तुष्टीकरण की राजनीति का खतरनाक खेल, हमास-इजरायल टकराव का भारतीय मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं
आज मुस्लिम जगत के समक्ष दो विकल्प हैं। एक नई टेक्नोलाजी लेकर पेट्रोलियम के अप्रासंगिक होने के बाद एक नए भविष्य की नई संभावनाओं के साथ खड़े होना। दूसरा विकल्प है मध्ययुगीन मानसिकता के साथ आतंकी ताकतों का समर्थन करते हुए एक अनिश्चित अंधकारमय भविष्य की ओर जाना। इजरायल ने 75 वर्षों में खुद को एक विकसित देश बना लिया है।
सुधांशु त्रिवेदी। हमास का आतंकी हमला और उसके बाद इजरायल की जवाबी कार्रवाई को देखें तो कई बातें स्पष्ट हो जाएंगी। पेट्रोलियम उत्पादों के दम पर समृद्ध हुए संयुक्त अरब अमीरात यानी यूएई और सऊदी अरब जैसे पश्चिम एशियाई देशों को समझ आ रहा है कि तकनीक और ऊर्जा के नए स्रोतों के विकास से पेट्रोलियम आधारित ऊर्जा का भविष्य 15-20 वर्ष से अधिक नहीं रह गया है। अब हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहनों का चलन बढ़ रहा है। ऐसे में इन देशों को अपनी आर्थिक शक्ति बनाए रखने के लिए नए सोच और नई तकनीक की आवश्यकता है। भारत के साथ प्रस्तावित आर्थिक गलियारा भी उसी रणनीति के अनुरूप है।
इसी वास्तविकता को समझते हुए यूएई ने इजरायल से संबंध स्थापित किए। सऊदी अरब उस दिशा में आगे बढ़ रहा था। अमेरिकी मध्यस्थता से जार्डन में मुस्लिम देशों के साथ एक अब्राहम समझौता होने भी जा रहा था। यह मुस्लिम जगत की बेहतरी के लिए एक समझदार पहल थी, मगर इजरायल पर हमास के आतंकी हमले ने पूरे हालात बदल दिए।
सहज ही समझा जा सकता है कि इस योजना को रोकने के लिए इस्लामिक देशों की प्रतिद्वंद्विता की भूमिका भी हो सकती है। सऊदी अरब और ईरान में टकराव जगजाहिर है। हमास और हिजबुल्ला, दोनों को ईरान और तुर्किये का समर्थन है। यूएई और सऊदी अरब में उसे खतरनाक और कई मुस्लिम देशों में आतंकी संगठन माना जाता है। यह समझ आता है कि आर्थिक दृष्टि से अलग-थलग पड़े मुस्लिम देशों का एक गुट सऊदी अरब और यूएई को यूरोप और इजरायल की मदद से शक्तिशाली एवं प्रभावशाली होने से रोकना चाहेगा। उसका एक ही तरीका था कि मुस्लिम देशों में एक कट्टरपंथी सोच को उभारकर यहूदी बनाम मुस्लिम के संघर्ष का रूप दे दिया जाए। इसमें वे कुछ सफल भी होते दिख रहे हैं।
इसमें कौन किसका दुश्मन है और कौन दोस्त, यह समझना मुश्किल नहीं। स्वतंत्र फलस्तीन की सरकार के रूप में फलस्तीन मुक्ति संगठन यानी पीएलओ मान्यता प्राप्त कर चुका था। हमास ने उसी के विरुद्ध संघर्ष शुरू किया और माना जाता है कि 1967 से 1984 तक इजरायल से दोस्ती बनाकर सहायता लेता रहा। आज उसकी नजर में इजरायल सबसे बड़ा दुश्मन है। हमास जिस पीएलओ का दुश्मन था, वही आज उसके साथ है।
1981 में इराक का परमाणु रिएक्टर इजरायल ने ध्वस्त कर दिया था। यह माना जाता है कि उसके लिए ईरान ने मोसाद को खुफिया जानकारी उपलब्ध कराई थी, क्योंकि ईरान-इराक में युद्ध चल रहा था और इराक का परमाणु शक्ति बनना ईरान के लिए खतरा था। आज ईरान, इजरायल के विरुद्ध लड़ने की कसमें खा रहा है। तुर्किये, अमेरिका का खास दोस्त हुआ करता था, लेकिन आज वह ईरान के साथ है। पश्चिम एशिया के रास्ते से गुजरने वाला प्रस्तावित आर्थिक गलियारा चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआइ के लिए खतरे की घंटी थी तो जाहिर है कि बदला घटनाक्रम चीन के लिए भी फायदेमंद है।
