एस.के. सिंह, नई दिल्ली। आजादी के बाद भारत ने हर क्षेत्र में काफी तरक्की की है। हम दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी इकोनॉमी बन चुके हैं और जल्दी ही तीसरी बड़ी इकोनॉमी बनने वाले हैं। भारत की विकास दर प्रमुख देशों में सबसे अधिक है। हम आईटी, इंजीनियरिंग और दवा जैसे क्षेत्रों में काफी आगे बढ़ चुके हैं। लेकिन क्या बीते 76 वर्षों में हम अपनी क्षमता का पूरा इस्तेमाल करने में कामयाब हुए हैं? विकास की गति बढ़ाने और विकसित देश बनने के लिए हमें कौन से कदम उठाने होंगे? हमारी चुनौतियां और उनके समाधान क्या हैं? इन सवालों के साथ जागरण प्राइम ने तीन अलग क्षेत्र के विशेषज्ञों- मैक्रो इकोनॉमिस्ट प्रो. अरुण कुमार, कॉरपोरेट इकोनॉमिस्ट देबोपम चौधरी और फाइनेंशियल जगत के भास्कर मजूमदार की राय ली।

-भारतीय अर्थव्यवस्था के अब तक के विकास को किस तरह देखते हैं?

अरुण कुमारः आजादी से पहले के 50 वर्षों की तुलना में देखें तो आजादी के बाद साढ़े सात दशक में हमने काफी तरक्की की है। उस समय से तुलना करें तो आज हमारे पास संसाधन अधिक हैं। 1950 में हमारी बचत दर जीडीपी का 3% हुआ करती थी, अभी यह 30% है। ज्यादा संसाधन होने से हम ज्यादा इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर सकते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमने अनेक कदम उठाए हैं।

देबोपम चौधरीः पश्चिमी देशों के पर्यवेक्षकों ने भारत और इसके बहुसांस्कृतिक तथा बहुभाषी लोकतंत्र को 1947 में आजादी के बाद हमेशा संशय की दृष्टि से देखा। भारत जैसी विविधता वाला देश एकल संस्कृति वाले ज्यादातर पश्चिमी देशों से हमेशा अलग रहा है, लेकिन भारत ने अपने सभी आलोचकों को गलत साबित किया है। आज हम न सिर्फ एक सफल लोकतंत्र हैं, बल्कि बहुपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाने में एक प्रभावी ग्लोबल लीडर साबित हुए हैं। हम स्वच्छ और हरित धरती, टेक्नोलॉजी और दवा जैसे क्षेत्रों में काम कर रहे हैं।

भास्कर मजूमदारः चुनौतियों के बावजूद भारत ने ऊंची जीडीपी विकास दर को बरकरार रखा है। यह दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था में सबसे तेजी से आगे बढ़ाने वाले देशों में शुमार है। इस तेज आर्थिक विकास के चलते देश के अनेक नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार आया है। अंतरराष्ट्रीय राजनय के क्षेत्र में भी भारत के योगदान को सराहा गया है। जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते में भारत ने अहम भूमिका निभाई थी। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र समेत विभिन्न वैश्विक मंचों पर भारत हमेशा सक्रिय भागीदार रहा है। यह वैश्विक चुनौतियों के समाधान में भारत की प्रतिबद्धता को दिखाता है। 2015 में लांच इंटरनेशनल सोलर अलायंस सतत विकास के लिए भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इस एलायंस से सौर ऊर्जा क्षेत्र में अनेक देश साथ आए हैं। सौर तथा पवन ऊर्जा उत्पादन में तेजी से विस्तार ने भारत को अक्षय ऊर्जा में ग्लोबल लीडर के तौर पर स्थापित किया है।

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-इस दौरान भारत की प्रमुख उपलब्धियां क्या रहीं?

देबोपम चौधरीः हम जीडीपी के लिहाज से दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए हैं। जैसा कि आईएमएफ का आकलन है, अगले 5 वर्षों के दौरान हम जर्मनी और जापान को पीछे छोड़ते हुए अमेरिका तथा चीन के बाद तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होंगे। ढाई दशक बाद जब आजादी के 100 साल पूरे होंगे, तब हमारा लक्ष्य विकासशील से विकसित देश बनना है। अमृत काल के लिए भारत सरकार का विजन एक मजबूत ब्लूप्रिंट है, जिसके आधार पर सार्वजनिक और निजी क्षेत्र मिलकर भारत को 2047 तक अमेरिका, इंग्लैंड और जापान जैसे विकसित देशों की लीग में ला सकता है।

