वालिटी रोजगार पर फर्क पड़ता है।”

क्वालिटी रोजगार अधिक नहीं होगा तो मांग भी ज्यादा नहीं बढ़ेगी। यस बैंक के इंद्रनील पान के अनुसार, “कोविड महामारी के बाद अर्थव्यवस्था में रिकवरी सरकार के पूंजीगत खर्चों से रही, निजी खपत में खास वृद्धि नहीं हुई। ग्रामीण क्षेत्रों में खपत मांग कमजोर रही। ऐसे में शहर वासियों के खर्च ने ही कुल खपत को सहारा दिया।”

प्रो. सुरेंद्र बताते हैं, चार-पांच साल से सरकार इंफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश कर रही है। यह अच्छी बात है, लेकिन इसके साथ निजी निवेश बढ़ाने के उपाय करने होंगे। हम बाहरी संसाधनों (विदेशी मदद) पर निर्भर नहीं रह सकते, उसकी एक सीमा होगी। निवेश के लिए बचत तो देश में ही करनी पड़ेगी। हाउसहोल्ड सेक्टर, खास कर मध्य आय वर्ग से ही बचत अधिक आती है। इस वर्ग की आय बढ़ने पर बचत भी बढ़ेगी।

2008 के वित्तीय संकट के बाद जीडीपी की तुलना में बचत के अनुपात में लगातार कमी आ रही थी। हाल के वर्षों में इसमें मामूली वृद्धि हुई है। फिर भी तुलनात्मक रूप से देखें तो 2006-07 में बचत दर 36-37 प्रतिशत थी, जो अभी 30% से भी कम है। बीच में यह 22-23 प्रतिशत तक गिर गई थी।

स्ट्रक्चरल बदलाव में समस्या

एक और समस्या है कि इंडस्ट्री जिस रफ्तार से बढ़ रही है, रोजगार उस रफ्तार से भी नहीं बढ़ रहे क्योंकि ज्यादातर इंडस्ट्री कैपिटल इंटेंसिव हो रही हैं। प्रो. सुरेंद्र इसे स्ट्रक्चरल बदलाव से जोड़ कर देखते हैं। इसमें संसाधनों को कम उत्पादकता वाली आर्थिक गतिविधियों (कृषि) से अधिक उत्पादकता वाली आधुनिक गतिविधियों (इंडस्ट्री और सर्विसेज) में लगाया जाता है। ग्रॉस वैल्यू एडेड (जीवीए) में कृषि का हिस्सा 1990-91 में 33.91% था, जो 2018-19 में घट कर 19.77% पर आ गया। रोजगार में कृषि की हिस्सेदारी भी 63.30% से घट कर 41.67% पर आ गई।

महत्वपूर्ण बात यह है कि कृषि में रोजगार में आई गिरावट मैन्युफैक्चरिंग में नहीं खपी। रोजगार में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 10.68% से मामूली बढ़ कर 11.16% ही हुआ। यही नहीं, जीवीए में इंडस्ट्री का हिस्सा 19.60% से घट कर 16.35% रह गया। टेक्नोलॉजी के विकास के साथ ज्यादा पूंजी निवेश और हाई स्किल वाले कर्मचारियों की मांग बढ़ी, लेकिन कुल श्रम बल की मांग घटी। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर वांछित नौकरियां पैदा करने में नाकाम रहा। कृषि से निकले अन-स्किल्ड श्रमिक किसी सेमी-स्किल्ड इंडस्ट्रियल सेक्टर में जाने के बजाय कंस्ट्रक्शन जैसे दूसरे अन-स्किल्ड सेक्टर में चले गए। रोजगार में कंस्ट्रक्शन सेक्टर का हिस्सा 3.7% से बढ़ कर 12% पहुंच गया।

टेक्नोलॉजी पर ध्यान देना जरूरी

मैन्युफैक्चरिंग टेक्नोलॉजी में भारत काफी हद तक आयात पर निर्भर है। जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, “टेक्नोलॉजी की कमी का भी नुकसान हो रहा है। हमने दक्षिण कोरिया के साथ मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) किया लेकिन उसका हमें ही नुकसान हुआ। उनका माल तो यहां बिक जाता है, हमारा माल वहां नहीं बिकता क्योंकि हमारे पास वैसी टेक्नोलॉजी नहीं होती है।”

