अपने ही मुंह मियां मिट्ठू बन रहे राष्ट्रपति शी चिनफिंग, खुद को दिलवाया महान हस्ती का दर्जा, ड्रैगन का खतरा बढ़ा
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी हाल ही में एक प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रपति शी चिनफिंग को महान हस्ती का दर्जा दिया है। इसमें कहा गया है कि उनकी कही हर बात एक आदेश है जिसको सभी को मानना होगा।
श्रीराम चौलिया। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीसीपी ने अपने सौ वर्षो के अस्तित्व में केवल तीसरी बार इतिहास विषय पर एक प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव में राष्ट्रपति शी चिनफिंग को महान हस्ती का दर्जा दिया गया। उनके आदेश का पालन करना प्रत्येक कार्यकर्ता और देशवासी का कर्तव्य घोषित किया गया। इस महत्वपूर्ण दस्तावेज का दो तिहाई हिस्सा शी की उपलब्धियों के गुणगान पर केंद्रित है। इसमें सर्वाधिक 22 बार शी का उल्लेख हुआ है। उनकी तुलना में चीनी कम्युनिस्ट दिग्गज माओ त्से तुंग का 18 बार और देंग शिआओ¨पग का मात्र छह बार ही उल्लेख है। देंग के बाद और शी से पूर्व के चीनी शासकों का कोई जिक्र तक नहीं। एक तरह से यह प्रस्ताव चीन और कम्युनिस्ट पार्टी के आधुनिक इतिहास को नहीं, बल्कि भविष्य को परिभाषित करने का राजनीतिक उपकरण है।
वस्तुत: यह चिनफिंग की संभावित शाश्वत तानाशाही पर मुहर लगाने और उनके निरंकुश शासन को वैधता प्रदान करने की सोची-समझी चाल है। संदेश साफ है कि चीनी इतिहास में माओ और देंग के बाद यह चिनफिंग के युग का उद्घोष है। जो इसे चुनौती देने की जुर्रत करेगा, उसे बर्दाश्त न कर कुचल दिया जाएगा। 2018 में चीनी संविधान का संशोधन करके पहले ही ‘शी चिनफिंग सोच’ को सबसे ऊंचा दर्जा दिया गया, ताकि उस पर वर्तमान पीढ़ी ही नहीं, बल्कि भावी पीढ़ियां भी सवाल न कर सकें।
घोर महत्वाकांक्षी और अहंकारी शी ने स्वयं को चीन का निर्विवाद अधिपति बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 2012 से आज तक उनकी सभी नीतियां और रणनीतियां शक्ति संकेंद्रण और निजी स्तुति के ध्येय से बनाई गई हैं। सत्ता की अपार भूख और सामाजिक नियंत्रण की असीम चाहत ही उसके प्रोत्साहन ¨बदु हैं। चीन के हजारों वर्षो के इतिहास में लोकतांत्रिक शासन का कोई ठोस उदाहरण नहीं है। 1949 में कम्युनिस्ट क्रांति के बाद वहां आततायी तंत्र साम्यवाद और मार्क्सवाद का चोला पहनकर कायम है।
इसके बावजूद चीन के पूर्व तानाशाहों और शी चिनफिंग की निरंकुशता में अंतर है। इस अंतर को समझना आवश्यक है। पार्टी के प्रचारकों के अनुसार चीन का उत्थान तीन चरणों में हुआ है। पहले माओ ने क्रांति से गुलामी की जंजीर तोड़ फेंकी और जनता को उत्पीड़न के विरुद्ध खड़ा किया। फिर देंग ने सुधारों के माध्यम से आर्थिक समृद्धि प्रदान की और अब शी आत्मविश्वास और दृढ़संकल्प से देश को परम शक्तिशाली बना रहे है। इस वृत्तांत का तात्पर्य है कि चीन अपनी स्वाधीनता को बचाए रखने और जनता को गरीबी से उबारने जैसे रक्षात्मक कार्य पूरे कर चुका है और अब आक्रामक होकर विश्व में चीन के बल का प्रदर्शन एवं प्रयोग करने की बारी है।
