16 जनवरी को अपडेट... चीन के दबाव में एक और देश, नोरू ने ताइवान की अलग मान्यता खत्म कर दी है। डीपीपी प्रत्याशी लाइ चिंग-ते की जीत के दो दिन बाद ही नोरू ने यह कदम उठाया है। लाइ मई में राष्ट्रपति बनेंगे। अब सिर्फ 12 देश ऐसे रह गए हैं जिन्होंने ताइवान को अलग देश के तौर पर मान्यता दे रखी है।

एस.के. सिंह, नई दिल्ली। इस साल भारत और अमेरिका समेत करीब 50 देशों में राष्ट्रीय चुनाव होने हैं। विश्व इतिहास में ऐसा पहली बार होगा। दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी इन चुनावों में हिस्सा लेगी। इन देशों का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) विश्व जीडीपी के 60 प्रतिशत के बराबर है। पहला चुनाव शनिवार, 13 जनवरी को पूर्वी एशिया के ताइवान में होना है। वहां राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव के लिए मतदान होगा।

ताइवान चुनाव इस साल की सबसे चर्चित भू-राजनैतिक घटनाओं में एक है। इसके नतीजे ताइवान की सीमा से बाहर भी बड़ा उलट-फेर करने की हैसियत रखते हैं। इसे चीन के साथ ताइवान के रिश्ते और अमेरिका-चीन रिश्तों के लिए काफी अहम माना जा रहा है। अमेरिका-चीन रिश्ते में किसी तरह का बदलाव आया तो उसका असर भारत पर भी पड़ेगा। डिजिटल युग में ताइवान का महत्व इस तथ्य से समझा जा सकता है कि दुनिया का 60% से अधिक सेमीकंडक्टर उत्पादन वहीं होता है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और क्वांटम कंप्यूटिंग में इस्तेमाल होने वाले एडवांस सेमीकंडक्टर तो 90% से ज्यादा ताइवान में ही बनते हैं।

ताइवान को ‘अभिन्न अंग’ मानता है चीन

इस चुनाव के नतीजों का इंतजार चीन के नेताओं को भी है। चीन का ताइवान पर कभी प्रत्यक्ष शासन नहीं रहा, फिर भी वह इस छोटे पड़ोसी देश को अपना हिस्सा बताता है। पिछले महीने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग अमेरिका गए थे, तो वहां उन्होंने ताइवान को चीन में शामिल करने की बात दोहराई थी। नए साल की पूर्व संध्या पर अपने संबोधन में भी उन्होंने कहा कि ‘मातृभूमि को एक करना ऐतिहासिक अनिवार्यता’ है। जिनपिंग जरूरत पड़ने पर बल का इस्तेमाल करने की बात भी कह चुके हैं। ताइवान में सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी) को चीन पसंद नहीं करता है। दबाव बनाने के लिए उसका कहना है कि ताइवान के मतदाता शांति और युद्ध में किसी एक का चुनाव करेंगे।

इस चुनाव में डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी) की तरफ से लाइ चिंग-ते राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं। वे अभी उपराष्ट्रपति भी हैं। कुओमिनतांग (केएमटी) पार्टी की तरफ से होउ यू-इह तथा ताइवान पीपुल्स पार्टी (टीपीपी) की ओर से को वेन-जे प्रत्याशी हैं। मौजूदा राष्ट्रपति साइ इंग-वेन 2016 से इस पद पर हैं और ताइवान के संविधान के अनुसार कोई व्यक्ति अधिकतम दो बार राष्ट्रपति बन सकता है।

चित्र परिचयः ताइवान राष्ट्रपति चुनाव के तीन प्रत्याशी- (बाएं से) डीपीपी के लाइ चिंग-ते, केएमटी के हाउ यू-इह और टीपीपी के को वेन-जे।

ताइवान पर चीन की दबाव की रणनीति

ताइवान में अभी तक किसी पार्टी की लगातार तीसरी बार सरकार नहीं बनी है। अगर डीपीपी जीतती है तो 27 साल के लोकतांत्रिक इतिहास (1996 में पहला चुनाव) में ऐसा पहली बार होगा। हालांकि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में किसी भी पार्टी को बहुमत मिलता नहीं दिख रहा था। साइ के आठ साल के कार्यकाल में चीन ने ताइवान के प्रति सख्ती बढ़ाई और सैनिक दबाव बनाने की कोशिश की। अपने कार्यक्राल में साइ ने खास तौर से अमेरिका के साथ संबंध मजबूत किए हैं जिससे बीजिंग की नाराजगी बढ़ी है।