भास्कर मजूमदारः पिछले दशक में भारत ने गर्व करने लायक कई उपलब्धियां हासिल की हैं। अंतरिक्ष के क्षेत्र में मंगलयान मिशन, जो 2013 में लांच किया गया, उसने मंगल तक पहुंचने वाला भारत को चौथा देश बना दिया। पहले प्रयास में यह उपलब्धि हासिल करने वाला भारत पहला देश है। 2019 में चंद्रयान-2 की सफल लॉन्चिंग ने अंतरिक्ष टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भारत को मजबूती से खड़ा किया। अक्षय ऊर्जा के मामले में भारत ने महत्वपूर्ण प्रगति की है। भारत की वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियां भी उल्लेखनीय हैं। 2018 में लॉन्च की गई जी सैट6ए कम्युनिकेशन सैटेलाइट तथा कर्नाटक में स्थापित दुनिया का सबसे बड़ा सोलर पार्क सैटलाइट कम्युनिकेशन और स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की तरक्की को दर्शाते हैं। 2019 में एंटी सैटलाइट मिसाइल के सफल परीक्षण ने अंतरिक्ष रक्षा के क्षेत्र में भारत की बढ़ती क्षमताओं को प्रदर्शित किया। उद्यमिता और इनोवेशन के मामले में भी भारत के प्रदर्शन को बेहतर कहा जा सकता है। प्रौद्योगिकी जगत में भारतीय स्टार्टअप्स ने अपनी महत्वपूर्ण पहचान बनाई है, खासकर फाइनेंशियल टेक्नोलॉजी, ई-कॉमर्स और हेल्थ सेक्टर में। इनोवेशन की यह लहर उद्योगों में बड़े बदलाव लाने के साथ रोजगार के अवसर भी पैदा कर रही है।

-क्या भारत ने अपनी क्षमता के अनुरूप विकास किया?

अरुण कुमारः हमारी तरक्की उतनी नहीं हुई जितनी दक्षिण पूर्व एशिया के दूसरे देशों ने की। हमारे सामने चीन और दक्षिण कोरिया के उदाहरण हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि हमें शिक्षा और स्वास्थ्य पर जितना ध्यान देना चाहिए था, उतना हमने नहीं दिया। जैसे, 1960 के दशक में कोठारी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जीडीपी का 6% शिक्षा पर खर्च होना चाहिए, लेकिन हमने आज तक 4% से अधिक खर्च नहीं किया। इसी तरह स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च जीडीपी का कम से कम 3% होना चाहिए, जबकि हम कभी 1.3% से अधिक खर्च नहीं कर पाए। इससे स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में हम पिछड़ गए। कामगार वर्ग में जो प्रोडक्टिविटी बढ़नी चाहिए थी, वह नहीं बढ़ी। उनकी प्रोडक्टिविटी ज्यादा होती तो हमारी ग्रोथ और अधिक होती।

दक्षिण पूर्व एशिया के दूसरे देशों में इन क्षेत्रों पर काफी ध्यान दिया गया। मलेशिया में तो जीडीपी का 10% शिक्षा पर खर्च किया गया। 1947 में दक्षिण पूर्व एशिया के देश कमोबेश भारत जैसी स्थिति में ही थे, वहां भी गरीबी थी, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव था। वे देश तो तेजी से आगे बढ़ गए लेकिन हम उतनी तेजी से तरक्की नहीं कर सके। इस कमी से विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जो उन्नति होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई। आज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हम अनेक विकासशील देशों से आगे हैं। हम एक सुई से लेकर रिएक्टर तक सब कुछ बना लेते हैं। अंतरिक्ष में रॉकेट भी भेज सकते हैं। इस लिहाज से देखें तो तरक्की हुई है, लेकिन चीन की तरह हम भी विश्व शक्ति बन सकते थे।

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-भविष्य की प्रमुख चुनौतियां क्या हैं?

अरुण कुमारः भविष्य में एक बड़ी चुनौती टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में दिख रही है क्योंकि वैश्वीकरण में टेक्नोलॉजी की बड़ी भूमिका है। जिसके पास बेहतर टेक्नोलॉजी होगी वह आगे निकल जाएगा, जिसके पास टेक्नोलॉजी नहीं होगी वह पीछे रह जाएगा। इसलिए हमें टेक्नोलॉजी में रिसर्च और डेवलपमेंट पर निवेश बढ़ाना होगा। चीन में जीडीपी का 3% रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर खर्च होता है जबकि हम सिर्फ 0.7% खर्च करते हैं। हमने आरएंडडी को उतनी तवज्जो नहीं दी जितनी देनी चाहिए थी। ऐसा नहीं होगा कि उसके नतीजे तुरंत नजर आने लगेंगे, आरएंडडी पर 10-20 साल तक निवेश करने के बाद उसके नतीजे दिखते हैं।