शी ने अपने समर्थकों को आश्वस्त किया है कि ‘पूरब बढ़ रहा है और पश्चिम सिकुड़ रहा है।’ साथ ही चीन के प्रतिद्वंद्वियों को चेतावनी दी है कि अगर विदेशी ताकतों नें हमें धमकाया तो भीषण रक्तपात होगा। शी से पहले जब अपेक्षाकृत नम्र स्वभाव के नेता चीन में सत्तारूढ़ थे तो वे देश के ‘शांतिपूर्वक उदय’ का नारा देते थे। अब शी का खुला एलान है कि अगर महाशक्ति बनकर ¨हसक पथ अपनाना पड़े तो वह बेझिझक उस राह पर जाएंगे और सभी शत्रु उनसे भिड़ने को लेकर सावधान रहें। प्रभुत्व की ऐसी मानसिकता शी के आंतरिक प्रशासन तक सीमित नहीं है। वह बाहरी दुनिया पर स्वामित्व को चीन की उन्नति की पराकाष्ठा मानते हैं।
घरेलू सत्ता के हर यंत्र को अपनी मुट्ठी में करने के बाद वह संतुष्ट होकर नहीं बैठ सकते। असल में अंतरराष्ट्रीय दिग्विजय से ही वह चीन के 140 करोड़ लोगों पर आजीवन राज कर सकते हैं। चीनी समाज के प्रत्येक अहम क्षेत्र जैसे उद्योग, शिक्षा, कला, खेलकूद, मनोरंजन, वेशभूषा और रीति-रिवाज को शी अपनी इच्छानुसार ढालना चाह रहे हैं। स्वाभाविक है कि इस कारण कई वर्गो से कुछ प्रतिरोध भी उत्पन्न होंगे। मार्क्सवाद के सिद्धांत में ही राज्य और समाज के बीच ऐसी रस्साकशी का सच वर्णित है और शी उसे कंठस्थ जानते हैं।
वैश्विक स्तर पर चीन द्वारा अपनी सत्ता स्थापित करना और अपने खोए हुए प्राचीन साम्राज्यवाद (मंडारिन में इस अवधारणा को ‘तिआनशिआ’ कहते हैं) को पुन: जागृत करने से ही शी आंतरिक सर्वसत्तावाद का औचित्य सिद्ध कर सकते हैं। आर्थिक वृद्धि में गिरावट, अल्पसंख्यकों में व्याकुलता और चीनी जनता में तानाशाही के पसरे खौफ जैसी उलझनों का एकमात्र हल है अति-राष्ट्रवाद, विस्तारवाद और विश्व भर में चीन केंद्रित व्यवस्था बनाना।
माओ ने भी चीन की आंतरिक ऊर्जाओं को एकत्रित कर अन्य देशों में कम्युनिस्ट विचारधारा के फैलाव के मकसद से सैन्य हस्तक्षेप किए थे। हालांकि तब चीन पिछड़ा और साधनहीन था। उसका प्रभाव सोवियत संघ और अमेरिका के मुकाबले काफी कम था। आज शी के पास साधनों-संसाधनों की कोई कमी नहीं। केवल अमेरिका ही ताकत के मामले में उससे आगे है। इसके बावजूद शी ने जिस बेबाकी से अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन को ताइवान को लेकर ‘आग से मत खेलो’ जैसी धमकी दी और अन्य मामलों में भी उनके समक्ष जिस प्रकार एक लकीर खींची है, उससे स्पष्ट है कि विनम्रता चीन की कूटनीति में रही ही नहीं।
एशिया में भारत समेत कई पड़ोसियों के साथ विवादित सरहदों पर सैन्य दबाव डाले रखना, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में आर्थिक शिकंजा कसना और विश्व के कोने-कोने से खनिज और सामरिक तकनीक जमा करने जैसे सभी संकेत पुष्टि करते हैं कि चीन दीर्घावधिक विजययात्र पर चल पड़ा है। वैश्विक नायकत्व की अभिलाषा शी की निजी पसंद ही नहीं, अपितु उनके द्वारा संस्थापित ‘तीसरी क्रांति’ और ‘चीनी स्वप्न’ का मुख्य ¨बदु है। ऐसे तानाशाह अपनी जनता के मानवाधिकार का तो बेहिसाब हनन करते ही हैं, परंतु अन्य देशों के अधिकारों और हितों के लिए भी बड़ा खतरा हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय में चीन को कभी जिम्मेदार हितधारक बनाने की बात होती थी। अब जो भी देश ऐसी सकारात्मक सोच के आधार पर चीन से निपटेगा, उसे मुंह की खानी पड़ेगी। शी चिनफिंग ने इतिहास बदल दिया है। इसलिए दुनिया को भी अपने नजरिये और रणनीति बदलनी होंगी। इसमें देरी दुनिया के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।
(लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं)