दिल्ली-एनसीआर में हर साल 0.2 मीटर घटता भूजल स्तर बना खतरा, यहां 80% इमारतें बड़े भूकंप झेलने में सक्षम नहीं
पूर्वी दिल्ली लुटियंस दिल्ली सरिता विहार पश्चिम विहार वजीराबाद करोल बाग और जनकपुरी जैसे इलाकों में बहुत आबादी रहती है इसलिए वहां खतरा ज्यादा है। रिपोर्ट के मुताबिक छतरपुर नारायणा वसंत कुंज जैसे इलाके बड़ा भूकंप झेल सकते हैं।
नई दिल्ली, अनुराग मिश्र। जोशीमठ में जमीन धंसने की घटना ने देश भर में ऐसी घटनाएं होने के संकेत के साथ सबक भी दिए हैं। यह घटना बताती है कि अगर हम नहीं चेते तो पूरे देश में ऐसे हादसे घट सकते हैं। दिल्ली-एनसीआर के लिए भी यह एक चेतावनी है कि हमें अपने आपदा-प्रबंधन को पुख्ता करना होगा। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि यमुना के मैदानी इलाकों को भूकंप से ज्यादा खतरा है। पूर्वी दिल्ली, लुटियंस दिल्ली, सरिता विहार, पश्चिम विहार, वजीराबाद, करोल बाग और जनकपुरी जैसे इलाकों में बहुत आबादी रहती है, इसलिए वहां खतरा ज्यादा है। रिपोर्ट के मुताबिक, छतरपुर, नारायणा, वसंत कुंज जैसे इलाके बड़ा भूकंप झेल सकते हैं।
सरकार की तरफ से संसद में दी गई जानकारी के अनुसार देश में 2020 में तीन या उससे अधिक तीव्रता के 956 भूकंप दर्ज किए गए। वहीं, दिल्ली-एनसीआर और उसके आस-पास के इलाकों में 13 भूकंप दर्ज किए गए। देश-दुनिया के बड़े संस्थानों की रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली-एनसीआर में जिस तरह भूजल का दोहन किया जा रहा है उससे एक दायरे में जमीन धंसने का खतरा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली-एनसीआर के कुछ इलाकों की जल्द निगरानी की आवश्यकता है। इनमें समालखा, बिजवासन, कापसहेड़ा, साध नगर, बिंदापुर, महावीर एनक्लेव, गुरुग्राम का सेक्टर-22 ए और सी, फरीदाबाद के संजय गांधी मेमोरियल नगर का पॉकेट ए, बी और सी शामिल हैं।
दिल्ली और आसपास जमीन धंसने का खतरा
जिस तरह दिल्ली और आसपास के इलाकों में भूजल निकाला जा रहा है उससे 100 किलोमीटर के दायरे में जमीन धंसने का खतरा बढ़ गया है। अनुसंधानकर्ताओं ने सैटलाइट डेटा के उपयोग से पता किया है कि राष्ट्रीय राजधानी के करीब 100 वर्ग किलोमीटर इलाके में जमीन धंसने का खतरा ज्यादा है। इनमें 12.5 वर्ग किलोमीटर का इलाका कापसहेड़ा में है, जो आईजीआई एयरपोर्ट से महज 800 मीटर के फासले पर है। आईआईटी बॉम्बे, जर्मन रिसर्च सेंटर ऑफ जियोसाइंसेस और अमेरिका की कैंब्रिज और साउदर्न मेथडिस्ट यूनिवर्सिटी के संयुक्त अध्ययन में पाया गया कि एयरपोर्ट के आसपास जिस तेजी से जमीन धंसने का दायरा बढ़ रहा है, उससे लगता है कि जल्द ही एयरपोर्ट भी इसके जद में आ जाएगा।
