एस.के. सिंह, नई दिल्ली। भारत का सपना समृद्ध और विकसित देश बनने का है। लेकिन इसका रास्ता क्या होना चाहिए? विशेषज्ञ मानते हैं कि आर्थिक विकास का समावेशी होना जरूरी है। उनके मुताबिक समावेशी विकास वांछनीय नहीं बल्कि ‘आवश्यक आवश्यकता’ है। विकास समाज के हर वर्ग, गांव-शहर और छोटे-बड़े उद्योग सबके लिए होना चाहिए। इसके बिना विकास न स्थायी होगा, न स्थिर और सस्टेनेबल होगा। समृद्ध बनने के लिए आमदनी का स्तर तो बढ़ाना जरूरी है ही, आय में असमानता कम करना भी उतना ही अहम है। क्वालिटी शिक्षा और स्किल के साथ क्वालिटी रोजगार चाहिए ताकि हम डेमोग्राफिक डिविडेंड का पूरा लाभ उठा सकें। चंद शहरों में नहीं, बल्कि पूरे देश में स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर करनी पड़ेंगी ताकि ह्यूमन डेवलपमेंट के तमाम मानकों में छलांग लगा सकें। इन्फ्रास्ट्रक्चर के साथ रक्षा क्षेत्र को भी मजबूत करना पड़ेगा। हर क्षेत्र में आरएंडडी पर फोकस करते हुए टेक्नोलॉजी का विकास करना पड़ेगा। साथ ही, जेंडर इक्वलिटी को भी हकीकत बनाना पड़ेगा। ‘समृद्ध भारत’ सीरीज में हम इन सभी विषयों पर अलग-अलग फोकस करेंगे और विशेषज्ञों से बातचीत के आधार पर समाधान भी लाएंगे। सीरीज के इस पहले लेख में एक समग्र रूप बताने की कोशिश की गई है।

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देश को कैसे समृद्ध बनाया जाए, यह सवाल लेकर जागरण प्राइम देश-विदेश के जाने-माने विशेषज्ञों के पास गया। वे तत्काल बड़े कदम उठाने की बात कहते हैं क्योंकि इसमें देरी हमें लक्ष्य से दूर करती जाएगी। शुरुआत शिक्षा और हेल्थकेयर की क्वालिटी में सुधार से करनी पड़ेगी, क्योंकि अशिक्षित/अल्पशिक्षित और खराब सेहत वाले लोगों की प्रोडक्टिविटी कभी अच्छी नहीं हो सकती है। खेत से लेकर इंडस्ट्री और सर्विसेज तक, हर जगह प्रोडक्टिविटी सुधारने की काफी गुंजाइश है। हालांकि सर्विसेज में जीसीसी (ग्लोबल) ऐसा सेगमेंट है जिसमें भारत ने अच्छी प्रगति की है और इसमें तेजी से आगे बढ़ रहा है।

यह सदी भारत की हो सकती है क्योंकि हमारे पास विशाल वर्कफोर्स और सबसे युवा आबादी का ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ है। लेकिन इन सबका लाभ उठाने के लिए समय कम है। वर्ष 2018-19 के इकोनॉमिक सर्वे में कहा गया है कि भारत का डेमोग्राफिक डिविडेंड वर्ष 2041 में शिखर पर होगा। विशेषज्ञों के अनुसार, उसके बाद इसमें कमी आएगी, आश्रितों की संख्या बढ़ने लगेगी और तब ग्रोथ की रफ्तार भी धीमी पड़ जाएगी।

आमदनी का पैमाना

किसी देश के विकसित होने का प्रमुख पैमाना है प्रति व्यक्ति आय। इस पैमाने पर वर्ल्ड बैंक देशों को चार श्रेणी में बांटता है। प्रति व्यक्ति सालाना 1135 डॉलर तक सकल राष्ट्रीय आय (जीएनआई) वाले देश निम्न आय, 1136 से 4465 डॉलर वाले निम्न मध्य, 4466 से 13845 डॉलर वाले उच्च मध्य और 13846 डॉलर या इससे अधिक आय वाले देश उच्च आय वर्ग में आते हैं। वर्ल्ड बैंक के अनुसार 2022 में भारत की प्रति व्यक्ति जीएनआई 2,390 डॉलर थी। इस लिहाज से भारत अभी निम्न मध्य आय वर्ग में है। विकसित श्रेणी में जाने के लिए इसे 5.8 गुना बढ़ाना पड़ेगा।