देबोपम चौधरीः प्रमुख चुनौतियों में एक है विकास दर में निरंतरता बनाए रखना। हमारी जनसांख्यिकी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। वर्ष 2030 तक भारत 70% भारतीय कामकाजी आयु वर्ग में होंगे और पूरी दुनिया की वर्कफोर्स का एक चौथाई भारत में होगा। अगर इसका सही तरीके से उपयोग किया जाए तो इसके दो बड़े फायदे होंगे। युवा कामगारों की बड़ी संख्या मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर में भारत को मजबूत प्रतिस्पर्धी क्षमता प्रदान करेगी। वे अपेक्षाकृत कम कीमत पर बेहतर क्वालिटी के वस्तुओं का उत्पादन करने के साथ बेहतरीन सेवाएं भी दे सकेंगे। दूसरा फायदा यह है कि यह युवा आबादी भारत में खपत का स्तर तेजी से बढ़ाएगी, जिससे तरह-तरह के बिजनेस को फायदा होगा। दूसरी प्रमुख चुनौती है पूंजी की उपलब्धता। भारत में पूंजी प्रवाह हमेशा कम रहा है। यहां फाइनेंशियल सिस्टम को मजबूत करने के लिए अनेक कदम उठाए गए, फिर भी अभी तक इस पर बैंकिंग सिस्टम, वह भी सरकारी क्षेत्र के बैंक, हावी हैं। ये बैंक घरेलू बचत पर निर्भर करते हैं। तेजी से बढ़ती इकोनॉमी के लिए पूंजी का सीमित स्रोत अक्सर अड़चन बन जाता है।

भास्कर मजूमदारः आर्थिक असमानता बड़ी चुनौती है। भारत संपन्न और वंचित वर्ग के बीच आमदनी की बड़ी असमानता से लगातार जूझ रहा है। प्रगति के बावजूद परिवहन, ऊर्जा और सैनिटेशन जैसे क्षेत्रों में अभी अनेक कमियां हैं। सतत आर्थिक विकास के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर को सुधारना महत्वपूर्ण है। भारत की विशाल युवा आबादी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और कौशल विकास महत्वपूर्ण है। तभी जनसांख्यिकी का लाभ उठाया जा सकता है और इनोवेशन को बढ़ावा दिया जा सकता है। विशाल आबादी को पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराना आज भी बड़ी चुनौती है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में। स्वस्थ वर्कफोर्स और बेहतर प्रोडक्टिविटी के लिए स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार जरूरी है।

-इन चुनौतियों का समाधान क्या है?

अरुण कुमारः अगर हमें अगले 20-25 वर्षों में अपने देश को तेजी से आगे लेकर जाना है तो शिक्षा, स्वास्थ्य और आरएंडी पर फोकस करना पड़ेगा। हमें अच्छी क्वालिटी की शिक्षा पर जोर देना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER) बताती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पांचवीं कक्षा के करीब आधे छात्र दूसरी कक्षा की पढ़ाई-लिखाई नहीं कर पाते हैं। ऐसे बच्चे आगे चलकर ड्रॉप आउट कर जाते हैं, उन्हें कोई आधुनिक टेक्नोलॉजी समझ में नहीं आती। जब तक उन्हें टेक्नोलॉजी समझ में नहीं आएगी तब तक वे आगे नहीं बढ़ सकेंगे। इसलिए वे अगले 50 साल तक गरीब ही रहेंगे। वे आधुनिक युग के काम नहीं कर सकेंगे तो उनकी आमदनी भी नहीं बढ़ेगी। हमें अच्छे शिक्षकों की भी जरूरत भी है जो प्रतिबद्धता के साथ शिक्षा दें। हमें बच्चों में सीखने का तरीका भी विकसित करना पड़ेगा। जिस तेजी से टेक्नोलॉजी बदल रही है उसे देखते हुए जॉब मार्केट में भी काफी बदलाव होते रहेंगे। जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी विकसित होगी, लोगों को भी अपने आप को विकसित करना पड़ेगा। ऐसा नहीं किया तो पिछड़ जाएंगे। अर्थात बच्चों को ऐसी शिक्षा देनी होगी कि वे समय के साथ अपने आप को बदलते रहें।

हम बैंकिंग में बदलाव देख चुके हैं। हम इंटरनेट पर घर बैठे बैंकिंग से जुड़े ज्यादातर काम कर लेते हैं। पहले अनस्किल्ड काम ही मशीनों द्वारा रिप्लेस होते थे, अब स्किल्ड काम भी तकनीक की वजह से रिप्लेस होंगे। जैसे चैटजीपीटी जैसी तकनीक भविष्य में टीचर की जरूरत कम कर देगी। इसी तरह, हो सकता है आर्किटेक्ट और इंजीनियरों की जरूरत भी कम रह जाए। ये चुनौतियां दूर नहीं हैं। जितनी तेजी से टेक्नोलॉजी का विकास हो रहा है, अगले चार-पांच वर्षों में ही हमें इन चुनौतियों का सामना करना पड़ जाएगा। इसलिए हमें बहुत तेजी से, अभी से इन चीजों की तरफ ध्यान देना पड़ेगा।