वर्ष 2014-2016 के दौरान, धंसने की दर लगभग 11 सेमी प्रति वर्ष थी जो अगले दो वर्षों में लगभग 50 फीसद बढ़कर लगभग 17 सेमी प्रति वर्ष हो गई। 2018-2019 के दौरान यह दर तकरीबन समान रही।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज के शोधकर्ता शगुन गर्ग ने क्वालालंपुर एयरपोर्ट का उदाहरण देते हुए कहा कि आईजीआई एयरपोर्ट की लगातार निगरानी की आवश्यकता है। क्वालालंपुर एयरपोर्ट पर टैक्सियों के गुजरने वाले रास्ते पर दरारें आ गई थीं और साइट सेटलमेंट के कारण पानी जम गया था। गर्ग ने कहा कि हवाईअड्डे के लिए स्थिर जमीन की आवश्यकता है।
एयरपोर्ट से 500 मीटर की दूरी पर महिपालपुर इलाके में भी जमीन धंसने की दर में लगातार इजाफा हो रहा है। वहां 2018-19 में जमीन 500 मिलीमीटर धंस गई। रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली-एनसीआर के कुछ इलाकों की जल्द निगरानी की आवश्यकता है। इनमें समालखा, बिजवासन, कापसहेड़ा, साध नगर, बिंदापुर, महावीर एनक्लेव, गुरुग्राम का सेक्टर-22 ए और सी, फरीदाबाद के संजय गांधी मेमोरियल नगर का पॉकेट ए, बी और सी शामिल हैं।
देश में गंगा के मैदानी इलाकों में बसे कई शहरों में जमीन धंसने का खतरा है। इनमें दिल्ली भी एक है, जो दुनिया के सबसे तेजी से फैलते महानगरों में एक है। दिल्ली में जनसंख्या घनत्व 30,000 प्रति वर्ग मील है। अनुमान है कि 2028 तक 3.7 करोड़ की आबादी के साथ यह दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला शहर बन जाएगा।
दिल्ली में लगातार गिर रहा है भूजल का स्तर
केंद्रीय भूजल आयोग (सीजीडब्ल्यूबी) की नवीनतम रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली हर साल औसतन 0.2 मीटर भूजल खो रही है। इस लिहाज से हर दिन दिल्ली की जमीन के नीचे का पानी 0.05 सेंटीमीटर नीचे जा रहा है। रिपोर्ट बताती है कि यहां के करीब 80 फीसदी स्त्रोत क्रिटिकल या सेमी क्रिटिकल स्थिति में आ चुके हैं। मतलब, इन इलाकों में भूजल का दोहन गंभीर स्तर तक किया जा रहा है।
रिपोर्ट बताती है कि साल 2020 में दिल्ली के 11 जिलों में 34 जगहों के सैंपल की जांच हुई तो उसमें 50 फीसदी यानी 17 यूनिट अति शोषित पाई गईं। सात यूनिट (20.59%) क्रिटिकल और अन्य सात यूनिट सेमी क्रिटिकल पाई गईं। केवल तीन यूनिट यानी 8.82% ही सुरक्षित पाई गई हैं। दूसरी तरफ राज्य के 1487.61 वर्ग किमी पुनर्भरण योग्य क्षेत्र में से 769.58 वर्ग किमी (51.73%) अति-शोषित पाया गया। 348.81 वर्ग किमी (23.45%) क्रिटिकल, 222.06 वर्ग किमी (14.93%) सेमी क्रिटिकल मिला। जबकि 147.16 वर्ग किमी (9.89%) ही सुरक्षित माना गया।
तेहरान में हर साल 25 सेंटीमीटर धंस रही जमीन
हाल ही में नेचर पत्रिका में छपे एक अन्य शोध से पता चला कि ईरान में जिस तरह से भूजल का दोहन हो रहा है उसके चलते वहां की राजधानी तेहरान में कई जगह जमीन 25 सेंटीमीटर प्रतिवर्ष की दर से धंस रही है। इसी तरह पिछले 10 वर्षों में इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता 2.5 मीटर तक नीचे जा चुकी है। कुछ जगहों पर यह 25 सेंटीमीटर की दर से धंस रही है।
