नई दिल्ली, अनुराग मिश्र/विवेक तिवारी। फरवरी में मौसम का मिजाज गड़बड़ाने लगा है। तापमान में लगातार बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। बढ़ते तापमान के मद्देनजर कृषि वैज्ञानिक और शोध एजेंसियां गेहूं उत्पादन प्रभावित होने की बात करने लगी हैं। इस बीच, सरकार ने गेहूं की फसल पर तापमान में वृद्धि के प्रभाव की निगरानी के लिए एक समिति का गठन किया है। यह कदम राष्ट्रीय फसल पूर्वानुमान केंद्र (एनसीएफसी) के इस अनुमान के बीच आया है कि मध्य प्रदेश को छोड़कर प्रमुख गेहूं उत्पादक क्षेत्रों में अधिकतम तापमान फरवरी के पहले सप्ताह के दौरान पिछले सात वर्षों के औसत से अधिक था। मौसम विभाग ने भी गुजरात, जम्मू, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में तापमान सामान्य से अधिक रहने का अनुमान जताया है। हालांकि भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान गेहूं उत्पादन में कमी की आशंका को फिलहाल सही नहीं मान रहे हैं।

पिछले तीन दशकों में जलवायु परिवर्तन के चलते पूरे देश में औसत तापमान में वृद्धि और अत्यधिक बारिश की घटनाएं हो रही हैं। इसका असर फसलों के उत्पादन पर भी पड़ा है। गेहूं एक प्रमुख खाद्यान्न फसल है, जो न केवल भारत बल्कि दुनिया भर में लोगों के पोषण का एक प्रमुख स्रोत है। नेचर जर्नल में प्रकाशित प्रोबेबिलिस्टिक एसेसमेंट ऑफ एक्सट्रीम हीट स्ट्रेस ऑन इंडियन वीट यील्ड्स अंडर क्लाइमेट चेंज रिपोर्ट बताती है कि फरवरी और मार्च में जब गेहूं के दाने बन रहे होते हैं, उस वक्त यदि तापमान 34 डिग्री सेल्सियस से अधिक होता है तो पंजाब, हरियाणा, यूपी में किसानों को औसत से कम उपज मिलती है।

भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान के प्रिंसिपल साइंटिस्ट ज्ञानेंद्र सिंह कहते हैं कि सेंट्रल पेनिनसुला (राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, ओडिशा) और पूर्व भारत में गेहूं की फसल मैच्योरिटी के करीब पहुंच चुकी है। उत्तरी भारत में दाना पड़ने की स्थिति आ चुकी है। वह कहते हैं कि जब रात का तापमान ठंडा होता है तो गेहूं को अधिक दिक्कत नहीं होती है। रात का तापमान लगातार सात दिन तक 15 डिग्री से ऊपर गया तो फसल प्रभावित हो सकती है।

क्रिसिल की रिपोर्ट ने दी चेतावनी

शोध एजेंसी क्रिसिल का कहना है कि अगर मार्च में अधिक तापमान बना रहता है तो देर से बुवाई के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मामूली गिरावट देखी जा सकती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पंजाब और हरियाणा में देर से बोए गए गेहूं में अभी फूल लगे हैं, जबकि जल्दी बोए गए गेहूं के दानों में अभी दूध बनने की अवस्था है। अधिक तापमान इन दोनों चरणों के लिए हानिकारक हैं। दोनों राज्यों का सालाना गेहूं उत्पादन में 25 प्रतिशत का योगदान है। इसी तरह बिहार में गेहूं की जल्दी बुवाई हुई है और वहां फसल अनाज बनने/परिपक्वता के चरण में है, जिस पर गर्मी का अपेक्षाकृत कम प्रभाव हो सकता है।

क्रिसिल की रिपोर्ट के अनुसार इस तरह के हालात को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करना मुश्किल है लेकिन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी में किसान पहले से ही बायो-स्टिमुलेन्ट (जैव-उत्तेजक) और विशेष उर्वरक जैसे पोषक तत्वों का छिड़काव कर रहे हैं। इससे कुछ हद तक गेहूं को गर्मी से बचाने में मदद मिलनी चाहिए।