लेकिन यहां एक पेंच है। वर्ल्ड बैंक इस पैमाने में हर साल संशोधन करता है, जिसमें आय की सीमा बढ़ती जाती है। उच्च आय वर्ग के लिए 2021-22 (जुलाई-जून) में न्यूनतम सीमा 12,695 डॉलर और 2022-23 में 13,205 डॉलर थी। यानी अगले दो दशक में भारत को प्रति व्यक्ति आय वास्तव में 5.8 गुना नहीं, बल्कि उससे अधिक बढ़ानी पड़ेगी।

इसे कैसे हासिल किया जा सकता है, यह पूछने पर जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और जाने-माने अर्थशास्त्री अरुण कुमार कहते हैं, “वर्ष 2047 तक उच्च आय वर्ग का स्तर हासिल करने के लिए हमें 11-12% की वास्तविक विकास दर चाहिए, जबकि पिछले 10 साल का औसत 6.5% है। अगर हम 9.5% की दर से बढ़े तो हमारी प्रति व्यक्ति आय 9000 से 10000 डॉलर तक ही पहुंचेगी।”

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) अपने वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक में विकसित (एडवांस), उभरते (इमर्जिंग) और विकासशील (डेवलपिंग) देशों में अंतर के लिए प्रति व्यक्ति आय के अलावा दो और पैमाने रखता है। पहला है निर्यात में विविधता। तेल निर्यातक देशों की प्रति व्यक्ति आय अधिक होने पर भी वे एडवांस देशों की श्रेणी में नहीं आते, क्योंकि उनका 70% से ज्यादा निर्यात तेल का ही होता है। दूसरा है ग्लोबल फाइनेंशियल सिस्टम के साथ जुड़ाव।

अरुण कुमार टेक्नोलॉजी को भी जरूरी बताते हैं। वे कहते हैं, “अगर टेक्नोलॉजी नहीं होगी तो हम विकसित देश नहीं बन पाएंगे। कुवैत, सऊदी अरब में प्रति व्यक्ति आय तो बहुत है, लेकिन हम उन्हें विकसित देश नहीं मानते क्योंकि उनके पास टेक्नोलॉजी नहीं है।”

अर्थव्यवस्था का ढांचा

समृद्ध देश का आय स्तर हासिल करने के लिए सबसे अहम है अर्थव्यवस्था का ढांचा। विकसित देशों में जीडीपी और रोजगार का बड़ा हिस्सा इंडस्ट्री से आता है। औद्योगिक उत्पादन और रोजगार दोनों उच्च क्वालिटी के होते हैं। ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के जिंदल स्कूल ऑफ गवर्मेंट एंड पब्लिक पॉलिसी में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर डॉ. अवनींद्र नाथ ठाकुर कहते हैं, “हर मामले में संगठित क्षेत्र का अनुपात अधिक होना चाहिए, जहां आर्थिक गतिविधियां रिकॉर्डेड होती हैं। संगठित क्षेत्र में उत्पादन और रोजगार दोनों की क्वालिटी बेहतर होती है और लोगों को सामाजिक सुरक्षा मिलती है।”

वे कहते हैं, “विकसित देश की अर्थव्यवस्था में संगठित क्षेत्र सबसे बड़ा होता है। अमेरिका में 98%-99% संगठित क्षेत्र ही है, फ्रांस में तो कृषि भी संगठित है। असंगठित से संगठित में जाने का एक फायदा यह है कि हमें मालूम होता है कि इकोनॉमी की दशा-दिशा क्या है। हम उसी हिसाब से नीतियां बना सकते हैं और उसके असर को भी देख सकते हैं।” संगठित क्षेत्र में मौके कम होने के कारण युवा असंगठित क्षेत्र या कृषि क्षेत्र में जाने को मजबूर हैं।

ई-श्रम पोर्टल पर असंगठित क्षेत्र के 29.66 करोड़ लोग (17 जून 2024 तक) पंजीकृत हैं। इनमें 15.49 करोड़ यानी आधे से ज्यादा कृषि क्षेत्र में हैं। रिपोर्ट्स के अनुसार 90% से ज्यादा पंजीकृत श्रमिकों की मासिक आय 10 हजार रुपये या इससे कम है। पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) के मुताबिक 45% से ज्यादा वर्कफोर्स कृषि क्षेत्र में लगी हुई है। इनमें भी अनेक तो ऐसे हैं जिन्हें परिवार के सदस्य होने के कारण मेहनताना नहीं मिलता।

ठाकुर के मुताबिक, “विकसित देशों में कामगार वर्ग पहले कृषि से इंडस्ट्री सेक्टर में गया, और फिर उच्च क्वालिटी की सर्विसेज में। भारत में इंडस्ट्री सेक्टर का विकास कम होने के कारण लोग कृषि से सीधे सर्विसेज में चले गए। इसलिए क्वालिटी सर्विस कम है।” अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) का अनुमान है कि यहां के 30.5% श्रमिक सर्विस सेक्टर में हैं।

मैन्युफैक्चरिंग को मजबूत करने की जरूरत

जीडीपी में सिर्फ 17% योगदान करने वाले कृषि क्षेत्र में देश की 45% वर्कफोर्स लगी हुई है। उनकी आय कम होना लाजिमी है। कृषि पर बोझ कम करने के लिए लोगों को इंडस्ट्री की तरफ ले जाना पड़ेगा। ग्लोबल रिसर्च फर्म नेटिक्सिस की चीफ इकोनॉमिस्ट (एशिया पैसिफिक) एलिसिया गार्सिया हेरेरो जागरण प्राइम से कहती हैं, “मेरे विचार से भारत को सबसे पहले मैन्युफैक्चरिंग प्लेटफॉर्म बनने का माहौल तैयार करना चाहिए। इसके बिना कंज्यूमर गुड्स और इंटरमीडिएट गुड्स के कारण चालू खाते का घाटा बहुत अधिक होगा।” वे बताती हैं, “आयात शुल्क तत्काल कम करने की जरूरत है। अभी भारतीय कंपनियों के लिए दूसरे देशों से इंटरमीडिएट गुड्स आयात करना बहुत महंगा पड़ता है।”

ठाकुर भी कहते हैं, “विकासशील से विकसित की ओर जाने की पहली शर्त औद्योगीकरण होती है। इसके दो आयाम होते हैं। पहला, जीडीपी में इंडस्ट्री का हिस्सा अधिक हो और दूसरा, कुल रोजगार में उद्योग की भागीदारी ज्यादा हो। जीडीपी में उद्योग का हिस्सा बढ़ाने की बात आजादी के बाद से ही कही जा रही है, लेकिन इसमें वांछित सफलता नहीं मिली है। जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 16-17% के आसपास बना हुआ है।”

वे इसकी वजह भी बताते हैं, “भारत की मैन्युफैक्चरिंग पॉलिसी में डिमांड साइड की पूरी अनदेखी की गई है। समस्या यह है कि यहां न तो घरेलू डिमांड इतनी है कि इंडस्ट्री के विस्तार को सपोर्ट कर सके, न ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में हम इतने प्रतिस्पर्धी हैं कि चीन, वियतनाम, बांग्लादेश, मलेशिया जैसे देशों का मुकाबला कर सकें।”