भूकंप के पांच जोन
भूकंप के खतरे के हिसाब से देश को चार हिस्सों में बांटा गया है- जोन-2, जोन-3, जोन-4 तथा जोन 5। इनमें सबसे कम खतरे वाला जोन 2 है तथा सबसे ज्यादा खतरे वाला जोन-5 है। नार्थ-ईस्ट के सभी राज्य, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्से जोन-5 में आते हैं। उत्तराखंड के कम ऊंचाई वाले हिस्सों से लेकर उत्तर प्रदेश के ज्यादातर हिस्से और दिल्ली जोन-4 में आते हैं। मध्य भारत अपेक्षाकृत कम खतरे वाले हिस्से जोन-3 में आता है, जबकि दक्षिण के ज्यादातर हिस्से सीमित खतरे वाले जोन-2 में आते हैं, लेकिन यह एक मोटा वर्गीकरण है। दिल्ली में कुछ इलाके हैं, जो जोन-5 की तरह खतरे वाले हो सकते हैं। इस प्रकार दक्षिणी राज्यों में कई स्थान ऐसे हो सकते हैं, जो जोन-4 या जोन-5 जैसे खतरे वाले हो सकते हैं। जोन-5 में भी कुछ इलाके हो सकते हैं, जहां भूकंप का खतरा बहुत कम हो और वे जोन-2 की तरह कम खतरे वाले हों।
दिल्ली-एनसीआर की हर ऊंची इमारत असुरक्षित नहीं
दिल्ली-एनसीआर की हर ऊंची इमारत असुरक्षित नहीं है। इस बात की तसदीक वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गई हालिया रिपोर्ट में भी की गई है। वैज्ञानिकों के अनुसार, यह कहना गलत है कि यहां की हर ऊंची इमारत भूकंप के कम तीव्रता के झटकों में दरक जाएगी। हालांकि, अपनी रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने चेताया भी है कि इन इमारतों का गलत तरीके से निर्माण इन्हें रेत में भी धंसा सकता है। वैज्ञानिकों ने यह भी कहा है कि सिस्मिक जोन-4 में आने वाली राजधानी दिल्ली भूकंप के बड़े झटके से खासा प्रभावित हो सकती है। अगर यहां 7 की तीव्रता वाला भूकंप आया तो दिल्ली की कई इमारतें और घर रेत की तरह भरभराकर गिर जाएंगे। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यहां की इमारतों में इस्तेमाल होने वाली निर्माण सामग्री ऐसी है, जो भूकंप के झटकों का सामना करने में पूरी तरह से सक्षम नहीं है। दिल्ली में मकान बनाने की निर्माण सामग्री ही आफत की सबसे बड़ी वजह है। इससे जुड़ी एक रिपोर्ट वल्नरेबिलिटी काउंसिल ऑफ इंडिया ने तैयार की थी, जिसे बिल्डिंग मैटेरियल एंड टेक्नोलॉजी प्रमोशन काउंसिल ने प्रकाशित किया है।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली के 91.7 प्रतिशत मकानों की दीवारें पक्की ईंटों से बनी हैं, जबकि कच्ची ईंटों से 3.7 प्रतिशत मकानों की दीवारें बनी हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि कच्ची या पक्की ईंटों से बनी इमारतों में भूकंप के दौरान सबसे ज्यादा दिक्कत आती है। इस मैटेरियल से बिल्डिंग बनाते वक्त सावधानी बरतनी चाहिए और विशेषज्ञों से सलाह जरूर लेनी चाहिए। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट के चंदन घोष ने कहा कि रियल एस्टेट एजेंसियों, कांट्रेक्टर, बिल्डर, आर्किटेक्ट, प्लानर्स, बिल्डिंग मालिकों, कंस्ट्रक्शन मैटेरियल सप्लायर्स, सिविल इंजीनियर्स, नगरपालिका अधिकारियों, डीडीए, एमसीडी, डीयूएसी, दिल्ली फायर सर्विस, पुलिस आदि को नेशनल बिल्डिंग कोड 2016 का पालन करना चाहिए।
इसलिए आते हैं भूकंप
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आर बी. सिंह का कहना है कि 90 प्रतिशत भूकंप टेक्टोनिक प्लेट के मूवमेंट के कारण आते हैं। पहली बात, दिल्ली में करोल बाग, पुरानी दिल्ली के इलाकों की इमारतों पर ध्यान देने की जरूरत है। इससे भविष्य की किसी घटना से बचा जा सकता है। दूसरा, लगातार भूकंप को किसी बड़े भूकंप की आहट के तौर पर माना जा सकता है। पर मौजूदा समय में ऐसी कोई एक तकनीक नहीं है जिसका आकलन कर यह कहा जा सके कि भूकंप कब आएगा और यह भूकंप किसी बड़े भूकंप का अंदेशा है। कई वैज्ञानिक और सांस्कृतिक आधार (जैसे कि पक्षियों का व्यवहार) आदि भी स्पष्ट आधार नहीं है। हमें सिंथेटिक एपर्चर रडार तकनीक को विकसित करना होगा।
भूकंप नहीं झेल पाने वालों की सूची में शॉपिंग मॉल भी
दिल्ली विकास प्राधिकरण ने राजधानी दिल्ली की तीन सौ ऐसी इमारतों की सूची तैयार की है, जो तेज भूकंप के झटके नहीं झेल पाएंगी। इन इमारतों में ग्रुप हाउसिंग सोसायटी और बड़ी व्यावसायिक इमारतें एवं शॉपिंग मॉल भी हैं। यह सभी इमारतें 21 मार्च 2001 से पूर्व की बनी हुई हैं। इसके बावजूद इनका सुरक्षा ऑडिट नहीं कराया गया।
पुराने मकानों को भी बना सकते हैं भूकंपरोधी
चंदन घोष कहते हैं कि पुराने भवनों को रेट्रोफिटिंग के जरिए भूकंपरोधी बनाया जा सकता है। इसके तहत पुराने भवन जो पिलर पर नहीं बने हैं, उनमें दरवाजों और खिड़कियों के ऊपर वाले हिस्सों में जहां से छत शुरू होती है, लिंटर बैंड डाले जाते हैं। इसके तहत भवन की चारों दीवारों के कोनों को लिंटर बैंड के जरिए आपस में जोड़ दिया जाता है। लिंटर बैंड में लोहे की नई स्टील की छड़ें इस्तेमाल होती हैं, जो कहीं ज्यादा मजबूत होती हैं।
इन इमारतों में सबसे ज्यादा भूकंप का खतरा
जब भूकंप आता है तो सबसे ज्यादा खतरा उन भवनों को होता है, जो पिलर पर खड़े नहीं होते हैं। भूकंप के दौरान पिलर पर खड़ी इमारत एक साथ हिलती है, जबकि बिना पिलर की इमारत की चारों दीवारें स्वतंत्र रूप से अलग-अलग हिलती हैं। इसलिए भवन गिरने लगते हैं। रेट्रोफिटिंग बिना पिलर वाली इमारतों को काफी हद तक जोड़ देती है और दीवारें अलग-अलग नहीं हिलती हैं। यह भूकंप के खतरे को सौ फीसदी तो नहीं, पर 80 फीसदी तक कम कर देती है। लेकिन आमतौर पर छोटे घरों में रेट्रोफिटिंग कर पाना मुमकिन नहीं हो पाता।