जलवायु परिवर्तन का गंगा के तराई वाले इलाकों में अधिक असर

नेशनल इनोवेशन ऑन क्लाइमेट रेजिलिएंट एग्रीकल्चर (एनआईसीआरए) के तहत किए गए अध्ययनों में भारत में वर्षा आधारित चावल की पैदावार 2050 से 2080 में मामूली रूप से (2.5%) कम होने, 2050 में सिंचित चावल की पैदावार 7 फीसदी और 2080 तक के परिदृश्यों में 10 फीसदी कम होने का अनुमान लगाया गया है। 2100 तक गेहूं की उपज 6 से 25 फीसदी और मक्का की 18 से 23 फीसदी तक कम होने का अनुमान है।

जलवायु परिवर्तन के चलते बढ़ती गर्मी से गेहूं के उत्पादन में कमी दर्ज की जा रही है। वैज्ञानिकों के मुताबिक बढ़ती गर्मी और पानी की कमी के चलते आने वाले समय में पूरी दुनिया के सामने खाद्य सुरक्षा को लेकर बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है। भारत में गेहूं का सबसे अधिक उत्पादन गंगा के तराई वाले इलाके में होता है। हाल के एक अध्ययन में पाया गया कि बढ़ती गर्मी और पानी की कमी के चलते गेहूं की पैदावार में काफी कमी आई है।

गंगा का मैदानी क्षेत्र (IGP) भारत और दुनिया के मुख्य गेहूं-उत्पादन क्षेत्रों में एक है। नॉर्वे, भारत, चीन और यूके के वैज्ञानिकों ने मिल कर बढ़ती गर्मी और क्लाइमेट चेंज के चलते इस इलाके में गेहूं के उत्पादन पर पड़ने वाले असर का अध्ययन किया। अध्ययन में पाया गया कि जलवायु परिवर्तन के साथ इस क्षेत्र में तापमान और वर्षा में परिवर्तन और सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता में कमी के चलते आने वाले दिनों में गेहूं की पैदावार में काफी कमी आ सकती है। ये राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिए बड़ी चिंता का विषय है।

सीधे तौर पर गिरा उत्पादन

वैज्ञानिकों ने गंगा के मैदानी इलाके वाले राज्यों में चार स्थानों पर गेहूं की पैदावार पर जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष (तापमान और वर्षा में परिवर्तन) और अप्रत्यक्ष (सिंचाई की उपलब्धता में कमी) प्रभावों को बेहतर ढंग से समझने के लिए एक क्षेत्रीय जलवायु मॉडल और एक फसल मॉडल का अध्ययन किया। इन राज्यों में प्रमुख रूप से पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार शामिल रहे। वैज्ञानिकों ने पाया कि औसत तापमान में बढ़ोतरी, वर्षा के साथ बदलते मौसम या रबी मौसम (नवंबर-अप्रैल) के दौरान अधिकतम तापमान में वृद्धि का सीधा असर फसल पर पड़ता है। जांच में पाया गया कि जिन चार जगहों पर अध्ययन किया गया वहां तापमान बढ़ने पर गेहूं उत्पादन में पैदावार में 1% से 8% तक कमी आई।

जलवायु परिवर्तन का अप्रत्यक्ष असर

वैज्ञानिकों ने पाया कि जलवायु परिवर्तन के अप्रत्यक्ष प्रभाव, जैसे पानी की उपलब्धता कम होने से सिंचाई में कमी के चलते उत्पादन में 4% से 36% तक की कमी आई है। इससे पता चलता है कि गंगा के मैदानी इलाकों में जलवायु परिवर्तन के चलते उत्पादन में काफी कमी आ सकती है।

रूस- यूक्रेन युद्ध का भी उत्पादन पर असर

रूस- यूक्रेन युद्ध के बाद पूरी दुनिया में गेहूं की कीमतें तेजी से बढ़ी हैं। अनाज व्यापारी, खाद्य कंपनियां और सरकारें आपूर्ति पर कड़ी नजर रख रही हैं। यूएसडीए ने हाल ही कहा है कि वर्तमान हालात के चलते यूक्रेन का गेहूं उत्पादन एक साल पहले की अपेक्षा 35 प्रतिशत से अधिक घटकर 21.5 मिलियन टन रह जाएगा। यूएसडीए ने 2022-23 में कुल वैश्विक गेहूं उत्पादन 774.8 मिलियन टन होने का अनुमान लगाया है, जो 2018-19 के बाद पहली गिरावट है।