ताइवान के हर राष्ट्रपति चुनाव में चीन मुद्दा रहा है। केएमटी ने डीपीपी की चीन नीति को खारिज करते हुए चीन की भाषा ही दोहराई है। उसने कहा है कि यह युद्ध और शांति के बीच एक के चयन का चुनाव है और वह शांति की समर्थक पार्टी है। चीन के इरादों को खतरनाक बताते हुए डीपीपी का कहना है कि ताइवान को अमेरिका के साथ संबंध मजबूत करने चाहिए।

ताइवान ने चीन पर सोशल मीडिया तथा आर्थिक दबाव के जरिए चुनाव में हस्तक्षेप के आरोप लगाए हैं। चुनाव से पहले चीन ने सैनिक दबाव बनाने की भी कोशिश की। वह ताइवान सीमा के पास अपने लड़ाकू विमान, ड्रोन और युद्धपोत भेजता रहा। ताइवान के रक्षा मंत्रालय का कहना है कि यह हमारे लोगों का हौसला तोड़ने की मनोवैज्ञानिक रणनीति है।

मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी लौटी तो चीन की नाराजगी बढ़ेगी

सोनीपत स्थित ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर नॉर्थ-ईस्ट एशिया के डायरेक्टर असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. मनोज कुमार पाणिग्रही जागरण प्राइम से कहते हैं, “अगर डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी) सत्ता में आती है तो चीन की नाराजगी बढ़ेगी। कुओमिनतांग पार्टी (केएमटी) या ताइवान पीपुल्स पार्टी (टीपीपी) की सरकार बनने पर चीन खुश होगा। टीपीपी के सरकार में आने की संभावना बहुत कम है, क्योंकि यह नई पार्टी है और लोगों के बीच इसकी ज्यादा लोकप्रियता नहीं है। केएमटी की संभावना भी कम ही है। केएमटी को चीन का करीबी माना जाता है।”

इस चुनाव में डीपीपी के लाइ चिंग-ते ही सबसे मजबूत दावेदार माने जा रहे हैं। उनकी पार्टी चीन से अलग पहचान की पक्षधर है। लाइ खुद को ताइवान की ‘आजादी का कार्यकर्ता’ भी घोषित कर चुके हैं, जिससे चीन खफा है। हालांकि चुनाव प्रचार के दौरान उनका रवैया थोड़ा नरम दिखा। राष्ट्रपति साइ की तरह उन्होंने भी यथास्थिति के साथ ‘समानता और सम्मान के सिद्धांतों’ के तहत चीन के साथ चर्चा की बात कही। लेकिन चीन ने इसे ठुकराते हुए लाइ को लड़ाई के लिए उकसाने वाला और क्रॉस ट्रेट शांति का विरोधी बताया है। लाइ ने उपराष्ट्रपति पद के लिए वॉशिंगटन में चीन की राजदूत रहीं हसियाओ बी-खिम को चुना है, जिन्हें अलगाववादी बताकर चीन दो बार प्रतिबंधित कर चुका है।

मौजूदा विपक्षी पार्टियां चीन की करीबी

डीपीपी की प्रमुख विरोधी पार्टी कुओमिनतांग है। यह चीन के साथ करीबी संबंध रखने की पक्षधर है। इसके प्रतिनिधि हाउ ने सत्तारूढ़ डीपीपी पर चीन को उकसाने का आरोप लगाते हुए कहा कि वे चीन के साथ शांतिपूर्ण संबंध चाहते हैं। 2019 में स्थापित ताइवान पीपुल्स पार्टी के को वेन-जे ने आम लोगों के मुद्दे उठाकर युवाओं में कुछ लोकप्रियता हासिल की है। चीन के साथ संबंधों पर उनका रुख मध्य मार्ग अपनाने का है। डीपीपी पर वे चीन के साथ काफी शत्रुतापूर्ण तो केएमटी पर बहुत लचीला रवैया अपनाने का आरोप लगाते हैं।

टीपीपी पहली बार चुनाव लड़ रही है। अभी तक राष्ट्रपति चुनाव में डीपीपी और केएमटी पार्टियां ही प्रमुख रहती थीं। पिछले साल नवंबर में केएमटी और टीपीपी के मिलकर चुनाव लड़ने की बात चली थी, लेकिन राष्ट्रपति कौन बनेगा इस पर सहमति नहीं बन पाई। हालांकि उसके बाद टीपीपी की लोकप्रियता में कमी आई है।

