पांच साल में मेडिकल डिवाइस आयात दोगुना, लेकिन चीन से आयात तीन गुना बढ़ा; इंपोर्ट पर निर्भरता 80% से अधिक
अनेक भारतीय मेडिकल डिवाइस मैन्युफैक्चरर्स ने प्रोडक्ट बनाना बंद कर दिया या कम कर दिया है। वे चीन से आयात कर देश में सामान बेच रहे हैं। उनका कहना है कि जिस तरह आयात शुल्क बढ़ाने और इन्सेंटिव देने पर देश में मोबाइल फोन की मैन्युफैक्चरिंग बढ़ी और हम फोन का निर्यात करने लगे वैसा मेडिकल डिवाइस में भी संभव है।
एस.के. सिंह, नई दिल्ली। मेडिकल डिवाइस अर्थात चिकित्सा उपकरणों के क्षेत्र में आयात पर हमारी निर्भरता कम नहीं हो पा रही है। हम अब भी 80-85% जरूरत आयात से ही पूरी करते हैं। खास बात यह है कि इसमें भी चीन पर निर्भरता काफी ज्यादा है। बीते पांच वर्षों में मेडिकल डिवाइस का कुल आयात तो दोगुना हुआ, लेकिन चीन से आयात तीन गुना बढ़ा है। 2021-22 में टॉप 50 डिवाइस का 52,895 करोड़ रुपये का आयात हुआ, इसमें 12,929 करोड़ रुपये अर्थात एक चौथाई चीन से आया। कुछ प्रोडक्ट के आयात में तो चीन की हिस्सेदारी 80% से भी ज्यादा हो गई है। भारतीय मैन्युफैक्चरर्स का कहना है कि चाइनीज प्रोडक्ट काफी सस्ते होने के कारण उनसे मुकाबला करना मुश्किल है। उनकी शिकायत है कि क्वालिटी पर ध्यान दिए बगैर उनसे चाइनीज प्रोडक्ट के बराबर दाम रखने को कहा जाता है। स्थिति यह है कि अनेक भारतीय मैन्युफैक्चरर्स ने प्रोडक्ट बनाना बंद कर दिया या कम कर दिया है। वे चीन से आयात कर सामान बेच रहे हैं। उनका कहना है कि जिस तरह आयात शुल्क बढ़ाने और इन्सेंटिव देने पर देश में मोबाइल फोन की मैन्युफैक्चरिंग बढ़ी और हम फोन का निर्यात करने लगे, वैसा मेडिकल डिवाइस में भी संभव है।
फॉर्चून बिजनेस इनसाइट्स के अनुसार 2022 में दुनिया का मेडिकल डिवाइस बाजार 495 अरब डॉलर (40 लाख करोड़ रुपये) का था। इसके 2029 में 719 अरब डॉलर (58 लाख करोड़ रुपये) का हो जाने का अनुमान है। एसोसिएशन ऑफ इंडियन मेडिकल डिवाइस इंडस्ट्री (AIMED) के अनुसार 2021-22 में भारत ने 23,766 करोड़ रुपये के डिवाइस का निर्यात किया। भारत एशिया में जापान, चीन और दक्षिण कोरिया के बाद चौथा सबसे बड़ा बाजार है। दुनिया में इसका स्थान शीर्ष 20 देशों में है।
लेकिन बाजार की तुलना में घरेलू मैन्युफैक्चरिंग बहुत कम है। भारत में डिस्पोजेबल श्रेणी के प्रोडक्ट ही ज्यादा बनते हैं। बाकी डिवाइस पूरी तरह या उनके कंपोनेंट आयात किए जाते हैं। इंडस्ट्री का कहना है कि देश में मैन्युफैक्चरिंग बढ़ाने में सबसे बड़ी बाधा कम आयात शुल्क है। इसके अलावा कुछ नियम भी बदलने पड़ेंगे।
टैरिफ बढ़ाकर ही सस्ता आयात रोकना संभव