इंफ्रास्ट्रक्चर, स्वास्थ्य और शिक्षा

समृद्धि के लिए मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर के साथ शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की अच्छी क्वालिटी भी जरूरी है। जैसा कि ठाकुर कहते हैं, “इंफ्रास्ट्रक्चर विकास का एक प्रमुख इंडिकेटर है। विकसित होने का मतलब यह नहीं कि आपके पास कितनी कारें हैं, इसमें यह देखा जाता है कि पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर कैसा और कितना मजबूत है। स्कैंडिनेवियाई देशों में तो लोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट ही ज्यादा इस्तेमाल करते हैं।”

प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, “हमें शिक्षा का स्तर सुधारना पड़ेगा। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER) बताती है कि 14 से 18 साल की उम्र के 40% बच्चे दूसरी कक्षा की पढ़ाई नहीं कर सकते। मेरा मानना है कि 95% बच्चों की शिक्षा ऐसी नहीं कि वे वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बन सकें।” शायद यही कारण है कि पेपर लीक जैसी घटनाएं आम होती जा रही हैं।

हेल्थकेयर और शिक्षा को अर्थशास्त्र में मेरिट गुड्स कहा जाता है। ठाकुर के अनुसार, “शिक्षा से बहुत सी चीजें सुधर जाती हैं। कानून व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था और प्रोडक्टिविटी बेहतर होती है। शिक्षा और स्वास्थ्य कई तरीके से समाज और देश की इकोनॉमी पर असर डालते हैं। जहां लोग पढ़े-लिखे होंगे वहां आपको साफ-सफाई भी बेहतर मिलेगी।”

ठाकुर इसमें सरकार की भूमिका को अहम मानते हैं। भारत की तुलना में अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय 32 गुना है। इसके बावजूद वहां शिक्षा और स्वास्थ्य पर जीडीपी की तुलना में खर्च भारत से ज्यादा है। वहां बजट का 6% शिक्षा पर और 3% स्वास्थ्य पर खर्च होता है। यूरोपीय और स्कैंडिनेवियाई देशों में यह अनुपात और अधिक है।

आबादी के अनुपात में शिक्षकों की संख्या, डॉक्टरों की संख्या इन सब में हम अनेक विकासशील देशों से भी पीछे हैं। इसलिए ठाकुर कहते हैं, “सबसे बड़ी चुनौती क्वालिटी हेल्थ और एजुकेशन की है। अगर हमने तत्काल कदम नहीं उठाए और निवेश नहीं किया तो युवा पीढ़ी को एसेट में बदलना मुश्किल हो जाएगा।”

भारत में स्वास्थ्य पर निजी खर्च (आउट ऑफ पॉकेट) बहुत ज्यादा है। निम्न और मध्य आय वर्ग आमदनी का बड़ा हिस्सा शिक्षा और सेहत पर खर्च करेगा तो उसके पास बाकी निवेश के लिए पैसे नहीं बचेंगे। लोगों के कर्ज का एक बड़ा कारण स्वास्थ्य पर खर्च है। ठाकुर कहते हैं, इन खर्चों की वजह से लोग ‘लो इनकम लो इन्वेस्टमेंट ट्रैप’ में फंस जाते हैं।

वे बताते हैं, “गरीब परिवार की इकोनॉमिक मोबिलिटी या समृद्धि का सबसे बड़ा साधन शिक्षा है। उसके पास कभी इतने पैसे नहीं होते कि वह निवेश करके बिजनेसमैन बन जाए। उसके पास एक ही तरीका होता है कि अच्छी पढ़ाई करे, अच्छी नौकरी हासिल करे और आगे बढ़े। पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत नहीं होगा तो उनकी इकोनॉमिक मोबिलिटी सीमित हो जाएगी।”

उनके मुताबिक, अगर 70% से 80% लोगों की हालत ऐसी नहीं कि वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सकें, तो इसका मतलब है कि हम इतनी बड़ी आबादी की पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। इसका दूरगामी प्रभाव पड़ता है। अशिक्षित व्यक्ति से क्वालिटी काम नहीं करा सकते। शिक्षा के लिए टाइम फ्रेम बहुत छोटा होता है, लगभग 15 साल। अगर इन 15 वर्षों में बच्चों को शिक्षित नहीं किया तो वह पूरी पीढ़ी लायबिलिटी बन जाएगी।

