युवाओं को राजनीति से जोड़ने की चुनौती, उनकी भागीदारी बढ़ाने के लिए कई स्तरों पर उठाने होंगे कदम
इसमें कोई संदेह नहीं कि युवाओं को राजनीति से जोड़ना किसी भी दृष्टि से श्रेयस्कर होगा। इससे नीति निर्माण में उनकी आकांक्षाओं की सहज रूप से अभिव्यक्ति हो सकेगी। भारतीय राजनीति और चुनावों में युवाओं की भागीदारी को समझने के लिए कुछ रुझानों पर नजर डालना बहुत उपयोगी होगा। वर्ष 2014 में करीब 9500 तो 2019 में 10000 उम्मीदवारों ने लोकसभा चुनाव लड़ा।
राहुल वर्मा : संसदीय चुनाव में उतरने की आयु सीमा घटाने की चर्चा राजनीतिक गलियारों में काफी समय से चल रही है। यह मुद्दा बहुत जोर-शोर से तो नहीं, लेकिन यदाकदा सतह पर आ ही जाता है। आगामी आम चुनाव से पहले यह मुद्दा फिर चर्चा में है। संसद की कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय मामलों की समिति के सुझाव से इस बहस ने फिर जोर पकड़ा है।
सुशील कुमार मोदी के नेतृत्व वाली इस समिति ने चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम आयु सीमा 25 वर्ष को घटाकर 18 वर्ष किए जाने की बात कही है। इससे पहले दिसंबर, 2022 में जयंत चौधरी ने संसद में इस विषय पर निजी सदस्य विधेयक पेश किया था। हालांकि, चुनाव आयोग ने आयु सीमा घटाने के इस प्रस्ताव पर सहमति नहीं जताई है। चुनाव लड़ने के लिए आयु सीमा घटाने की वकालत करने वालों का तर्क है कि इससे राजनीति में युवाओं की भागीदारी बढ़ेगी और चूंकि भारत युवा आबादी वाला देश है तो युवाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाना आवश्यक है।
दुनिया के कई लोकतांत्रिक देश ऐसे हैं, जहां 18 साल की आयु में चुनाव में उतरा जा सकता है। कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, स्विट्जरलैंड और आस्ट्रेलिया ऐसे कुछ प्रमुख देश हैं, जहां 18 साल का पड़ाव पार करते ही चुनाव लड़ने की अर्हता प्राप्त हो जाती है। वहीं, अमेरिका के कुछ राज्यों, ब्राजील और इंडोनेशिया में 21 वर्ष की आयु सीमा चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम आयु वर्ग के रूप में स्वीकार्य है।
इसके उलट भारत में यह 25 वर्ष है। जबकि भारत उन देशों में रहा है, जहां स्त्री और पुरुषों में कोई भेदभाव किए बिना आरंभ से ही सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की परंपरा अपनाई गई। फिर मताधिकार के लिए न्यूनतम आयु सीमा को 1989 में 21 से घटाकर 18 वर्ष किया गया। साथ ही ड्राइविंग सरीखे कई अन्य कार्यों के लिए 18 वर्ष की आयु को मानक मान लिया गया। इसलिए चुनाव में उतरने के लिए आयु सीमा घटाने के लिए आवाज उठाई जाती है। ऐसे में यह पड़ताल जरूरी है कि क्या इससे वाकई कुछ फायदा होगा या फिर मौजूदा व्यवस्था ही बेहतर है?