डिस्पोजेल सिरिंज बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी हिंदुस्तान सिरिंजेज एंड मेडिकल डिवाइसेज लिमिटेड के एमडी और AIMED के फोरम कोऑर्डिनेटर राजीव नाथ जागरण प्राइम से कहते हैं, “आयात पर निर्भरता 10 साल से बढ़ रही है। इंडस्ट्री के बार-बार कहने के बाद पहले ड्यूटी 5% बढ़ाई गई, फिर 5% सेस लगाया गया। लेकिन 5-10% से बात नहीं बनती है। आयात करके बेचने वाले ट्रेडर के पास इतना मार्जिन तो होता ही है। इसलिए अनेक मैन्युफैक्चरर, इंपोर्टर बन गए। उन्हें निर्माण क्षमता बढ़ाने के बजाय सीधे आयात करके प्रोडक्ट बेचना आसान लगता है।” नाथ के अनुसार, कोई 100 करोड़ रुपये खर्च करके फैक्ट्री लगाता है और जितनी टर्नओवर हासिल करता है, अगर वह आयात करके बेचे तो सिर्फ 25 करोड़ रुपये लगाकर उतना टर्नओवर हासिल कर सकता है। हिंदुस्तान सिरिंजेज सिरिंज के अलावा आईवी कैनुला, सर्जिकल ब्लेड समेत अनेक प्रोडक्ट बनाती है।
इलेक्ट्रॉनिक मेडिकल डिवाइस निर्माता बीपीएल मेडिकल टेक्नोलॉजीज के एमडी एवं सीईओ सुनील खुराना के अनुसार, इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस में प्रिंटेड सर्किट बोर्ड, इलेक्ट्रॉनिक कंपोनेंट का इस्तेमाल होता है। हम अपनी कंपनी के प्रोडक्ट में नॉन-चाइनीज कंपोनेंट प्रयोग करते हैं। ग्लोबल मार्केट में उपलब्ध कंपोनेंट चाइनीज की तुलना में 2 से 4 गुना महंगे होते हैं। चीन में प्रोडक्ट वहां के चिप से ही बनाए जाते हैं, इसलिए वे सस्ते होते हैं। हम कीमत में चीन का मुकाबला नहीं कर सकते।
खुराना कहते हैं, “चीन ने इस दिशा में बहुत अच्छा काम किया है। उसने दो दशक पहले इलेक्ट्रॉनिक कंपोनेंट मैन्युफैक्चरिंग में कदम बढ़ाए और अब वह काफी मजबूत स्थिति में है। भारत में मौजूदा सरकार ने इस दिशा में पहल की है। पांच साल बाद जब यहां बड़े पैमाने पर चिप का उत्पादन होने लगेगा तब हम मुकाबला करने की स्थिति में होंगे। तब तक चीन का मुकाबला करने का एक ही तरीका है कि कस्टम ड्यूटी बढ़ाई जाए।” खुराना के अनुसार अगर हम चीन से कंपोनेंट लाकर यहां प्रोडक्ट बनाएंगे तो वह ‘मेड इन चाइना’ ही होगा।
इन्फिनिटी मेडिक्विप इंडिया प्रा. लि. के एमडी तरुण अरोड़ा के अनुसार इलेक्ट्रॉनिक प्रोडक्ट्स के लिए पूरा ईकोसिस्टम चाहिए। वे कहते हैं, “इसमें मेडिकल डिवाइस के लिए PCB से लेकर सॉफ्टवेयर तक बहुत सारी चीजें शामिल हैं। अगर हम पीसीबी बना रहे हैं तो उसकी आईसी हमें आयात करनी पड़ती है। इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस चाहे मोबाइल फोन हों मेडिकल डिवाइस, भारत में हम जो प्रोडक्ट बनाते हैं उनके लिए आयात पर कुछ न कुछ निर्भरता रहती ही है।”
मेडिकल टेक्नोलॉजी कंपनी ट्रिविट्रॉन हेल्थकेयर के ग्रुप सीओओ सत्यकी बनर्जी के अनुसार, चीन से दो तरह के मेडिकल उपकरण आयात होते हैं। एक तो वे जो भारत में नहीं बनते। उनके आयात में कोई बुराई नहीं। दूसरे वे प्रोडक्ट हैं जिन्हें भारतीय मैन्युफैक्चरर बेहतर क्वालिटी के साथ बनाने में सक्षम हैं। कई बार कंपोनेंट पर आयात शुल्क अधिक और तैयार प्रोडक्ट पर कम होता है। तब भारतीय मैन्युफैक्चरर्स को गैर-वाजिब प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है।