डेमोग्राफिक डिविडेंड का लाभ कैसे

अच्छी शिक्षा और स्किल भारत के डेमोग्राफिक डिविडेंड से सीधे जुड़ा है। वर्ष 2018-19 के इकोनॉमिक सर्वे में कहा गया है कि भारत का डेमोग्राफिक डिविडेंड वर्ष 2041 में शिखर पर होगा। उस समय वर्किंग एज वाले 20 से 59 साल के लोग 59% होंगे। रिजर्व बैंक ने 23 अप्रैल 2024 को जारी आरबीआई बुलेटिन में डिप्टी गवर्नर माइकल देबब्रत पात्रा का एक भाषण प्रकाशित किया है। उन्होंने कहा है, “अभी भारत की औसत आयु 28 साल है और डेमोग्राफिक डिविडेंड की स्थिति 2050 के दशक के मध्य तक रहेगी। इस तरह भारत में तीन दशक से ज्यादा समय तक डेमोग्राफिक डिविडेंड रहेगा।”

प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, “डिविडेंड तभी होगा जब अच्छी शिक्षा और रोजगार होंगे, युवा प्रोडक्टिव होंगे, लेकिन भारत में युवाओं में बेरोजगारी दर सबसे ज्यादा है। अभी सबसे बड़ी समस्या तो यही है कि 95% युवाओं को अच्छी शिक्षा नहीं मिलती और शिक्षित युवाओं के सामने रोजगार की समस्या है। इसलिए हम डेमोग्राफिक डिविडेंड के बजाय डेमोग्राफिक डिजास्टर की ओर बढ़ रहे हैं।”

वर्ल्ड बैंक ने अपनी नई रिपोर्ट में कहा है कि भारत और इसके पड़ोसी देश अपनी युवा आबादी के लिए पर्याप्त नौकरियों का सृजन नहीं कर रहे हैं। ऐसे में पूरे क्षेत्र के लिए डेमोग्राफिक डिविडेंड खोने का खतरा है।

आय में असमानता और ह्यूमन डेवलपमेंट

हाल के वर्षों में देश की जीडीपी के साथ प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ी, वर्ष 2027 तक भारत के दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी बनने की संभावना है, लेकिन आय में असमानता में भी इजाफा हुआ है। वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट के अनुसार भारत में असमानता ब्रिटिश राज से भी अधिक हो गई है। तब शीर्ष 1% लोगों के पास राष्ट्रीय आय का 20-21% हिस्सा था, आज 22.6% है। शीर्ष 10% आबादी के पास राष्ट्रीय आय का 57% है। दूसरी तरफ निचले 50% लोगों के पास राष्ट्रीय आय का सिर्फ 15% है। देश के 271 अरबपतियों के पास दुनिया की 7% संपत्ति है। ये आंकड़े भारत के लिए समावेशी विकास के महत्व को बताते हैं।

आय में असमानता के साथ विकास दर तथा ह्यूमन डेवलपमेंट जुड़े हुए हैं। ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट (HDR) 2023-24 में भारत को 193 देशों में 134वां स्थान दिया गया है। दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी इकोनॉमी होने के बावजूद भारत की रैंकिंग श्रीलंका, भूटान और बांग्लादेश से नीचे है।

दीर्घकालिक आर्थिक विकास के लिए पहले ह्यूमन डेवलपमेंट में सुधार जरूरी है। भारत के जिन राज्यों ने बीते तीन दशक में ऊंची ग्रोथ (सालाना 7% से ज्यादा जीएसडीपी ग्रोथ) हासिल की, वे सब ह्यूमन डेवलपमेंट में भी ऊपर हैं। इनमें केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और दिल्ली शामिल हैं। झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्य ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में पीछे हैं तो इनकी ग्रोथ रेट भी कम रही है।