पाणिग्रही बताते हैं, अपने चुनाव घोषणा पत्र में केएमटी और टीपीपी ने क्रॉस-स्ट्रेट सर्विस ट्रेड एग्रीमेंट (सीएसएसटीए) को रिवाइव करने का वादा किया था। पूर्व केएमटी प्रेसिडेंट मा यिंग-जियो (Ma Ying-jeou) ने 2012 में इसकी शुरुआत की थी और जून 2013 में चीन के साथ समझौता हुआ था। उसके बाद 2014 में ताइवान में सनफ्लावर मूवमेंट देखने को मिला था। टीपीपी और केएमटी दोनों इस एग्रीमेंट की पक्षधर हैं लेकिन इस वजह से उन्होंने ताइवान के युवा मतदाताओं को संभवतः नाराज भी किया है। अतीत में सनफ्लावर आंदोलन के अगुआ युवा ही थे।

अमेरिकी थिंक टैंक ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के सेंटर फॉर ईस्ट एशिया पॉलिसी में सीनियर फेलो रिचर्ड सी. बुश के अनुसार, “केएमटी चीन के साथ आर्थिक संबंध रखने की पक्षधर है, तो डीपीपी बार-बार चीन से खतरे की बात कहती है। मीडिया ने केएमटी को चीन समर्थक और डीपीपी को आजादी समर्थक करार दिया है।”

ताइवान को मान्यता देने वाले देश कम होंगे

पाणिग्रही के मुताबिक, अगर डीपीपी सरकार में आती है तो चीन के दबाव में ताइवान के डिप्लोमेटिक एलाइज देशों (जो उसे मान्यता देते हैं) की संख्या कम हो सकती है। उदाहरण के लिए 2016 में जब साइ इंग-वेन (Tsai Ing-wen) राष्ट्रपति बनीं, तो उस समय 22 देशों ने ताइवान को मान्यता दे रखी थी, दिसंबर 2023 में इनकी संख्या घटकर 13 रह गई। यह चीन के आर्थिक प्रभुत्व के कारण हुआ। जिन देशों ने चीन का साथ दिया, वे सब उसके बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) में शामिल हैं। पाणिग्रही के अनुसार, अगर डीपीपी फिर सरकार में आती है तो दो-तीन साल के भीतर ताइवान को मान्यता देने वाले दो या तीन देश और कम हो सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ताइवान प्रतिनिधित्व भी कम हो सकता है।

डीपीपी के सत्ता में लौटने पर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ज्यादा अधीर होंगे। अभी चीन ताइवान के ऊपर अपने बैलून भेजता है, आगे चलकर वह ज्यादा कड़े कदम उठा सकता है। वह ताइवान के ऊपर से मिसाइल टेस्ट कर सकता है। अभी चीन, ताइवान सीमा के पास साल में एक बार सैनिक अभ्यास करता है, आगे वह दो या तीन अभ्यास कर सकता है।

वे कहते हैं, चीन ताइवान से कुछ वस्तुओं का आयात रोक सकता है। ऐसे कदम भी उठा सकता है जिससे ताइवान के कृषि उत्पाद समय पर चीन ना पहुंचें। इससे ताइवान के निर्यातकों को नुकसान होगा। 2019-20 में ताइवान के अनानास तथा कुछ अन्य कृषि उपज निर्यातकों के साथ ऐसा ही हुआ था।

रिचर्ड बुश का कहना है, इस चुनाव में चीन के अलावा स्थानीय मुद्दे भी हैं। जो युवा आईटी सेक्टर में नहीं हैं उन्हें लगता है कि उन्हें कभी नौकरी नहीं मिलेगी, कभी उनकी शादी नहीं होगी और कभी उनका परिवार नहीं बसेगा। अनेक युवा चीन केंद्रित नैरेटिव से ऊब गए भी लगते हैं।

अमेरिका-चीन संबंधों पर असर

अरसे से ताइवान, चीन और अमेरिका के बीच तनाव का भी कारण रहा है। इसलिए चुनाव के नतीजों पर निर्भर करेगा कि अमेरिका और चीन के बीच संबंधों में खटास बढ़ेगी या कम होगी। पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन के कार्यकाल में अमेरिका ने ताइवान को हथियारों की बिक्री भी की है। बाइडेन कई मौकों पर कह चुके हैं कि अगर चीन ने ताइवान पर हमला किया तो अमेरिका उसकी रक्षा करेगा। हालांकि वॉशिंगटन ने 1979 में ही ताइवान के साथ औपचारिक संबंध तोड़ते हुए सिर्फ चीन को राजनयिक स्वीकार्यता देने का निर्णय लिया था। बाइडेन के बयानों पर चीन ने भी तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ताइवान वह लाल रेखा है जिसे चीन-अमेरिका संबंधों में पार नहीं किया जाना चाहिए। अमेरिका एक तरफ तो कहता है कि वह ताइवान के किसी राष्ट्रपति उम्मीदवार का समर्थन नहीं करता, लेकिन साथ ही उसने चुनाव में हस्तक्षेप नहीं करने के लिए चीन को चेतावनी भी दी है। चुनाव के बाद गैर-सरकारी प्रतिनिधिमंडल भेजने की उसकी घोषणा का चीन ने कड़ा विरोध किया है।