हालांकि बनर्जी चीन से आयात बढ़ने की और वजह भी बताते हैं। भारत में हेल्थकेयर सेगमेंट के साथ अस्पताल लगातार बढ़ रहे हैं, इसलिए चीन से आयात भी बढ़ रहा है। कोविड-19 शुरुआती दिनों में बहुत से पीपीई प्रोडक्ट चीन से आयात किए गए थे। तब चीन से वेंटिलेटर और ऑक्सीजन कंसंट्रेटर भी काफी संख्या में आयात किए गए थे। भारत में अल्ट्रासाउंड उपकरणों का बाजार तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन इनमें इस्तेमाल होने वाले ट्रांसड्यूसर 90% चीन में ही बनते हैं।
आयात शुल्क घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को कैसे प्रभावित करता है, इसे रॉमसंस ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज के एमडी किशोर खन्ना स्पष्ट करते हैं। इस डिस्पोजेबल मेडिकल डिवाइस कंपनी के प्रमुख कहते हैं, “सरकार ने मोबाइल फोन आयात पर 15-20% ड्यूटी लगा दी। आज भारत में बिकने वाले 85% से ज्यादा फोन देश में ही बनते हैं। सरकार मेडिकल डिवाइस पर 15-20% ड्यूटी लगाने को भी तैयार नहीं है।” खन्ना के अनुसार, मैन्युफैक्चरिंग लागत के कारण ही हम सरकार से लेवल प्लेइंग फील्ड की मांग कर रहे हैं। चीन में कच्चा माल सस्ता है, सरकार की सब्सिडी मिलती है। हमें पहले निर्यात में जो इन्सेंटिव मिलता था, वह भी कम हो गया या खत्म हो गया है।
चीन से कैसे हो प्रतिस्पर्धा
राजीव नाथ के मुताबिक, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘आत्मनिर्भर भारत’ की बात कहते हैं, लेकिन अफसर तो यहां तक कह देते हैं कि आप चीन से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते तो फैक्ट्री बंद कर दीजिए, हम चीन से आयात कर लेंगे।” वे बताते हैं, कोरोना संकट के समय सरकार ने इंडस्ट्री से आगे आने को कहा। तब जो लोग डिवाइस नहीं बनाते थे वे भी आगे आए। लेकिन जब सरकार ने इंपोर्ट ड्यूटी 0% कर दी तो आयात बढ़ने लगा। जो लोग इस क्षेत्र में नए-नए आए थे उन्हें बड़ा धक्का लगा। उनकी मशीनरी बंद पड़ी है। वे पहले जो प्रोडक्ट बनाते थे अब सिर्फ वही बिजनेस कर रहे हैं। जब कोई फैक्ट्री बंद होती है तो मशीनरी या अन्य सामान की कोई कीमत नहीं होती, वह स्क्रैप में ही बिकता है।
इन्फिनिटी मेडिक्विप के अरोड़ा कहते हैं, “चीन में उत्पादन काफी बड़े पैमाने पर होता है। वहां कंपनियां 5 से 7 प्रतिशत मार्जिन पर भी प्रोडक्ट बना देती हैं। इतने मार्जिन पर कोई भारतीय कंपनी काम नहीं कर सकती, वह आरएंडडी पर कैसे खर्च करेगी। इन्वर्टेड ड्यूटी या बैरियर लगाकर ही हम इसमें आगे बढ़ सकते हैं।” उन्होंने बताया कि भारत में मजदूरी चीन से कम है। स्किल्ड लेबर चीन से 50% तक सस्ती है। इसलिए जहां काम श्रम सघन यानी लेबर इंटेंसिव है वहां हम धीरे-धीरे बेहतर कर रहे हैं।
अरोड़ा के अनुसार, “अगर मैं थर्मामीटर बनाता हूं तो उसका सेंसर और उसकी बैटरी बाहर से मंगानी पड़ती है। उसमें लगने वाले बटन सेल (बैटरी) भारत में बनते ही नहीं। वह ईकोसिस्टम कोई एक कंपनी नहीं बना सकती। उसके लिए पूरी इलेक्ट्रॉनिक्स इंड्स्ट्री को साथ आना पड़ेगा।”