हाईराइज बिल्डिंग के लिए स्ट्रक्चरल इंजीनियर की स्वीकृति जरूरी
भूकंपरोधी हाईराइज बिल्डिंग बनाने के लिए स्ट्रक्चरल इंजीनियर की स्वीकृति जरूरी है। इसके बिना इमारत नहीं बनाई जा सकती। इस मंजूरी के बाद फायर विभाग से कंप्लीशन सर्टिफिकेट मिलता है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि दिल्ली-एनसीआर में बन रही बहुमंजिला इमारतों के लिए महज 30 फीसदी बिल्डर इस प्रक्रिया के तहत निर्माण कर रहे हैं। जानकारों का कहना है कि न सिर्फ निर्माण सामग्री, बल्कि उसकी नींव और डिजाइन की भी जांच की जाती है। जांच में डिजाइन और नींव पास होने पर ही इमारत भूकंपरोधी मानी जाती है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) में सस्टेनेबल हैबिटैट प्रोग्राम के निदेशक रजनीश सरीन बताते हैं कि पिछले दो दशकों के दौरान दिल्ली एनसीआर में निर्माण कार्य तेजी से हुआ है। यहां 30-35 मंजिला इमारतें भी बड़ी संख्या में बनी हैं। इनमें मानदंडों की अनदेखी गई है। इसके अलावा जिन बिल्डिंगों को बने 30 साल हो चुके हैं, उन्हें भी सुरक्षित नहीं कहा जा सकता।
अगर प्लॉट लेकर बनाना हो मकान
प्लॉट लेकर मकान बनाने से पहले यह जरूरी है कि आप उस जगह की मिट्टी की जांच अवश्य कर लें। मुम्बई पीडब्ल्यूडी के आर्किटेक्ट संतोष ने बताया कि इस जांच में उस निर्धारित स्थान की क्षमता, मिट्टी की संपूर्ण स्थिति आदि की जानकारी मिल सकती है। इस मुआयने में ही मकान के नक्शे और मंजिलों की संख्या भी तय की जा सकती है। भूकंपरोधी घर बनाने के लिए उसका पैटर्न और शेप भी अहम माने जाते हैं। आज की आरसीसी तकनीक में इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
इस तकनीक के तहत भूकंपरोधी घरों में आयताकार, सी शेप, एल शेप या क्रॉस शेप सबसे ज्यादा प्रभावशाली मानी गई है। साथ ही भूकंपरोधी मकान बनाने के लिए पहले जहां लोड बियरिंग स्ट्रक्चर बनाया जाता था, वहीं अब फ्रेम स्ट्रक्चर बनाए जाते हैं। फ्रेम स्ट्रक्चर में पूरी इमारत कॉलम पर खड़ी की जाती है। मकान की मजबूती उसमें इस्तेमाल स्टील या सरियों पर आधारित होती है। दिल्ली पीडब्ल्यूडी के पूर्व वरिष्ठ आर्किटेक्चर ने बताया कि अगर पूरे मकान में तीन टन सरिये का इस्तेमाल होना है, तो उसे भूकंपरोधी बनाने के लिए सरिये की मात्रा पांच प्रतिशत बढ़ जाएगी। आमतौर पर मकान खर्च 50 लाख है तो भूकंपरोधी बनाने में इसका खर्च 15 प्रतिशत बढ़ सकता है।
भूकंपरोधी उपाय अपनाने की आवश्यकता
आईआईटी रुड़की के प्रोफेसर एम एल शर्मा कहते हैं कि दिल्ली-एनसीआर में लगातार आ रहे भूकंप के बारे में कोई आकलन करना गलत होगा। दिल्ली-एनसीआर में मौजूद फाल्ट की वजह से यह भूकंप आ रहे हैं। कभी यह फ्रीक्वेंसी बढ़ जाती है तो कभी कम हो जाती है। बेहतर यह है कि हमें भूकंप बचाव रोधी उपाय अपनाने चाहिए। पुरानी इमारतों, जगहों की रेट्रोफिटिंग की जानी चाहिए।