पाणिग्रही के अनुसार, चीन और अमेरिका के संबंधों की बात करें तो यह चीन और ताइवान के रिश्तों पर ही निर्भर करता है। अगर चीन ने ताइवान के खिलाफ आर्थिक दबाव के कदम उठाए तो अमेरिका भी जवाबी कार्रवाई कर सकता है। उसकी एक नीति है जिसके मुताबिक अगर कोई देश ताइवान के साथ आर्थिक संबंध खत्म करता है तो अमेरिका उस देश के खिलाफ आर्थिक कदम उठाकर सजा देगा।

अभी 13 देशों ने ताइवान को राजनयिक स्वीकार्यता दे रखी है। अगर वे देश मान्यता खत्म करते हैं तो अमेरिका उनके खिलाफ आर्थिक कार्रवाई कर सकता है। हालांकि जैसा पाणिग्रही बताते हैं, सच्चाई यह भी है कि 2023 में एक देश (होंडुरास) ने ताइवान को डि-रिकॉग्नाइज किया था, उसके खिलाफ अमेरिका ने अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की है। यह अमेरिका के रुख में बदलाव को भी दर्शाता है।

चीन की तरफ से सैनिक कार्रवाई की संभावना कम

इस साल अमेरिका में भी चुनाव होने हैं। अभी तक जो संभावना है उसके मुताबिक जो बाइडेन की शायद वापसी न हो। राष्ट्रपति पद पर डोनाल्ड ट्रंप की वापसी होने पर अमेरिका और चीन के बीच तनाव बढ़ सकते हैं। ट्रेड वॉर नए सिरे से शुरू हो सकता है। डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के चंद राष्ट्रपतियों में हैं जिन्होंने चीन के खिलाफ आक्रामक नीति अपनाई थी। पाणिग्रही के अनुसार, ट्रंप के आने पर अमेरिका से ताइवान को सैनिक साजो-सामान की बिक्री भी बढ़ सकती है। अपने पिछले कार्यकाल में भी ट्रंप ने ऐसा किया था।

कुछ विश्लेषक का कहना था कि डीपीपी के जीतने पर अमेरिका और चीन के बीच युद्ध की नौबत आ सकती है। लेकिन ब्रूकिंग्स के रिचर्ड बुश के अनुसार, डीपीपी प्रत्याशी लाइ ने चीन के प्रति अपना रवैया बदला है। उन्होंने मौजूदा राष्ट्रपति साइ की नीति का समर्थन किया है- ‘चीन के दबाव में झुकना नहीं है, न ही अमेरिका की मदद पाकर चीन को अनावश्यक उकसाना है।’ चीन भी सीधे टकराव का रास्ता न अपनाकर आर्थिक दबाव बनाने और युद्धाभ्यास बढ़ाने की नीति चुन सकता है।

अमेरिका और चीन के बीच संबंधों में जापान और फिलिपींस की भूमिका भी महत्वपूर्ण कही जा सकती है। भौगोलिक स्थिति देखें तो ताइवान के उत्तर में जापान है और दक्षिण में फिलिपींस है। दोनों देशों में अमेरिका के सैनिक बेस हैं।

जापान के ओकिनावा में अमेरिका का बड़ा सैनिक बेस है। पाणिग्रही के अनुसार, अगर ताइवान में कुछ होता है तो उसका प्रभाव जापान और फिलिपींस पर भी देखने को मिलेगा। अमेरिका इन देशों में अपने सैनिक बेस का इस्तेमाल कर सकता है। ओकिनावा में अमेरिका के करीब 30000 सैनिक तैनात हैं, इसलिए अमेरिका पहले उस बेस का इस्तेमाल करेगा। अमेरिका के पास हवाई में मौजूद अपने सैनिकों को भेजने का विकल्प भी है, लेकिन वह बहुत दूर है।

चीन-अमेरिका तनाव का भारत को फायदा

अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वॉर का असर भारत पर भी पड़ना लाजिमी है। पाणिग्रही इसका सकारात्मक पक्ष बताते हैं, “चीन से बाहर निकलने की इच्छुक अमेरिकी कंपनियां भारत आ सकती हैं। चीन और अमेरिका के बीच प्रतिद्वंद्विता बढ़ने पर भारत, अमेरिका से ज्यादा टेक्निकल सपोर्ट की उम्मीद भी कर सकता है। यह सपोर्ट रक्षा तथा अन्य क्षेत्र की टेक्नोलॉजी में संभव है। अमेरिका से भारत को टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की गति भी बढ़ सकती है।”