गेहूं की इन किस्मों पर नहीं पड़ेगा गर्मी का असर

IARI के वैज्ञानिकों ने गेहूं की तीन किस्में विकसित की हैं, जिनमें सभी जीन्स को शामिल किया गया है। ये समय से पहले फूल आने और जल्दी बढ़ने में सहायक होंगे। वैज्ञानिकों ने पहली किस्म का नाम HDCSW-18 दिया है। इसे 2016 में आधिकारिक रूप से अधिसूचित किया गया था। यह पहले से मौजूद HD-2967 और HD-3086 किस्म की तुलना में अधिक उपज देती है। HDCSW-18 से आप प्रति हेक्टेयर 7 टन से अधिक गेहूं की उपज प्राप्त कर सकते हैं। वहीं, HD-2967 और HD-3086 से प्रति हेक्टेयर 6-6.5 टन पैदावार मिलती है।

किसानों को दी गई सलाह

पंजाब और हरियाणा में न्यूनतम तापमान सामान्य से ज्यादा रहने के मद्देनजर करनाल स्थित भारतीय गेहूं एवं जौ शोध संस्थान ने गेहूं उत्पादकों को सलाह दी है-

  •  फसल में आवश्यकता अनुसार हल्की सिंचाई करते रहें।
  •  हवा तेज चलने लगे तो पौधों को गिरने से बचाने के लिए सिंचाई बंद कर देनी चाहिए। -जिन किसानों के पास स्प्रिंकलर सिंचाई की सुविधा है वे तापमान बढ़ने की स्थिति में दोपहर के समय स्प्रिंकलर से 30 मिनट तक खेत की सिंचाई कर सकते हैं।
  •  ड्रिप सिंचाई की सुविधा वाले किसानों को फसल में उचित नमी बनाए रखने की आवश्यकता है।
  • तापमान में अचानक वृद्धि होने पर पोटेशियम क्लोराइड के 0.2 फीसदी के दो छिड़काव से नुकसान को कम किया जा सकता है।
  •  गेहूं की फसल में पीला रतुआ रोग की नियमित निगरानी करें। रोग होने पर नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र, अनुसंधान संस्थान या राज्य कृषि विभाग के विशेषज्ञ से सलाह लें।
  • फसलों के कैलेंडर में भी करना होगा बदलाव

चीन और यूरोप के वैज्ञानिकों ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि भारत और बांग्लादेश में प्रमुख रूप से गेहूं और चावल की पैदावार पर मौसम में हुए बदलाव के असर को कम करने के लिए फसलों की बुआई और कटाई के समय में बदलाव करने की जरूरत है। सभी फसलों के लिए मौसम में हुए बदलाव को ध्यान में रखते हुए क्रॉप कैलेंडर में भी बदलाव करने की जरूरत है।

साइंस रिसर्च जर्नल साइंस डायरेक्ट में प्रकाशित चीन, ऑस्ट्रिया और स्लोवाकिया के कुछ वैज्ञानिकों के एक संयुक्त अध्ययन के मुताबिक जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए खरीफ और रबी फसलों की बुआई और कटाई के समय में बदलाव करने की जरूरत है। खरीफ की फसलों, खास तौर पर चावल की समय से पहले बुआई करने पर पानी की जरूरत कम होगी, वहीं उत्पादन भी बढ़ेगा। खरीफ और रबी की फसल के बीच कुछ समय का अंतर रखने से बदलते मौसम का फसलों पर असर भी कम होगा।

फसलों की जल्द बुआई से फायदा

रिपोर्ट के मुताबिक फसल कैलेंडर में बदलाव करना उपज को नुकसान से बचाने और पानी का उपयोग कम करने के लिए एक बेहतर कदम हो सकता है। वैज्ञानिकों ने भारत और बांग्लादेश में गेहूं और चावल की उपज के साथ ही उष्णकटिबंधीय बहु-फसल प्रणाली पर जलवायु परिवर्तन के असर को समझने और बेहतर संभावनाओं का अनुमान लगाने के लिए क्षेत्रीय Environmental Policy Integrated Climate (EPIC) कृषि विज्ञान मॉडल का उपयोग किया। वैज्ञानिकों ने पाया कि फसलों की बुआई के समय में बदलाव कर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम किया जा सकता है।

हीट वेव के असर से बचा जा सकेगा

रिपोर्ट के मुताबिक गेहूं की फसल को समय से पहले लगाने पर बाद में हीट वेव और बेहद गर्म हवाओं के प्रभाव से बचाया जा सकेगा। तेज गर्म हवाओं के चलते गेहूं के दाने जल्द पीले पड़ जाते हैं और सूख जाते हैं जिससे उत्पादन पर असर पड़ता है। इसके अलावा, खरीफ में चावल की समय से पहले बुवाई करने से मानसून की बारिश का उपयोग करने में मदद मिल सकती है। वहीं धान की फसल को फूल लगने के दौरान पाले से भी बचाया जा सकेगा।