एमआरपी का खेल
कई बार कंज्यूमर को कस्टम ड्यूटी से नहीं, एमआरपी से फायदा होता है। नाथ के अनुसार, अनेक प्रोडक्ट हैं जिनकी खुदरा कीमत आयातित कीमत से 10-20 गुना ज्यादा है। उदाहरण के लिए आईवी कैनुला को ही लीजिए। पहले यह भारत में 10 रुपये का बनता था और 20-25 रुपये में आयात होता था। प्रतिस्पर्धा के कारण भारत में इसकी एक्स-फैक्ट्री कीमत 6 रुपये से भी कम रह गई है। लेकिन 10 साल पहले जो एमआरपी 60-70 रुपये होती थी वह अब 120-150 रुपये पहुंच गई है। इंपोर्टेड पर मार्जिन अधिक होता है, इसलिए हमें भी मजबूरी में एमआरपी अधिक रखना पड़ता है। अगर हमारे प्रोडक्ट पर दुकानदार या अस्पताल को मार्जिन कम मिलेगा तो वह हमारा सामान ही नहीं लेगा।
इंडस्ट्री से नावाकिफ जांच अधिकारी
मेडिकल डिवाइस के लिए 15 साल से अलग नियम-कायदे लाने की बात चल रही है। नाथ के अनुसार, 2016 में मेडिकल डिवाइस रूल्स बनाए गए। सरकार ने 230 मेडिकल डिवाइस ऑफिसर बनाए, लेकिन इनमें कितने इंजीनियरिंग बैकग्राउंड के हैं। समस्या है कि जो इंस्पेक्टर जांच के लिए आता है उसे डिवाइस के बारे में जानकारी ही नहीं होती, वह ड्रग रूल्स के हिसाब से सोचता है। दवा जांचने वाले अधिकारी को ही मेडिकल डिवाइस ऑफिसर बना दिया जाता है। वह जांच में ऐसी चीजों की डिमांड करता है जिसकी हमें जरूरत ही नहीं पड़ती है।
रॉमसंस ग्रुप के किशोर खन्ना बताते हैं, मेडिकल डिवाइस ड्रग एवं कॉस्मेटिक्स एक्ट के तहत रेगुलेट होते हैं। ड्रग केमिकल प्रोडक्ट होते हैं जबकि मेडिकल डिवाइस इंजीनियरिंग प्रोडक्ट हैं। जांच इंस्पेक्टर ड्रग्स एक्ट के नियमों के तहत सवाल-जवाब करते हैं। मेडिकल डिवाइस के लिए अलग एक्ट तैयार किया जाना चाहिए। संसदीय समिति ने भी अलग मेडिकल डिवाइस एक्ट की सिफारिश की है। वे कहते हैं, “दुनिया में कहीं भी हम जब यह बताते हैं कि हमारे प्रोडक्ट ड्रग आइटम हैं तो उन्हें बड़ा आश्चर्य होता है।”
ड्रग्स एक्ट से रेगुलेट होने के कारण दवाओं की तरह डिवाइस निर्माता कंपनी के अधिकारियों के खिलाफ भी आपराधिक कार्रवाई की जा सकती है। इस वजह से बाहरी निवेशक इस क्षेत्र में आने से कतराते हैं। खन्ना के अनुसार, काम के मामले में हम किसी भी तरह चीन से पीछे नहीं, अगर समान अवसर मिले तो हम आसानी से चीन का मुकाबला कर सकते हैं। नाथ कहते हैं, फूड प्रोडक्ट के कानून को तो सरकार डिक्रिमिनलाइज कर चुकी है, लेकिन मेडिकल डिवाइस में अब भी डायरेक्टर के खिलाफ क्रिमिनल केस दायर करने का प्रावधान है।
इन्फिनिटी मेडिक्विप के अरोड़ा के मुताबिक, “मेडिकल डिवाइस के साथ इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस में आरएंडडी का ईकोसिस्टम बनाना पड़ेगा। वॉल्यूम के लिए निर्यात को भी बढ़ावा देना पड़ेगा। जब तक निर्यात नहीं होगा तब तक हम चीन के प्रतिस्पर्धी नहीं बन सकेंगे। आरएंडडी पर सब्सिडी भी देनी पड़ेगी। इसके अलावा टैरिफ और नॉन-टैरिफ बैरियर लगाना पड़ेगा।”