वर्किंग एज आबादी के लिए स्किल की जरूरत

वर्ष 2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2021-31 के दौरान भारत में वर्किंग एज आबादी हर साल औसतन 97 लाख बढ़ेगी। यानी हमें हर साल इतने रोजगार पैदा करने की जरूरत है। हालांकि वर्ष 2031-41 के दौरान यह 42 लाख रह जाएगी। खास बात यह है कि वर्किंग एज आबादी गरीब राज्यों में ज्यादा तेजी से बढ़ रही है। दूसरी तरफ उनकी एम्पलॉयबिलिटी एक चुनौती है। इंडस्ट्री की जरूरत और उपलब्ध स्किल में काफी अंतर है। मैनपॉवर ग्रुप एंप्लॉयमेंट आउटलुक के 2023 की दूसरी तिमाही के सर्वे के अनुसार बेहतर प्रतिभा वाले श्रमिकों की भर्ती करना 79% उद्योगों के लिए चुनौती भरा था।

ग्लोबल कंसल्टेंसी फर्म ईवाई का आकलन है कि वर्ष 2030 तक भारत में 104 करोड़ वर्किंग एज आबादी होगी। अगले एक दशक में दुनिया में जो नई वर्कफोर्स आएगी उसमें 24.3% भारतीय होंगे। श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की भी जरूरत है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार 2022 में सिर्फ 24% महिलाएं काम कर रही थीं।

नौकरी के लायक लोगों को बेहतर स्किल भी चाहिए। एसएंडपी ग्लोबल मार्केट इंटेलिजेंस का अनुमान है कि कम स्किल के कारण 2021 में भारत के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में हर कर्मचारी ने औसतन 8076 डॉलर का योगदान किया। यह थाईलैंड में 18308 डॉलर और मलेशिया में 34402 डॉलर था।

ईवाई के अनुसार, भारत की जीडीपी में बढ़ती आबादी का योगदान इस बात पर भी निर्भर करेगा कि वर्किंग एज आबादी को प्रोडक्टिव रोजगार में किस तरह खपाया जाता है। भारत की युवा आबादी सर्विसेज और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को सिर्फ लेबर फोर्स उपलब्ध नहीं कराती, बल्कि यह खपत बढ़ाने में भी बड़ा योगदान करेगी। कंस्ट्रक्शन, पब्लिक सर्विसेज, श्रम सघन मैन्युफैक्चरिंग के अलावा ट्रेड, ट्रांसपोर्ट, टूरिज्म, ई-कॉमर्स तथा यूटिलिटी सर्विसेज जैसे सेवा क्षेत्र इस लिहाज से महत्वपूर्ण हैं कि इनमें अकुशल और अर्ध कुशल श्रमिकों की बड़े पैमाने पर खपत हो सकती है।

संसाधन कहां से आएगा

बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, स्किल डेवलपमेंट, मजबूत इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए संसाधन चाहिए जो सीमित है। प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, संसाधनों की प्राथमिकता तय करनी पड़ती है। नोबेल पुरस्कार पाने वाले अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने 1986 में एक लेख में बताया था कि भारत, थाईलैंड, मलेशिया, दक्षिण कोरिया, चीन 1947 में लगभग एक जैसी हालत में थे। गरीबी के साथ शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का संकट इन सब देशों में बराबर था। लेकिन बाद में उन देशों ने शिक्षा और स्वास्थ्य पर काफी ध्यान दिया। भारत ने भी 1965 तक हर बच्चे को स्कूल भेजने का लक्ष्य रखा था, लेकिन वह हासिल नहीं हो सका। वे बताते हैं, “मलेशिया जीडीपी का 10% शिक्षा पर खर्च कर रहा था, लेकिन हम आज तक 4% से ज्यादा नहीं कर पाए। कोठारी आयोग ने भी 6% की सिफारिश की थी।”