इसमें कोई संदेह नहीं कि युवाओं को राजनीति से जोड़ना किसी भी दृष्टि से श्रेयस्कर होगा। इससे नीति निर्माण में उनकी आकांक्षाओं की सहज रूप से अभिव्यक्ति हो सकेगी। भारतीय राजनीति और चुनावों में युवाओं की भागीदारी को समझने के लिए कुछ रुझानों पर नजर डालना बहुत उपयोगी होगा। वर्ष 2014 में करीब 9,500 तो 2019 में 10,000 उम्मीदवारों ने लोकसभा चुनाव लड़ा। इनमें से महज पांच प्रतिशत उम्मीदवार ही 25 से 30 वर्ष की आयु वर्ग के थे। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में 25 से 30 वर्ष आयु वर्ग के 32 उम्मीदवार ही ऐसे थे, जिन्हें पांच प्रतिशत से अधिक वोट मिले। जबकि 2019 में ऐसे 26 उम्मीदवार रहे जिन्हें पांच प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त हुए।
यदि जीत की बात करें तो 2014 में 11 और 2019 में आठ सांसद ही ऐसे जीतकर आए, जिनकी आयु 25 से 30 साल के बीच थी। इन आंकड़ों के निहितार्थ निकाले जाएं तो यही बात सामने आती है कि एक तो 25 से 30 वर्ष की आयु वर्ग वाले बहुत ज्यादा प्रत्याशी चुनाव में उतर नहीं रहे और उतर भी रहे हैं तो जीत नहीं पा रहे। जो चुनाव में उतरने के साथ जीत भी रहे हैं उनमें से अधिकांश राजनीतिक परिवारों से आते हैं।
पिछले कुछ लोकसभा चुनावों की तस्वीर देखें तो संसद की औसत आयु 53 से 54 वर्ष के बीच निकलकर आएगी। यह स्पष्ट रूप से संकेत करती है कि संसद जैसी विधायी संस्था में युवा आबादी का प्रतिनिधित्व बढ़ना चाहिए। आखिर क्या कारण है कि ऐसा नहीं हो पा रहा है? प्रथमदृष्टया इसके सबसे बड़े दोषी तो राजनीतिक दल ही नजर आते हैं। राजनीतिक दल युवाओं को टिकट देने से परहेज करते हैं। टिकट दिया भी जाता है तो मुख्य रूप से उन्हीं को जिनकी राजनीतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि या प्रभाव होता है। ऐसे में यदि चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम आयु सीमा घटाई जाएगी तो इसका एक बड़ा जोखिम यह होगा कि इससे हमारी राजनीतिक प्रणाली पर वंशवादी राजनीति का प्रभुत्व और बढ़ जाएगा। स्वाभाविक है कि राजनीति से युवाओं को जोड़ने की राह चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम आयु सीमा घटाने से होकर नहीं जाती, बल्कि इसके लिए राजनीतिक दलों को व्यापक रूप से अपना सोच-रवैया बदलना होगा।
यदि राजनीतिक दल वाकई राजनीति में युवाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए गंभीर हैं तो उन्हें कई स्तरों पर कदम उठाने होंगे। सबसे पहले तो सरकार को युवाओं को लेकर मापदंड बदलना होगा। अभी 34-35 वर्ष की आयु वालों को भी युवा माना जाता है। इस पैमाने को घटाना होगा। पार्टियों को अपने सांगठनिक ढांचे में युवाओं को अधिक जगह देनी होगी। अमूमन यह देखने में आता है कि बड़े-बड़े राजनीतिक दलों की युवा इकाइयों की बागडोर भी प्रौढ़ावस्था की दहलीज पर खड़े नेताओं के हाथ में होती है। राजनीतिक दलों को अपने छात्र संगठनों के लिए भी अधिकतम आयु की एक सीमा निर्धारित करनी होगी। बेहतर होगा कि उसमें 30 से अधिक आयु वालों को जगह न ही दी जाए।
राजनीतिक दलों के साथ ही सिविल सोसायटी को यह उपाय भी करना होगा कि मतदान में युवाओं की भागीदारी बढ़ाई जाए। मतदान के रुझान यही बताते हैं कि 18 से 25 वर्ष की आयु वर्ग वाले उसमें उदासीनता दिखाते हैं। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि इस आयु वर्ग के युवा या तो पढ़ाई या फिर नौकरी के सिलसिले में उस स्थान से बाहर होते हैं, जहां उनका नाम मतदाता सूची में होता है। केवल मतदान के लिए वे अपने मूल स्थान नहीं जा पाते। युवाओं का राजनीति से मोहभंग यहीं से आरंभ होता है।
इसलिए राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग को ऐसा कोई रास्ता निकालना होगा कि विभिन्न कारणों से अपने मूल स्थानों से बाहर रह रहे युवा बिना किसी गतिरोध के अपना मतदान कर सकें। जब युवा मतदान में सहभागी बनेंगे तो राजनीति को लेकर उनका रवैया भी गंभीर एवं संवेदनशील बनेगा। उनके भीतर नेतृत्व की नैसर्गिक भावना भी उत्पन्न होगी। पहले इस दिशा में प्रभावी उपाय किए जाएं, उसके बाद ही चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम आयु घटाने पर विचार करने की दिशा में आगे बढ़ा जाए।
(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो और राजनीतिक विश्लेषक हैं)