नई दिल्ली, अनुराग मिश्र। दुनिया में पार्टिकुलेट एयर पॉल्यूशन मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है। भारत में किसी व्यक्ति की उम्र कम होने के खतरों में दिल की बीमारी, ब्लड प्रेशर, तंबाकू आदि से बड़े खतरों में से भी ज्यादा घातक पीएम 2.5 से होने वाला प्रदूषण है। शिकागो यूनिवर्सिटी के एनर्जी रिसर्च पॉलिसी इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कणीय प्रदूषण को अगर नियंत्रित कर लिया जाए तो लोगों की जीवन प्रत्याशा दर को 12 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। भारत के सभी 1.3 अरब लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जहां सूक्ष्म कणों (पीएम2.5) से होने वाला वार्षिक औसत प्रदूषण का स्तर डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देश से अधिक है। 67.4 प्रतिशत आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहां प्रदूष ण का स्तर देश के राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानक 40 μg/m3 से अधिक है। जीवन प्रत्याशा के संदर्भ में कणीय प्रदूषण भारत में मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा है, जिससे औसत भारतीय नागरिक की जीवन प्रत्याशा 5.3 वर्ष घट जाती है। इसके विपरीत, हृदय संबंधी बीमारियों से औसत भारतीय की जीवन प्रत्याशा दर लगभग 4.5 वर्ष कम हो जाती है, जबकि बाल और मातृ कुपोषण से जीवन प्रत्याशा 1.8 वर्ष घट जाती है।

समय के साथ कणीय प्रदूषण में वृद्धि हुई है। 1998 से 2021 तक, औसत वार्षिक कणीय प्रदूषण में 67.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जिससे औसत भारतीय

नागरिक की जीवन प्रत्याशा 2.3 वर्ष कम हो गई। पूरी दनिया में 2013 से 2021 तक जितना प्रदूषण बढ़ा है उसमें से भारत का 59.1 प्रतिशत योगदान है। देश के सबसे प्रदूषित क्षेत्र भारत के उत्तरी मैदानी क्षेत्र में 52.12 करोड़ निवासी रहते हैं। जो देश की आबादी का लगभग 38.9 प्रतिशत है। अगर प्रदूषण

का वर्तमान स्तर बरकरार रहता है तो इस आबादी की जीवन प्रत्याशा में डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देश के सापेक्ष औसतन 8 साल और राष्ट्रीय मानक के सापेक्ष औसतन 4.5 साल कम होने का खतरा है। यदि भारत डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देश के अनुरूप कणीय प्रदूषण कम कर लेता है, तो भारत की राजधानी और सबसे अधिक आबादी वाले शहर दिल्ली के निवासियों की जीवन प्रत्याशा 11.9 वर्ष बढ़ जाएगी। इसी तरह उत्तरी 24 परगना देश का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला जिला के निवासियों की जीवन प्रत्याशा में 5.6 वर्ष की वृद्धि होगी।

भारत का सबसे प्रदूषित क्षेत्र उत्तरी मैदानी

भारत का सबसे प्रदूषित क्षेत्र उत्तरी मैदानी है, जहां आधे अरब से अधिक लोग और देश की 38.9 प्रतिशत आबादी रहती है। इस क्षेत्र में, यदि प्रदषूण का वर्तमान स्तर बना रहा तो औसत निवासी के जीवन प्रत्याशा मं लगभग 8 साल की कमी होगी। हालांकि, कणीय प्रदषूण अब के वल भारत के उत्तरी मैदानी इलाकों की समस्या नहीं है। पिछले दो दशकों वाय प्रदूषूण के उच्च स्तर का भौगोलिक रूप से विस्तार हुआ है। उदाहरण के लिए, भारत के महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश राज्यों में, जहां 20.42 करोड़ लोग रहते हैं, 2000 के बाद से प्रदषूण में क्रमशः 76.8 और 78.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। साल 2000 के प्रदषूण स्तर से होने वाले नुकसान की तुलना में यहाां के औसत व्यक्ति के जीवन प्रत्याशा में अब 1.8 से 2.3 वर्ष की अतिरिक्त कमी हो गई है।

एशिया और अफ्रीका पर सबसे अधिक बोझ है फिर भी यहां जरूरी बुनियादी ढांचे का अभाव है

दक्षिण एशिया के चार देश दुनिया के सबसे प्रदषित देशों में शामिल हैं और यहां दनिय की लगभग एक चौथाई आबादी रहती है। बाांग्लादेश, भारत, नेपाल और पाकिस्तान के एक्यूएल आई आंकड़ों से यह पता चलता है यदि प्रदषूण का यह स्तर बना रहा, तो यहां के निवासियों की जीवन प्रत्याशा में औसतन लगभग 5 वर्ष की कमी की आशंका है। 2013 के बाद से, दुनिया के प्रदषूण में लगभग 59 प्रतिशत वृद्धि अकेले भारत से हुई है।