वैज्ञानिकों के मुताबिक 2080 तक जलवायु में परिवर्तन के चलते मौसम में बड़े पैमाने पर बदलाव देखा जाएगा। गर्मी बढ़ने और ठंड में कमी के साथ ही अचानक बारिश से फसल पर काफी असर पड़ेगा। ऐसे में धान की फसल को समय से पहले लगाने पर मानसून की बारिश का फायदा मिलेगा।

ICAR के सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक शांतनु कुमार ने बताया कि जलवायु परिवर्तन के चलते फसलों की पैदावार पर असर पड़ रहा है। देश के कृषि संस्थान स्थानीय स्थितियों को ध्यान में रखते हुए फसलों की बुआई और कटाई के समय में बदलाव को लेकर सुझाव भी जारी कर रहे हैं। बढ़ती गर्मी, तेज बारिश और अन्य मौसम के बदलावों को ध्यान में रखते हुए ये बेहद जरूरी भी है। देश के कृषि वैज्ञानिक फसलों की ऐसी वैरायटी का भी विकास कर रहे हैं जिनके उत्पादन पर ज्यादा गर्मी या बदलते मौसम का बहुत असर नहीं होगा।

धान की पैदावार में तेजी से आई कमी

हाल के दशकों में भारत में न्यूनतम तापमान में तेजी से वृद्धि हुई है जिससे खरीफ की फसल खास तौर पर धान की पैदावार में तेजी से कमी आ रही है। वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर न्यूनतम तापमान ऐसे ही बढ़ता रहा तो आने वाले दिनों में कई फसलों के लिए संकट खड़ा हो जाएगा। इस अध्ययन में शामिल हैदराबाद स्थित सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ड्राइलैंड रिसर्च के वैज्ञानिक बापूजी राव बोड़ापति कहते हैं कि भारत में खरीफ फसलों की सफलता काफी हद तक दक्षिण पश्चिम मानसून के प्रदर्शन पर निर्भर करती है। वहीं रबी की फसलें बड़े पैमाने पर सिंचाई पर निर्भर होती हैं। ये फसलें तापमान में बदलाव के प्रति संवेदनशील होती हैं।

भारत में वैज्ञानिकों ने जिला स्तर पर वार्षिक, खरीफ और रबी फसल के मौसम के लिए 0.5 डिग्री ग्रिड डेटा का इस्तेमाल करके 1971-2009 की अवधि के लिए न्यूनतम तापमान का विश्लेषण किया। इस अध्ययन में पाया गया कि इन दस सालों में पूरे देश में वार्षिक औसत न्यूनतम तापमान 0.24° ज्यादा रहा। इस बढ़े हुए तापमान का असर बड़े क्षेत्र (खरीफ में 52.7%, रबी में 54.9%) में देखा गया। खरीफ (0.19 डिग्री सेल्सियस) की तुलना में रबी (0.28 डिग्री सेल्सियस) के दौरान औसत तापमान में अधिक वृद्धि दर्ज की गई है।

ये हैं अल-नीनो और ला-नीनो

अल-नीनो प्रशांत महासागर के भूमध्य क्षेत्र की उस मौसमी घटना का नाम है, जिसमें पानी की सतह का तापमान सामान्य से अधिक गर्म हो जाता है और हवा पूर्व की ओर बहने लगती है। यह न केवल समुद्र पर बल्कि वायुमंडल पर भी प्रभाव डालता है। इस घटना के चलते समुद्र का तापमान 4 से 5 डिग्री तक गर्म हो जाता है। पश्चिमी प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में सामान्य से कम वायुदाब बनने पर ला नीना की स्थिति बनती है। इसके कारण समुद्र का तापमान सामान्य से घट जाता है। आमतौर पर इन दोनों घटनाओं का असर 9 से 12 महीने तक रहता है, पर कभी-कभी यह स्थिति कई वर्षों तक बनी रह सकती है। दोनों घटनाएं दुनिया भर में मौसम, बारिश, तूफान, बाढ़, सूखा जैसी घटनाओं को प्रभावित करती हैं। इनकी वजह से कहीं सामान्य से ज्यादा बारिश होती है तो कहीं सूखा पड़ता है और कहीं तूफान आते हैं।