देबोपम चौधरीः जरूरी है कि इंडस्ट्री की जरूरतों पर फोकस करते हुए उभरती युवा प्रतिभाओं को तैयार किया जाए और उनके लिए पर्याप्त रोजगार के अवसर सुनिश्चित किए जाएं। यह काम हमें अगले दो-तीन दशकों तक करना पड़ेगा। अगर हमने ऐसा नहीं किया तो हम अपने सामने खड़े इस अनोखे अवसर का लाभ उठाने से वंचित रह जाएंगे।

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भास्कर मजूमदारः हमें ऐसी नीतियां चाहिए जो समान आर्थिक विकास को बढ़ावा दें, सबके लिए अवसर प्रदान करें और वंचित वर्ग को ऊपर उठाएं। ऐसी नीतियों से ही आमदनी का अंतर कम होगा और सामाजिक समरसता बढ़ेगी। ट्रांसपोर्टेशन नेटवर्क और विद्युत प्रणाली जैसे इन्फ्रा प्रोजेक्ट में लगातार निवेश से कनेक्टिविटी बेहतर होगी, विदेशी निवेश बढ़ेगा और आर्थिक गतिविधियां भी तेज होंगी। शिक्षा को प्राथमिकता देनी पड़ेगी ताकि अच्छी क्वालिटी के स्कूल ज्यादा संख्या में हों। व्यावसायिक प्रशिक्षण को बढ़ावा दिया जाए तथा उच्च शिक्षा को प्रमोट किया जाए। इससे स्किल्ड और ज्ञानवान वर्कफोर्स तैयार होगी। हमें ऐसे मजबूत हेल्थकेयर सिस्टम पर फोकस करना होगा जो सबकी पहुंच में हो। अफोर्डेबल चिकित्सा सुविधा पूरे देश में होने चाहिए। इससे देशवासियों के स्वास्थ्य में तो सुधार होगा ही, उत्पादकता भी बढ़ेगी।

अनुसंधान एवं विकास में निवेश से इनोवेशन की संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा। स्टार्टअप की मदद की जाए तो प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तरक्की होगी और भारत विश्व स्तर पर अधिक प्रतिस्पर्धी बन सकेगा। दूसरे देशों के साथ राजनीतिक संबंध मजबूत करने और सहयोग बढ़ाने से विश्व मंच पर भारत को अधिक प्रभावी भूमिका निभाने में मदद मिलेगी। अंतरराष्ट्रीय संगठनों और वार्ताओं में सक्रिय रूप से हिस्सा लेने पर वैश्विक मामलों में भारत की आवाज को बल मिलेगा। वायु और जल प्रदूषण जैसी पर्यावरण संबंधी चुनौतियों से निपटने के लिए अति सक्रिय कदम उठाने की जरूरत है। पारदर्शी और सक्षम कानूनी तथा प्रशासनिक व्यवस्था घरेलू और विदेशी दोनों तरह के बिजनेस के लिए उचित वातावरण बनाएगी। भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, कला, संगीत और फिल्म इंडस्ट्री को विश्व पटल पर ले जाने से भारत की सॉफ्ट पावर बढ़ेगी और अंतरराष्ट्रीय जगत में देश के प्रति सकारात्मकता बढ़ेगी।

-इन कार्यों के लिए संसाधन कहां से आएंगे?

अरुण कुमारः भारत में संसाधनों की कमी नहीं है। हमारा टैक्स जीडीपी अनुपात सिर्फ 17% है, जो बहुत कम है। डायरेक्ट टैक्स अनुपात तो 6% ही है, जबकि दूसरे प्रमुख विकासशील देशों में यह 10% से 12% और विकसित देशों में 20% से 22% है। अगर हम राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाकर इसे सुधार सकें तो हमारा डायरेक्ट टैक्स जीडीपी अनुपात 5% से 7% बढ़ सकता है। उस राशि को हम शिक्षा, स्वास्थ्य और आरएंडडी पर खर्च कर सकते हैं।

देबोपम चौधरीः अनुमान है कि आने वाले वर्षों में हमें 16% से 18% क्रेडिट ग्रोथ की जरूरत पड़ेगी। इसलिए यह आवश्यक है कि हम पूंजी और क्रेडिट के वैकल्पिक स्रोत तलाशें (विदेशी स्रोत समेत), ताकि बैंकिंग सेक्टर पर दबाव कम हो और इकोनॉमी के हर क्षेत्र को पूंजी का प्रवाह आसानी से हो सके।

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