सिर्फ कहने का सिंगल विंडो
बीपीएल मेडिकल के खुराना के मुताबिक सिंगल विंडो क्लीयरेंस सिर्फ कहने की बात है। अप्रूवल के लिए काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ट्रिविट्रॉन हेल्थकेयर के सत्यकी बनर्जी इसका उदाहरण देते हुए कहते हैं, आज अगर आपको एक्स-रे उपकरण बनाने का लाइसेंस चाहिए तो पहले बीआईएस (BIS) के पास आवेदन करना पड़ेगा जो इलेक्ट्रोमैकेनिकल सेफ्टी की जांच करता है। उसके बाद एटॉमिक एनर्जी रेगुलेटरी बोर्ड (AERB) से साइट अप्रूवल लेना पड़ता है, जो रेडिएशन सेफ्टी की जांच करता है। फिर, आप किस तरह का प्रोडक्ट बनाना चाहते हैं उसका अप्रूवल चाहिए। अंत में सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (CDSCO) के अप्रूवल के लिए आवेदन करना पड़ता है। एक अप्रूवल के बाद ही दूसरे अप्रूवल की प्रक्रिया शुरू होती है, जिससे काफी वक्त लगता है। अगर पूरी प्रक्रिया सिंगल विंडो और एक साथ हो जाए तो काफी आसानी होगी।
राजीव नाथ कहते हैं, इन्हीं कारणों से हम बुनियादी चीजें भी आयात करने लगे हैं। आज आप किसी भी केमिस्ट के पास चले जाइए और भारत में बना थर्मामीटर, ब्लड प्रेशर जांचने की मशीन या ग्लूकोमीटर मांगिए, आपको कहीं नहीं मिलेगा। सिरिंज बनाने वाली अनेक कंपनियां नीडल का आयात करती हैं। भारतीय कंपनियों के पास सिरिंज बनाने की पर्याप्त क्षमता है, फिर भी हम हर साल 400 करोड़ रुपये का सिरिंज आयात करते हैं।
नाथ दावा करते हैं, “कोविड-19 संकट के समय हमने पूरी दुनिया को सिरिंज की सप्लाई की। हम सबसे बड़े निर्यातक थे। अब जब संकट कम हो गया है तो हम आयात करने लगे हैं। आज दुनिया में अगर 13 अरब से ज्यादा (WHO के अनुसार) वैक्सीन लगी हैं तो उसमें से 1.6 अरब के लिए सिरिंज हमने (हिंदुस्तान सिरिंजेज) दिया। हम डिस्पोजेबल सिरिंज के दुनिया के सबसे बड़े निर्माता हैं। डब्ल्यूएचओ और यूनिसेफ भी हमसे खरीदते हैं, लेकिन भारत में इंपोर्ट होता है।”
सरकारी विभाग ही नहीं मानते सरकार का आदेश
नाथ के मुताबिक, भारत में दो तरह के मार्केट हैं- सरकारी और निजी। निजी क्षेत्र में मार्जिन देखा जाता है। अगर कोई भारतीय मैन्युफैक्चरर कम दाम में प्रोडक्ट बना कर ले जाता है तो मार्जिन कम होने की बात कहकर रिटेलर या निजी अस्पताल उनसे नहीं खरीदते। यानी अगर कोई कंपनी सस्ता सामान बेचना चाहे तो वह नहीं बेच सकती है।
वे कहते हैं, सरकारी क्षेत्र में सबसे कम कीमत देखी जाती है। कुछ मंत्रालय और विभाग टेंडर में एफडीए का अप्रूवल जैसी शर्तें रखते हैं। जिस मैन्युफैक्चरर ने अमेरिका में कभी प्रोडक्ट बेचा नहीं, वह एफडीए का अप्रूवल कैसे ला सकता है। ऐसी शर्तों के कारण भारतीय मैन्युफैक्चरर बोली में हिस्सा नहीं ले पाते हैं। सरकारी खरीद में घरेलू मैन्युफैक्चरर को तरजीह देने का आदेश जारी हुआ था, लेकिन उसका पालन नहीं हो रहा है। डीपीआईआईटी ने इस सिलसिले में 20 दिसंबर को अन्य विभागों को पत्र भी लिखा है।