आईआईटी कानपुर के नेशनल इंफॉर्मेशन सेंटर ऑफ अर्थक्वेक इंजीनियरिंग के संयोजक प्रोफेसर दुर्गेश सी राय का कहना है कि दिल्ली-एनसीआर में जिस तरह के लोकल फाल्ट से बार-बार भूकंप आ रहे हैं उससे किसी बड़े भूकंप की उम्मीद कम है। उन्होंने कहा कि हिमालय बेल्ट में तीव्रता से आने वाले भूकंप दिल्ली-एनसीआर को प्रभावित कर सकते हैं। अगर वहां ऐसा लगातार घटता है तो यह खतरे की घंटी हो सकती है। ऐसे में सबसे प्रमुख यह है कि हम अपने घरों को भूकंपरोधी बनाएं।
खतरे के ढेर पर खड़ी दिल्ली, बेढंगे तरीके से विकास
दिल्ली का विकास बहुत ही बेढंगे तरीके से हुआ है। यहां कालोनियों का निर्माण काफी सघन है। साथ ही अवैध निर्माण से राजधानी मौत के ढेर पर खड़ी है। राजधानी की दो-तिहाई आबादी अवैध रूप से निर्मित मकानों में रह रही है। कुछ सालों पहले बिना भूकंप के ही लक्ष्मी नगर में गिरी इमारत गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है। दिल्ली में यमुना किनारे स्थित इलाके सर्वाधिक खतरे के दायरे में आते हैं।
पुराने घरों को भी बना सकते हैं भूकंपरोधी
चंदन घोष कहते हैं कि कई साल पहले भूकंपरोधी निर्माण तकनीक उपलब्ध नहीं थी। तब जो भवन, पुल आदि बने थे उनमें इन तकनीक का इस्तेमाल नहीं हो पाया था, लेकिन अब जब यह खतरा बढ़ रहा है और हमारे पास ऐसी तकनीक हैं कि उन्हें भूकंपरोधी बनाया जाए तो इस दिशा में पहल होनी चाहिए। भू्कंप के हिसाब से संवेदनशील क्षेत्रों में इन तकनीक को लोग अपना भी रहे हैं।
तैयार फ्लैट लेते समय रखें ध्यान
प्लॉट की बजाय अगर आप बना-बनाया फ्लैट लेने जा रहे हैं तो इसमें भी आपके पास कुछ विकल्प बचते हैं। संतोष ने बताया कि तैयार घर में आपको बिल्डर से सर्टिफिकेट लेना जरूरी है। यह सर्टिफिकेट नेशनल बिल्डिंग कोड के तहत ही होना चाहिए। यही नहीं, घर में इस्तेमाल मैटीरियल जिसमें कंक्रीट, सीमेंट, ईंट, सरिये आदि की जांच होनी चाहिए। घर में प्रयोग हुए प्लास्टर, कॉलम बेस आदि सभी की पूरी जांच पड़ताल करनी चाहिए।
घर में लगे कॉलम की मोटाई और संख्या, निर्माण में इस्तेमाल हुई मिट्टी की स्थिति आदि का पता लगाना जरूरी है। साथ ही घर की शेप, पेटर्न, खिड़कियों और अन्य चीजों की बनावट आदि का मुआयना किसी स्ट्रक्चर इंजीनियर से करवाना चाहिए। अगर आप फ्लोर बना रहे हैं तो अतिरिक्त खर्च 10 फीसदी रहेगा।
जापान से ली जा सकती है सीख
चंदन घोष का कहना है कि जापान में बनने वाली इमारतें अच्छी गुणवत्ता की होती है। उनमें मजबूती के साथ लचीलापन भी होता है। वे हिलडुल कर फिर से सीधी खड़ी हो सकती हैं, लेकिन दिल्ली की इमारतों में ऐसा कुछ नहीं है, जो इस पैमाने के भूकंप को झेल सके।