प्राइम टीम, नई दिल्ली। स्पेस सेक्टर आने वाले दिनों में अनेक दूसरे क्षेत्रों को गति दे सकता है। यह देश की सुरक्षा को तो मजबूत करेगा ही, इसमें कृषि समेत पूरी अर्थव्यवस्था और चिकित्सा क्षेत्र को भी मजबूती देने की क्षमता है। वैसे तो स्पेस इंडस्ट्री पूरी दुनिया में बढ़ रही है, लेकिन भारत में इसकी गति काफी ज्यादा है। 2010 में दुनिया की स्पेस इकोनॉमी 277 अरब डॉलर की थी, जो 2022 में 546 अरब डॉलर की हो गई। अभी भारत का हिस्सा इसमें दो प्रतिशत के आसपास है, लेकिन इस दशक के अंत तक इसके नौ से दस प्रतिशत तक पहुंच जाने का अनुमान है। हालांकि भारतीय स्पेस कंपनियों के सामने टेक्नोलॉजी और संसाधनों की मांग और उपलब्धता में अंतर तथा फंडिंग की कमी जैसी कई बड़ी चुनौतियां भी हैं। इस सेक्टर का पूरा लाभ लेने के लिए इन चुनौतियों से निपटना जरूरी है। इंडियन स्पेस एसोसिएशन (ISpA) की तरफ से आयोजित ‘इंडियन स्पेस कॉन्क्लेव 2023’ में चर्चा के दौरान ये बातें सामने आईं।

स्पेस इकोसिस्टम को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है। अपस्ट्रीम, डाउनस्ट्रीम और ऑग्ज़ीलियरी। अपस्ट्रीम में मैन्युफैक्चरिंग, लॉन्चिंग और स्पेस एसेट को ऑपरेट करना शामिल हैं। डाउनस्ट्रीम में अंतरिक्ष से मिलने वाले आंकड़ों के आधार पर सेवाएं उपलब्ध कराना आते हैं। ऑग्ज़ीलियरी सेगमेंट में स्पेस इंश्योरेंस और अवेयरनेस, शिक्षा तथा प्रशिक्षण आदि शामिल हैं।

स्पेस सेक्टर से भविष्य में संभावनाएं

कॉन्क्लेव में डाउनस्ट्रीम स्पेस टेक्नोलॉजी पर एक रिपोर्ट भी जारी की गई। इसमें भविष्य में स्पेस सेक्टर के लिए संभावनाओं का जिक्र किया गया है। कृषि क्षेत्र में उपज के उत्पादन का अनुमान लगाने, फसल और मिट्टी की सेहत की मॉनिटरिंग, नमी की मात्रा की जांच में इसका इस्तेमाल हो सकता है। इसके अलावा, दूर-दराज के इलाकों में कनेक्टिविटी बढ़ने से किसानों को फायदा होगा। बेहतर नेविगेशन से प्रिसीजन फार्मिंग और सीधे खेत से खरीद को बढ़ावा मिलेगा। हेल्थ सेक्टर में बीमारी की मॉनिटरिंग, हवा और पानी की क्वालिटी की मॉनिटरिंग, टेली मेडिसिन, रिमोट सर्जरी, दवाओं और वैक्सीन डिस्ट्रीब्यूशन की ट्रैकिंग तथा इमरजेंसी में कम समय में चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराने में मदद मिल सकती है।

डिजास्टर मैनेजमेंट में आपदाग्रस्त इलाके से लोगों को निकालने की मॉनिटरिंग, वहां पुनर्निर्माण की प्लानिंग, राहत और बचाव कार्यों में लगे लोगों के साथ कोऑर्डिनेशन, टेरेस्ट्रियल या पारंपरिक नेटवर्क फेल हो जाने पर सैटेलाइट कम्युनिकेशन सर्विसेज के जरिए राहत कार्यों की निगरानी संभव है। खनन में खनिजों के भंडार का पता लगाने, अवैध खनन को पकड़ने तथा पर्यावरण पर उनके असर को देखने, खदान के भीतर मशीनों को दूर से ऑपरेट करने, खनन कर्मियों की लोकेशन का पता लगाने तथा खनन से निकाली गई वस्तुओं की ट्रैकिंग और सप्लाई चेन मैनेजमेंट में इनका इस्तेमाल हो सकता है।

इंडियन स्पेस एसोसिएशन के डायरेक्टर जनरल लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) अनिल कुमार भट्ट के अनुसार सैटेलाइट कम्युनिकेशन, रिमोट सेंसिंग और अर्थ ऑब्जर्वेशन तथा पोजिशनिंग-नेविगेशन-टाइमिंग (पीएनटी) जैसे क्षेत्रों में 200 तरह के उपयोग की पहचान की गई है। एसोसिएशन के साथ कंसल्टेंसी फर्म डेलॉय और आईटी इंडस्ट्री की बॉडी नैसकॉम की रिपोर्ट ‘एक्सप्लोरिंग ऑपर्चुनिटीज फॉर इंडियन डाउनस्ट्रीम स्पेस टेक’ के अनुसार 2010 में दुनिया की स्पेस इकोनॉमी 277 अरब डॉलर की थी, जो 2022 में 546 अरब डॉलर की हो गई।

स्पेस टेक्नोलॉजी को दूसरे क्षेत्र के इकोसिस्टम से जोड़ना जरूरी

रिपोर्ट के अनुसार, स्पेस सेक्टर के लिए हाल में नीतिगत स्तर पर कई बड़े कदम उठाए जाने के बाद यह सेक्टर तेजी से आगे बढ़ रहा है। युवा स्पेस उद्यमियों की क्षमता में निवेशकों का भरोसा बढ़ा है। दूसरी ओर, डिजिटाइजेशन का स्तर बढ़ने से अनेक अवसर भी खुले हैं। इन अवसरों का लाभ उठाने के लिए सरकार, निवेशकों और उद्यमियों के बीच समन्वय बढ़ाने की जरूरत है ताकि स्पेस टेक्नोलॉजी को दूसरे क्षेत्र के इकोसिस्टम से जोड़ा जा सके। इस इंटीग्रेशन से प्राकृतिक संसाधनों और जलवायु परिवर्तन की मॉनिटरिंग में भी स्पेस टेक्नोलॉजी काफी मददगार हो सकती है।

विशेषज्ञों का कहना है कि रिमोट सेंसिंग, कम्युनिकेशन और पोजीशन-नेविगेशन-टाइमिंग (पीएनटी) जैसे दोहरे (सैन्य और नागरिक) इस्तेमाल वाले सेक्टर में सरकार की तरफ से मदद की जरूरत है ताकि टेस्टिंग और वैलिडेशन फैसिलिटी का विकास तथा डेटा बायबैक प्रोग्राम आसानी से हो सकें। आईटी सेक्टर में भारत की विशेषज्ञता से इसमें खासी मदद मिल सकती है।

इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशन यूनियन (ITU) ने स्पेस कम्युनिकेशन के लिए 28 गीगाहर्ट्ज का स्पेक्ट्रम निर्धारित किया है जो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। यह भारत में स्पेस इंडस्ट्री के विकास में मददगार हो सकता है। भारत की जलवायु परिस्थितियों को देखते हुए यह स्पेक्ट्रम स्पेस आधारित कम्युनिकेशन के लिए बेहतर है, खासकर हाई स्पीड ब्रॉडबैंड में। भारत की स्पेस कम्युनिकेशन इंडस्ट्री इस स्पेक्ट्रम को एलोकेट करने की नीति का इंतजार कर रही है। स्पेस सेक्टर में एफडीआई की नीति भी जल्द घोषित होने वाली है और उससे भी इस इंडस्ट्री को तेज ग्रोथ है मिलने की उम्मीद है।

देश में चिप डिजाइनिंग और मैन्युफैक्चरिंग से बदलेगी स्थिति

इंडियन स्पेस अकादमी के डायरेक्टर विंग कमांडर (रिटायर्ड) सत्यकाम कुशवाहा के अनुसार अगले 25 वर्षों का टाइम फ्रेम देखें तो चिप डिजाइन और मैन्युफैक्चरिंग भारत में शुरू होने के बाद इस क्षेत्र में बहुत तेजी आएगी। इस समय ग्लोबल स्पेस इकोनॉमी में जमीन पर इस्तेमाल होने वाले उपकरणों की मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 38.34% है। यह लॉन्च व्हीकल और सैटेलाइट मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री से भी ज्यादा है। हालांकि उनका कहना है कि अगर सरकार का फैसला आईटीयू के मानकों से अलग होता है, तो स्पेस सेक्टर में मैन्युफैक्चरिंग हब बनने का भारत का सपना पूरा नहीं हो सकेगा, महत्वपूर्ण उपकरणों की डिजाइनिंग और डेवलपमेंट में हम दूसरे देशों पर निर्भर रहेंगे।

आम लोगों के नजरिए से देखें तो अगले 25 वर्षों के दौरान दुनिया की सबसे बड़ी आबादी को सर्विस मुहैया कराने के लिए पर्याप्त स्पेक्ट्रम की जरूरत पड़ेगी। यह डिमांड स्वास्थ्य और टेली मेडिसिन, ई-गवर्नेंस, सरकार की तरफ से दी जाने वाली सुविधाओं, कृषि, प्राकृतिक संसाधनों की मैपिंग तथा उनके खनन, मौसम, ट्रांसपोर्टेशन, बैंकिंग-फाइनेंस और इंश्योरेंस, टेली एजुकेशन, डिजास्टर प्लानिंग, इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट जैसे अनेक क्षेत्रों में निकलेगी। कुशवाहा के अनुसार, इन क्षेत्रों में विशाल संभावनाओं को देखते हुए सरकार को स्पेस कम्युनिकेशन को मिशन मोड में इन्फ्रास्ट्रक्चर के तौर पर विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए। वह इसके लिए पर्याप्त इंसेंटिव दे, जिसमें स्पेक्ट्रम का एडमिनिस्ट्रेटिव एलोकेशन भी शामिल है।

कुशवाहा के अनुसार, स्पेस टेक्नोलॉजी पार्क और इंडस्ट्री पार्क गठित करने के प्रयास हो रहे हैं। इसमें मारुति उद्योग के अनुभव से सीख ले सकते हैं, जहां ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री की मदद के लिए पूरा इकोसिस्टम डेवलप हुआ। स्पेस सेक्टर के लिए भी ऐसे इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है जिसमें ऑफिस स्पेस से लेकर वर्कशॉप, लैबोरेट्री टेस्टिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर और प्रोडक्शन फैसिलिटी आसपास हों। इनक्यूबेशन सेंटर, कानूनी और वित्तीय सेवाएं, बीमा जैसी सुविधाएं भी वहां होनी चाहिए। युवा उद्यमियों की परेशानी कम करने के लिए सिंगल विंडो क्लीयरेंस भी जरूरी है।

स्पेस सेक्टर में समय और पूंजी दोनों की जरूरत पड़ती है। इसमें रिटर्न पर निवेश भी लंबे समय में मिलता है। इस समय टेस्टिंग और वैलिडेशन इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए सरकार पर पूरी निर्भरता है। इसे कम करने के लिए बड़े निवेश की जरूरत है। इस समय फंड जुटाने में कई समस्याएं हैं। पहला, अमेरिका स्थित कंपनियों की तुलना में भारतीयों के लिए फंड की लागत अधिक होती है। दूसरा, शुरुआती चरण में फंडिंग में संस्थापकों को काफी इक्विटी गंवानी पड़ती है, सीरीज ए फंडिंग तक उनके पास कंपनी की 20% से 30% इक्विटी ही रह जाती है। तीसरा, सीरीज ए के बाद बहुत कम भारतीय वेंचर कैपिटल पैसा लगाने के लिए तैयार होते हैं। गिफ्ट सिटी के जरिए निवेश, टैक्स में छूट, बड़े बिजनेस हाउस द्वारा फंड पूल बनाना और सरकार समर्थित फंड पूल जैसे कदमों से इस समस्या को काफी हद तक दूर किया जा सकता है।

स्पेस इंडस्ट्री की चुनौतियां

रिपोर्ट के अनुसार, स्पेस इंडस्ट्री की एक बड़ी चुनौती यह है कि उपलब्ध टेक्नोलॉजी और संसाधनों की मांग और उपलब्धता में काफी अंतर है। यह अंतर फ्रीक्वेंसी, क्वालिटी और एक्सेसिबिलिटी जैसे क्षेत्रों में है। अपस्ट्रीम सेगमेंट, खासकर लॉन्च और कंपोनेंट मैन्युफैक्चरिंग मे पर्याप्त कंपनियां आ गई हैं। अब हमें मिशन ऑपरेशन एवं कंट्रोल, एसएसए (स्पेस सिचुएशनल अवेयरनेस), इन-आर्बिट सर्विसिंग और एंड-ऑफ़-लाइफ सर्विसिंग जैसी अन्य अपस्ट्रीम सेवाओं पर फोकस करने की जरूरत है। भारतीय स्पेस टेक्नोलॉजी मार्केट में आज डेटा एग्रीगेशन और एनालिटिक्स के बीच काफी अंतर है। हमें ऐसी कंपनियों की जरूरत है जो विभिन्न स्रोतों से डेटा इकट्ठा करके उनका बेहतर इस्तेमाल कर सकें।