वे कहते हैं, “हमने शिक्षा को उतनी तवज्जो नहीं दी, खासकर स्कूल शिक्षा को। टीचर की प्रतिबद्धता नहीं होगी तो वह ठीक से पढ़ाएगा नहीं। इसलिए शहर-शहर में कोचिंग सेंटर खुल रहे हैं। कोचिंग सेंटर से शिक्षा नहीं मिल रही, बल्कि ये तो परीक्षा की मशीनरी हैं। शिक्षा का मतलब होता है कि आप किसी विषय को समझ कर, उसे ग्रहण कर आगे बढ़ेंगे, जो नहीं हो रहा है।” वे सवाल करते हैं, “जब बुनियाद कमजोर है तो आगे रिसर्च कैसी होगी? भारत के सबसे अच्छे छात्र आईआईटी में जाते हैं, लेकिन वहां से भी कौन सी विश्वस्तरीय रिसर्च निकल रही है? दूसरी तरफ चीन ने पिछले 40 वर्षों के दौरान रिसर्च पर इतना ध्यान दिया कि उसकी यूनिवर्सिटी दुनिया में टॉप-15 में आ गई हैं।” गौरतलब है कि दो साल से आईआईटी के लगभग एक-तिहाई छात्रों को प्लेसमेंट नहीं मिल पा रहा है।

ठाकुर कहते हैं, भारत में टैक्स-जीडीपी अनुपात अब भी बहुत कम है। यानी यहां टैक्स बढ़ाने की गुंजाइश है। विकसित देशों में औसत टैक्सेशन 40% से 45% है। भारत में कंपनियों को टैक्स रिलीफ देने की रणनीति अपनाई गई। इससे कंपनी को तो फायदा हो रहा है लेकिन वह उत्पादन तभी बढ़ाएगी जब डिमांड होगी। दूसरी तरफ सरकार के संसाधन कम हो रहे हैं। अगर सरकार के पास संसाधन अधिक होते और वह दूसरे क्षेत्रों में निवेश करती, तो अर्थव्यवस्था में मांग निकलती।

वे बताते हैं, डिमांड बढ़ाने के लिए सरकार डेफिसिट फाइनेंसिंग भी कर सकती है। अगर सरकार कर्ज लेकर उस पैसे को ब्याज भुगतान या वेतन देने में खर्च नहीं करती है, उसका इस्तेमाल पूंजी निवेश में हो रहा है, तो वह प्रोडक्टिव निवेश हो रहा है। उसका मल्टीप्लायर इफेक्ट होगा। एक तो उससे इकोनॉमी में डिमांड पैदा होगी और डिमांड के साथ इंडस्ट्री भी बढ़ेगी। जब इंडस्ट्री बढ़ती है तो सरकार को कई दौर में टैक्स मिलता है।

ठाकुर वेल्थ टैक्स की भी सलाह देते हैं। “भारत में वेल्थ चुनिंदा लोगों के पास है। अगर 2% वेल्थ टैक्स भी लिया जाए तो इससे सरकार का रेवेन्यू बढ़ेगा। ज्यादातर विकसित देशों में इन्हेरिटेंस टैक्स है। इससे सरकार के संसाधन काफी बढ़ जाते हैं।”

वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब रिपोर्ट में कहा गया है कि 2022-23 में सबसे अमीर 167 परिवारों पर 2% सुपर टैक्स लगाया गया होता तो सरकार को राष्ट्रीय आय के 0.5% के बराबर राजस्व मिलता। वह पैसा स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च किया जा सकता था।”

अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी कुछ उपाय बताए हैं। वर्ल्ड बैंक के अनुसार भारत समेत पूरे दक्षिण एशिया में रोजगार बढ़ने की दर वर्किंग एज आबादी बढ़ने की दर से कम है। इसलिए यहां के देश डेमोग्राफिक डिविडेंड का पूरा फायदा नहीं उठा पा रहे हैं। इसका फायदा लेने के लिए जरूरी है कि निजी निवेश तेजी से बढ़े और लोग कृषि क्षेत्र से बाहर निकलें। इसके लिए बिजनेस का वातावरण बेहतर बनाना पड़ेगा, फाइनेंशियल सेक्टर की बाधाएं दूर करनी पड़ेंगी, व्यापार और पूंजी प्रवाह को अधिक खुला बनाना होगा।