एलिसिया बताती हैं, “पेटेंट के मामले में चीन, यूरोपियन यूनियन या अमेरिका से तुलना करें तो भारत को अभी लंबा सफर तय करना है। प्रति व्यक्ति आय इसका एक कारण है। मेरे विचार से इनोवेशन में छलांग लगाने के लिए भारत को गठजोड़ करने की जरूरत है, खास कर अमेरिका के साथ। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में अमेरिका के साथ गठजोड़ के अलावा वैज्ञानिक सहयोग और आदान-प्रदान भारत के लिए अहम हो सकता है।”

उनकी राय में, जैसा चीन ने अतीत में किया, भारत के लिए अमेरिका और यूरोप में अपने शोधकर्ताओं की संख्या बढ़ाना आवश्यक है। इससे चीन की तरह भारत को भी वैज्ञानिक सहयोग का ढांचा स्थापित करने में मदद मिलेगी। रिसर्च और इनोवेशन के लिए यूरोपियन यूनियन का ‘होराइजन यूरोप’ एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है। भारत उसमें भी भाग ले सकता है।

साझेदारी की जरूरत

आधुनिक मैन्युफैक्चरिंग काफी जटिल होती जा रही है। किसी देश के लिए यह संभव नहीं कि अपनी खपत की हर चीज वह खुद बनाए। भारत अभी तक द्विपक्षीय या क्षेत्रीय समझौतों का बड़ा लाभ नहीं उठा पाया है। प्रो. अरुण कुमार के मुताबिक, “क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (RCEP) में हम नहीं गए क्योंकि उसमें चीन है, लेकिन उसमें न जाने का भी हमें नुकसान हो रहा है। उसके सदस्य देश तो आपसी व्यापार में एक-दूसरे को रियायत देते हैं, लेकिन हमें वह छूट नहीं मिलती है।”

एलिसिया भी कहती हैं, भारत ने कोई बड़ा ट्रेड एग्रीमेंट नहीं किया है। यह आरसेप का हिस्सा भी नहीं है। यह भारत की मैन्युफैक्चरिंग के लिए बड़ी समस्या है। यहां मैन्युफैक्चरिंग में एफडीआई भी कम है। इन वजहों से मैन्युफैक्चरिंग में ज्यादा रोजगार सृजन भी नहीं हुआ है।

वे बताती हैं, “चीन ने अपनी इकोनॉमी खोलने के साथ आयात शुल्क भी भारत की तुलना में बहुत कम रखा था। उसने महसूस किया कि इनपुट सस्ता होने पर ही वह मैन्युफैक्चरिंग ताकत बन सकता है। इससे चीन में उत्पादन लागत कम हो गई। श्रम भी सस्ता था। सप्लाई चेन बनने की शुरुआत में यह बात बहुत मायने रखती है।” इसलिए उनकी राय में “आयात शुल्क तत्काल कम करने की जरूरत है। अभी भारतीय कंपनियों के लिए दूसरे देशों से इंटरमीडिएट गुड्स आयात करना बहुत महंगा पड़ता है।”

एलिसिया के अनुसार, भारत की बचत यहां इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के लिए पर्याप्त नहीं है। इसे फंड के लिए बाहरी कर्ज पर निर्भर करना पड़ता है। चीन की बचत दर बहुत ज्यादा थी। उसे फंड के लिए दूसरे देशों पर अधिक निर्भर नहीं रहना पड़ा। भारत और चीन में फर्क यह है कि भारत को फंड और टेक्नोलॉजी दोनों की जरूरत है, जबकि चीन को सिर्फ टेक्नोलॉजी की।

वैसे देखा जाए तो चीन ऐसे समय बढ़ा जब वैश्वीकरण तेजी से बढ़ रहा था। विश्व स्तर पर सप्लाई चेन विकसित हो रही थी और चीन को उसका लाभ मिला। आज परिस्थितियां अलग हैं। भारत के लिए एक बनी-बनाई सप्लाई चेन को विस्थापित कर पाना मुश्किल हो सकता है।