स्पेस सेक्टर के लिए निवेश पर रिटर्न को उचित ठहरना बहुत मुश्किल होता है। लो अर्थ आर्बिट (लियो) के छोटे सैटेलाइट की जीवन अवधि कम, तीन से 10 साल तक होती है। इसलिए उनका अधिक से अधिक इस्तेमाल करना जरूरी है। स्पेस सेक्टर के विस्तार के साथ ऐसे नए बिजनेस मॉडल विकसित करने की जरूरत है जहां रिटर्न अधिक से अधिक हो तथा अंतिम यूजर को भी अधिकतम वैल्यू मिले। इसके अलावा इंडिया स्टैक की तरह अर्थ ऑब्जर्वेशन के लिए भी डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर बहुत जरूरी है। स्पेस सेक्टर को निजी क्षेत्र के लिए खोले जाने के बाद राज्य सरकारों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। अर्थ ऑब्जर्वेशन आधारित सेवाओं को बढ़ावा देने के लिए वे इनेबलर के साथ कंज्यूमर की भूमिका भी निभा सकते हैं। इससे नए उद्यमों को खड़ा होने में मदद मिलेगी।

अगले 10 वर्षों में 1100 सैटेलाइट की जरूरत

बेंगलुरू स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज (एनआईएएस) में विजिटिंग प्रोफेसर एस. चंद्रशेखर का मानना है कि किसी देश के शक्तिशाली बनने की आकांक्षा में स्पेस की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। इस लिहाज से भारत को स्पेस इकोसिस्टम को पुनर्गठित करने की जरूरत है। बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति बनने के लिए उद्योग और टेक्नोलॉजी का भी मजबूत आधार चाहिए। एक समय था जब स्पेस सेक्टर को सभी देश दो हिस्सों में देखते थे- सैनिक इस्तेमाल और नागरिक इस्तेमाल, लेकिन अब यह अंतर खत्म होता जा रहा है। इसलिए हमें इन दोनों को एक साथ देखने की जरूरत है।

प्रो. चंद्रशेखर के अनुसार, कम्युनिकेशन क्षेत्र में हाई थ्रूपुट सैटेलाइट की जरूरत सिर्फ नागरिक इस्तेमाल के लिए नहीं, बल्कि सैनिक इस्तेमाल के लिए भी है। हमें विशाल भौगोलिक क्षेत्र तक सूचनाएं पहुंचाने के लिए डेटा रिले सैटेलाइट चाहिए। इसके साथ ही हमें नागरिक और सैनिक इस्तेमाल वाले छोटे सैटेलाइट की भी जरूरत है। अगले 10 वर्षों में हमें सिर्फ कम्युनेकशन के लिए 45 बड़े और लगभग 500 छोटे सैटेलाइट की जरूरत पड़ेगी। अभी भारत मीडियम और इंटरमीडियट सैटेलाइट वर्ग में है। हमें हैवी और एक्स्ट्रा हैवी कम्युनिकेशन सैटेलाइट की जरूरत है। इसके लिए टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में कई कदम उठाने होंगे।

इसी तरह, रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट भी चाहिए जिनकी जरूरत सैनिक इस्तेमाल के लिए भी है। अगले 10 वर्षों में हमें 400 से ज्यादा छोटे और बड़े रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट चाहिए। चीन के पास इस समय 140 सैटेलाइट हैं और वह काफी तेजी से इनकी संख्या बढ़ा रहा है। हमें इस तरह के ट्रेंड को ध्यान में रखने की जरूरत है। चंद्रशेखर के अनुसार, नेविगेशन के क्षेत्र में हमारे पास नाविक सिस्टम है, लेकिन हमें जीपीएस सिस्टम जैसा कुछ तैयार करने की जरूरत है। स्पेस सर्विलांस के लिए भी हमें सैटेलाइट चाहिए। इस तरह हमें अगले 10 वर्षों में लगभग 1,100 सैटेलाइट की जरूरत पड़ेगी।