प्रदूषण बढ़ने के बड़े कारण

भारत और पाकिस्तान में, 2000 के बाद से सड़क पर वाहनों की संख्या लगभग चार गुना बढ़ गई। 2010 से 2020 के बीच बांग्लादेश में वाहनोों की संख्या लगभग तीन गुना हो गई। बांग्लादेश, भारत, नेपाल और पाकिस्तान में संयक्त रूप से जीवाश्म ईंधन से बिजली उत्पादन 1998 से 2017 के बीच तीन गुना हो गया। फसल जलाने, ईंट भट्टटों और अन्य औद्योगिक गतिविधियोों के कारण भी क्षेत्र में कणीय प्रदषूण के उत्सर्जन में वृद्धि हुई है।

भारत की प्रदूषण कम करने को लेकर नीति

2019 में भारत सरकार ने "प्रदषूण के खिलाफ यद्ध" की घोषणा की और 2017 के कणीय प्रदषूण के स्तर को वर्ष 2024 तक 20 से 30 प्रतिशत तक कम करने के घोषित लक्ष्य के साथ अपने राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) की शुरुआत की। 2022 में, भारत सरकार ने एनसीएपी के लिए नया लक्ष्य निर्धारित किया, जिसके तहत 131 नॉन -अटेमेंट सिटीज में 2026 तक कणीय प्रदषूण के स्तर में 40 प्रतिशत की कमी का लक्ष्य निर्धारित किया गया। 131 नॉन-अटेमेंट सिटीज में यह लक्ष्य हासिल करने और इसे बरकरार रखने से भारत की राष्ट्रीय औसत जीवन प्रत्याशा 7.9 महीने बढ़ जाएगी, जबकि नॉन -अटेमेंट सिटीज में सबसे प्रदूषित शहर दिल्ली के निवासियोों की जीवन प्रत्याशा 4.4 साल बढ़ जाएगी, जो बड़े पैमाने पर संभावित लाभों को रेखाांकित करता है।

माइकल ग्रीनस्टोन अर्थशास्त्र के मिल्टन फ्रीडमैन डिस्टिंगग्विश्ट सर्विस प्रोफेसर हैं। इन्होंने शिकागो विश्वविद्यालय के एनर्जी पॉलिसी इंस्टिट्यूट (ईपीआईसी) की अपनी टीम के साथ एक्यूएलआई विकसित किया है। माइकल ग्रीनस्टोन कहते हैं कि वैश्विक जीवन प्रत्याशा पर वायु प्रदूषण का तीन-चौथाई प्रभाव केवल छह देशों, बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान, चीन, नाइजीरिया और इंडोनेशिया से संबंधित है। यहां के लोग प्रदूषित हवा में सांस लेने के कारण एक से छह साल से अधिक तक का जीवन खो देते हैं। पिछले पांच वर्षों से, वायु गुणवत्ता और इसके स्वास्थ्य परिणामों पर एक्यूएलआई की स्थानीय जानकारी को मीडिया में पर्याप्त जगह मिली है और राजनीतिक क्षेत्र में भी इस पर व्यापक चर्चा हुई है लेकिन इन वार्षिक सूचनाओं को दैनिक और स्थानीय स्तर पर प्राप्त होने वाले आंकड़ों से समृद्ध करने की ज़रूरत ज़रूरत है। ”

वास्तव में, कई प्रदूषित देशों के पास वायु प्रदूषण से निपटने संबंधी बुनियादी ढांचे का अभाव है। एशिया और अफ्रीका इसके दो सबसे चिंताजनक उदहारण हैं। प्रदूषण के कारण जीवन के वर्षों में होने वाली कुल क्षति के 92.7 प्रतिशत के लिए ये दोनों देश जिम्मेदार हैं। इसके बावजूद यहां की क्रमशः सिर्फ 6.8 और 3.7 फीसदी सरकारें ही पूरी तरह से पारदर्शी वायु गुणवत्ता आंकड़े प्रदान करती हैं साथ ही एशिया और अफ्रीका के क्रमशः केवल 35.6 और 4.9 प्रतिशत देशों में

ही वायु गुणवत्ता मानक हैं। ऐसा तब है जबकि पारदर्शी आंकड़े और गुणवत्ता मानक - ये दोनों ही नीति आधारित कार्रवाई के बुनियादी घटक हैं।

क्रिस्टा हेसनकोफ एक्यूएलआई और ईपीआईसी के वायु गुणवत्ता कार्यक्रम के निदेशक हैं। उन्होंने कहा कि विशेष रूप से समय पर, विश्वसनीय और पारदर्शी वायु गुणवत्ता आंकड़े नागरिक समाज और सरकार के स्वच्छ वायु प्रयासों का मुख्य आधार साबित हो सकते हैं। इससे वह जानकारी उपलब्ध होगी जो लोगों और सरकारों के पास नहीं है और जो बेहतर सूचित नीतिगत निर्णय लेने में सहयोग करता है। सौभाग्य से, हमारे पास वर्तमान स्थिति को पूरी तरह बदलने में भूमिका निभाने का बड़ा अवसर दिखाई देता है।