एलिसिया कहती हैं, “कुछ लोगों का तर्क है कि भारत में श्रमिक उपलब्ध हैं, श्रम भी सस्ता है। इसलिए भारत भी चीन जैसा कर सकता है। लेकिन मेरे विचार से भारत को दक्षिण एशिया के लिए इंटीग्रेटेड सप्लाई चेन विकसित करना चाहिए, क्योंकि दक्षिण एशियाई क्षेत्र दुनिया में आबादी बढ़ने का केंद्र है। भारत को वैश्विक के बजाय क्षेत्रीय आधार पर सोचने की जरूरत है।”

भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने फाइनेंशियल टाइम्स में एक लेख में निर्यात के लिए मैन्युफैक्चरिंग के बजाय सर्विसेज पर फोकस करने की बात कही। उन्होंने लिखा, दुनिया में अब मैन्युफैक्चर्ड वस्तुओं का निर्यात करने वाले चीन जितनी बड़ी इकोनॉमी की जगह नहीं है…। भारत के पास दूसरे विकल्प हैं। अभी ग्लोबल सर्विसेज निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 5% और वस्तु निर्यात में 2% से कम है। कंसल्टिंग, टेलीमेडिसिन, मैन्युफैक्चरिंग से संबंधित डिजाइन एवं सॉफ्टवेयर जैसी हाई स्किल वाली सर्विसेज में भारत के लिए अच्छे मौके हो सकते हैं। इसके लिए स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा का स्तर बेहतर करना पड़ेगा।

राजन का तर्क है कि किसी भी प्रोडक्ट में ज्यादातर वैल्यू एडिशन रिसर्च एवं डेवलपमेंट, डिजाइन, मार्केटिंग, पैकेजिंग और ब्रांडिंग जैसी मैन्युफैक्चरिंग सर्विसेज से होता है, सिर्फ मैन्युफैक्चरिंग से नहीं। यही कारण है कि एपल के फोन बनाने वाली फॉक्सकॉन की तुलना में एपल की वैल्यू काफी ज्यादा है।

क्या हों भारत की प्राथमिकताएं

अच्छी बात है कि इस दिशा में प्रयास शुरू हो गए हैं। चैथम हाउस के डेविड लुबिन के अनुसार, सरकार मैन्युफैक्चरिंग पर फोकस कर रही है। 14 चुनिंदा सेक्टर के लिए 1.97 लाख करोड़ रुपये की पीएलआई स्कीम लाई गई है। सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री के लिए अलग से 76000 करोड़ रुपये की योजना है। इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश भी मैन्युफैक्चरिंग के प्रति सरकार की गंभीरता को दर्शाता है। केंद्र सरकार का पूंजीगत खर्च 2015 में जीडीपी का 1.5% था, जो अब 3.2% हो गया है।

एलिसिया भारत के लिए प्राथमिकताएं गिनाती हैं, “रोजगार सृजन बहुत जरूरी है। इसके लिए मैन्युफैक्चरिंग बढ़ानी पड़ेगी। टैक्स बेस बढ़ाने के लिए भी नौकरियां चाहिए। लोगों की आय होगी तभी वे टैक्स देंगे। मैन्युफैक्चरिंग के लिए आयात शुल्क कम करना चाहिए, ट्रेड डील करने चाहिए और मैन्युफैक्चरिंग में एफडीआई लाना चाहिए।”

नेटिक्सिस के ही सीनियर इकोनॉमिस्ट ट्रिन गुयेन (Trinh Nguyen) के अनुसार, वर्किंग एज आबादी भले भारत की सबसे ज्यादा हो, मैन्युफैक्चरिंग निर्यात में यह 19वें स्थान पर है। ग्लोबल मार्केट में इसकी हिस्सेदारी सिर्फ 1.6% है जबकि छोटे से देश वियतनाम की हिस्सेदारी 2% है। श्रम सघन मैन्युफैक्चरिंग में भी भारत के 2.7% की तुलना में वियतनाम का हिस्सा 5.2% है। ऐसे समय जब विभिन्न देश और कंपनियां सप्लाई चेन में चीन का विकल्प तलाश रही हैं, भारत को इस मौके को भुनाना चाहिए।