इजरायल-हमास टकराव में चीन मुस्लिम हितों की दुहाई दे रहा है। जबकि यह वही चीन है, जिसने अपने यहां उइगर मुसलमानों का निर्ममता से दमन किया है। स्पष्ट है कि अपनी राजनीतिक सुविधा के लिए कोई भी किसी के साथ हाथ मिला सकता है।
आज मुस्लिम जगत के समक्ष दो विकल्प हैं। एक नई टेक्नोलाजी लेकर पेट्रोलियम के अप्रासंगिक होने के बाद एक नए भविष्य की नई संभावनाओं के साथ खड़े होना। दूसरा विकल्प है मध्ययुगीन मानसिकता के साथ आतंकी ताकतों का समर्थन करते हुए एक अनिश्चित अंधकारमय भविष्य की ओर जाना। इजरायल ने 75 वर्षों में खुद को एक विकसित देश बना लिया है। वह तकनीक में इतना आगे है कि पश्चिमी देशों को उसकी जरूरत पड़ती है। इजरायल के पास रेगिस्तान को हरा-भरा करने की कृषि तकनीक से लेकर एंटी मिसाइल सिस्टम आयरन डोम तक है। दूसरी ओर हमास आज भी पानी के पाइप से राकेट बना रहा है। पढ़ाई के बजाय लड़ाई की मानसिकता से अफगानिस्तान, सीरिया, लीबिया, यमन और सोमालिया जैसे तमाम मुस्लिम देश किसी गैर-मुस्लिम से नहीं, बल्कि आपस में ही लड़कर बर्बाद हो रहे हैं। ऐसे में मुस्लिम जगत को सोचना चाहिए कि वे पढ़ाई का विकल्प चुनें या फिर लड़ाई का।
मुस्लिम जगत के साथ ही भारत में भी जो हो रहा है, वह नया नहीं है। भारत में कट्टरपंथी मुस्लिमों को ही मुस्लिम वोट का थोक विक्रेता बनाकर खतरनाक सेक्युलर सियासत का खेल भी बहुत पुराना है। पश्चिम एशिया के ताजा घटनाक्रम का भारतीय मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं, मगर उसे मजहबी आंच देकर सियायी रोटी सेंकने का पुराना खेल खेला जा रहा है। कश्मीर घाटी में ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ कहने वालों पर सख्ती न करना। राजीव गांधी के समय कांग्रेस का सद्दाम हुसैन की फोटो के साथ प्रचार करना। इतना ही नहीं, प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्किये में खलीफा का पद समाप्त हो गया था तो कांग्रेस का तुर्किये के खलीफा को बहाल करने के लिए आंदोलन का भारत में समर्थन करने जैसे तुष्टीकरण के तमाम उदाहरण आपको मिल जाएंगे। उसी रणनीति के अनुसार आज कांग्रेस कार्यसमिति की हमास के हमले पर चुप्पी तो स्वयंभू सेक्युलर नेताओं का फलस्तीनी दूतावास जाना यही दर्शाता है। शरद पवार जैसे नेताओं को हमास से हमदर्दी जताने से भी गुरेज नहीं। इस प्रवृत्ति से ऐसे नेता देश को ही नहीं, अपितु मुस्लिम समाज की छवि को भी नुकसान पहुंचाते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने इस मामले में अद्भुत कूटनीतिक दक्षता और संतुलन के साथ काम किया है। भारत ने फलस्तीन को राहत सामग्री भी भेजी है। इस समय मोदी ही एकमात्र बड़े राष्ट्राध्यक्ष हैं, जिनसे फलस्तीन और इजरायल के राष्ट्र प्रमुख बात करने में सहज हैं। नेतन्याहू के साथ प्रधानमंत्री की घनिष्ठता है तो फलस्तीन ने उन्हें अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया है। भारत सरकार स्वतंत्र फलस्तीन राज्य के पक्ष में है, परंतु इजरायल के साथ शांतिपूर्ण वार्ता के द्वारा। यह हमारी 75 वर्ष की नीति है। इसके बावजूद आज के विपक्षी दल शांतिपूर्ण वार्ता के स्थान पर हिंसा एवं आतंक और किसी स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना के बजाय किसी एक देश या कौम का वजूद खत्म करने वाले सोच के समर्थन को विदेश नीति बताना चाहते हैं। पश्चिम एशिया में लड़ाई भले ही गाजा पट्टी की हो, मगर भारत में कथित सेक्युलर दलों में लड़ाई वोट बैंक की है।
(लेखक राज्यसभा सदस्य एवं भाजपा प्रवक्ता हैं)