ट्रिविट्रॉन हेल्थकेयर के बनर्जी बताते हैं, “चीन के घरेलू बाजार में इस्तेमाल के लिए शायद ही मेडिकल उपकरण आयात किए जाते हों। वहां चाइनीज मैन्युफैक्चरर्स को तरजीह दी जाती है। भारत में भी सरकारी खरीद में भारतीय निर्माताओं को वरीयता मिलनी चाहिए।” अभी सरकार हाई एंड प्रोडक्ट के लिए ही प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव (PLI) दे रही है। अगर सस्ते, लेकिन बड़े पैमाने पर बिकने वाले प्रोडक्ट के लिए भी सरकार इन्सेंटिव दे तो उनमें निवेश काफी बढ़ सकता है।
बनर्जी के मुताबिक सरकारी खरीद में भुगतान की प्रक्रिया भी आसान की जानी चाहिए। जैसे, किसी प्रोडक्ट की सप्लाई के बाद अस्पताल ने उसे चेक कर लिया कि वह सही तरीके से काम कर रहा है तो तत्काल उसकी पेमेंट कर दी जानी चाहिए। अभी आयात करने पर तो भुगतान जल्दी हो जाता है, लेकिन घरेलू निर्माताओं को भुगतान के लिए काफी जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। नाथ के अनुसार दो महीने के प्रावधान के बावजूद कई बार पेमेंट मिलने में छह महीने लग जाते हैं।
संसदीय समिति अलग रेगुलेटर के पक्ष में
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण पर संसद की स्थायी समिति ने नवंबर में लोकसभा में अपनी रिपोर्ट पेश की थी। इसमें कई महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं। मेडिकल डिवाइस के लिए राष्ट्रीय आयोग बने जो इंडस्ट्री के सभी पहलुओं पर विचार करे और व्यापक कानून लाए। इस इंडस्ट्री के लिए नया और अलग रेगुलेटर बने। उसके कर्मचारियों को इंडस्ट्री के कामकाज के तौर-तरीकों की जानकारी हो, वह तकनीकी रूप से दक्ष हो। नाथ के अनुसार, अगर समिति की 70% सिफारिशें भी सरकार लागू कर दे तो हम काफी हद तक आत्मनिर्भर हो जाएंगे।
नाथ के अनुसार, कई प्रोडक्ट के मामले में हम शीर्ष 5 या शीर्ष 10 देशों में पहुंच गए हैं। सिरिंज, नीडल, आईवी कैनुला, सर्जिकल ब्लेड, इंट्राऑकुलर लेंस, कांट्रेसेप्टिव, सर्जिकल ग्लव्स के मामले में हम टॉप 5 देशों में हैं। लेकिन उस पोजीशन को बरकरार रखने और रैंकिंग में ऊपर आने के लिए मदद की जरूरत है। एक तरफ सर्जिकल ग्लव्स में हम शीर्ष 5 देशों में हैं, तो दूसरी तरफ एग्जामिनेशन ग्लव्स के सबसे बड़े आयातक भी हैं। मलेशिया तथा थाईलैंड से हम इनका आयात करते हैं।
मेडिकल डिवाइस पर ड्यूटी बढ़ाने की मांग करते हुए नाथ कहते हैं, “जरूरी नहीं कि ड्यूटी बढ़ाने पर प्रोडक्ट महंगे हो जाएंगे, क्योंकि तब ट्रेडर-सप्लायर अपना मार्जिन कम करेंगे। तभी घरेलू मैन्युफैक्चरर्स प्रतिस्पर्धा कर सकेंगे।” नाथ का सुझाव है, हम साल में 63000 करोड़ रुपये के मेडिकल डिवाइस का आयात करते हैं। सरकार इस पर 5% सेस लगा दे और उस रकम का इस्तेमाल इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट में, कॉमन फैसिलिटी सेंटर बनाने में हो। इससे घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को सपोर्ट मिलेगी।