आरबीआई के डिप्टी गवर्नर माइकल देबब्रत पात्रा ने हाल ही एक भाषण में कहा कि विकास यात्रा में भारत ने मैन्युफैक्चरिंग की अनदेखी की है। भारत की अर्थव्यवस्था में सर्विसेज का हिस्सा लगभग दो-तिहाई है, जबकि मैन्युफैक्चरिंग का योगदान (17%) विश्व औसत से बहुत कम है। 1990 से मैन्युफैक्चरिंग की औसत ग्रोथ 7% रही है। वर्ष 2030-31 तक जीवीए में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 20% करने के लिए सालाना 8.5% ग्रोथ चाहिए। इसका हिस्सा 25% करने के लिए हर साल मैन्युफैक्चरिंग का योगदान 12.5% बढ़ाना पड़ेगा। इसके लिए चौथी औद्योगिक क्रांति (ऑटोमेशन, डेटा एक्सचेंज, साइबर सिस्टम, आईओटी, क्लाउड कंप्यूटिंग, स्मार्ट फैक्टरी, एडवांस रोबोटिक्स) को अपनाना पड़ेगा। इसमें स्किल्ड लेबर फोर्स की भूमिका बड़ी होगी।

पात्रा के अनुसार, भारत ने 768 अरब डॉलर की वस्तुओं और सेवाओं का निर्यात किया। यह कुल विश्व निर्यात का सिर्फ 2.4% है। इसे 2030 तक एक-एक लाख करोड़ डॉलर तक ले जाने और विश्व निर्यात में हिस्सेदारी 5% करने की जरूरत है। भारत के लिए आईटी और डिजिटल सर्विसेज, वैल्यू एडेड कृषि उत्पाद, हाई वैल्यू टूरिज्म, फाइनेंशियल सर्विसेज, ई-कॉमर्स में मौके हैं। जीसीसी के जरिए भारत इस दिशा में बढ़ रहा है।

प्रो. सुरेंद्र के अनुसार, हाल के वर्षों में सप्लाई साइड की दिक्कतें दूर करने के लिए भरोसेमंद डिजिटल फाइनेंशियल सिस्टम, कृषि सप्लाई चेन में सुधार, श्रम कानूनों और टैक्स व्यवस्था में सुधार, बिजनेस से जुड़े कानून सरल बनाने, मानव संसाधन का विकास जैसे कदम उठाए गए हैं। इससे उद्यमिता बढ़ाने, निवेश आकर्षित करने तथा मेक इन इंडिया नीति को लागू करने में मदद मिली है। आगे सप्लाई चेन की दिक्कतें दूर करने से अर्थव्यवस्था के विभिन्न सेक्टर की एफिसिएंसी बढ़ने और अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धी होने की उम्मीद है।

‘विकसित भारत’ की तरह चीन ने भी 2049 तक बड़ी महाशक्ति बनने का लक्ष्य रखा है। आत्मनिर्भर भारत की तर्ज पर उसने भी जिली गेंगशेंग (zili gengsheng) का नारा दिया है जिसका मतलब होता है आत्मनिर्भर। और विशेषज्ञों की राय में आत्मनिर्भरता के लिए मैन्युफैक्चरिंग जरूरी है। जब दुनिया जलवायु संकट से निपटने में लगी है तो आत्मनिर्भरता भी आधुनिक टेक्नोलॉजी पर आधारित होनी चाहिए। हाल के समय में अनेक देशों ने आत्मनिर्भरता और संरक्षणवाद की नीति अपनाई है। लेकिन भारत के संदर्भ में यह आजादी के बाद की संरक्षणवादी नीति से अलग होनी चाहिए। इस आत्मनिर्भरता का मतलब वसुधैव कुटुम्बकम होना चाहिए।